एनडीटी
वी ने अभियोजन और बचाव पक्ष के वकीलों की आपसी मिलीभगत और गवाह को ख़रीदने की कोशिश का एक स्टिंग आपरेशन दिखाया है। चारों तरफ इसकी सराहना हो रही है। व्यवस्था की झकझोड़ देने वाली इस ख़बर का महत्व सिर्फ इसलिए नहीं है कि इसमें दो बड़े वकीलों को इंसाफ की सौदेबाज़ी करते पकड़ा गया है... बल्कि ये न्यापालिका से जुड़े लोगों में फैले भ्रष्टाचार की गंभीरता का अहसास कराने वाली पहली बड़ी ख़बर है। चश्मदीद कुलकर्णी की विश्वसनीयता को शक से देखने वाले अपनी जगह, पर अपना काम ईमानदारी से करने वाले वकील भी अपनी बिरादरी के दो दिग्गजो के व्यवहार को शर्मनाक बता रहे हैं। बीएम़डब्ल्यू मामले पर अदालत की कड़ी निगाह है और इसलिए जिस चश्मदीद को अभियोजन पक्ष ने हटा दिया, सच्चाई जानने की गरज से अदालत ने उसे बुला लिया। लेकिन जिस वकील को सज़ा दिलाने की ज़िम्मदारी दी गई वो कैमरे पर उससे डिगता नज़र आया।
न्यापालिका की सक्रियता के चलते जनहित से जुड़े बड़े बड़े मामलों पर कार्रवाई हुई है। लेकिन ये भी सच है कि न्यापालिका भी भ्रष्टाचार व्याप्त है। मीडिया की जद में हर कोई आता है लेकिन अब तक न्यापालिका में बैठे दलालों-घूसखोरों के पर्दाफ़ाश के लिए ज़्यादा कुछ नहीं किया गया है। न्यापालिका में बड़ी तादाद में ईमानदार और न्याय का साथ देने लोग भी हैं। इसलिए किसी एक के चलते पूरी न्यापालिका पर कीचड़ उछालने से बचना भी ज़रुरी है। कंटेम्प्ट आफ कोर्ट का का डंडा भी काफी मज़बूत है। ये मानना भी ठीक नहीं कि इस ख़बर के साथ ही न्यापालिका से छन कर आती भ्रष्टाचार को लेकर मीडिया का रुख वैसा ही हो जाएगा जैसा कार्यपालिका और विधायिका को लेकर रहता है। लेकिन मौक़े को ऐसे भी नहीं जाने देना चाहिए। भेद को आगे भी खोलना चाहिए।
न्यापालि
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का में फैले ग़लत आचरणों के खिलाफ मीडिया के तनने पर एक अंदेशा जो सताता है वो ये कि पहले से ही तपी तपायी विधायिका इस मौके का फायदा उठा कर और हालात को बरगला कर मीडिया पर कानूनी शिकंजा कसने की कोशिश ना करे। संसद में पहले भी स्टिंग आपरेशन जैसी चीज़ों पर पाबंदी लगाने की मांग उठायी जा चुकी है। ऐसा नहीं है कि स्टिंग आपरेशन ही मीडिया का एकमात्र नखदंत है। पर इन तरह के आपरेशन्स के ज़रिए कई रोग साफ साफ दिख, देखे और दिखाए जाते हैं। अगर सनसनी पर संयम बरता जाए और व्यक्तिगत जिंदगी में ग़ैरज़रुरी ताकाझांकी से बचा जाए तो इसे और प्रभावशाली और अपेक्षाकृत कम आलोचित होने वाला हथियार बनाया जा सकता है। एनडीटीवी के इस स्टिंग आपरेशन की यही ख़ासियत है कि इसमें कोई व्यक्तिगत आग्रह दुराग्रह में नहीं फंसा गया है। ऐसे मामलों में अक्सर जद में आया व्यक्ति दलील देने लगता है कि टेप बनावटी है इसकी जांच करायी जाए। इसमें तस्वीर आवाज़ मेरी नहीं मुझे फंसाया जा रहा है। लेकिन यहां आरके आनंद भी मान रहे हैं कि वे कैमरे में कैद हैं और आयू खान भी अपनी कही बात से इंकार नहीं कर रहे। पर वे इसका विश्लषण इस तरह से कर रहे हैं कि अपनी साख बचायी जा सके। अब अदालत इस पूरे मामले की अपनी तरह से पड़ताल कर नतीज़े पर पहुंचेगी और तब तस्वीर पूरी तरह साफ हो जाएगी।
महत्वपूर्ण बात है कि एनडीटीवी की इस ख़बर पर दूसरे चैनलों ने भी आवाज़ उठायी है।
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आईबीएन सेवेन ने ख़ास तौर पर। नहीं तो देखने में ये आता है कि एक चैनल की ख़बर मान कर दूसरे चुप्पी साध लेते हैं। पर ख़बर तो ख़बर होती है इसकी या उसकी नहीं होती। देश के हित में होती है। शुरुआत कोई कर सकता है पर सबके साथ आ जाने में बुराई नहीं है। आते भी हैं। आजतक पर जब सवाल के बदले सांसदों को पैसे मांगते दिखाया गया था तब भी इसी तरह की एका दिखी थी चैनलों में। वो ख़बर सबने पकड़ी। अभियान-सा बन गया। दस सांसद निकाल दिए गए। स्टार न्यूज़ के मुंबई दफ्तर पर हमला हुआ तो सबों ने एक तरह से उस चैनल को आपने पर पैच कर दिया। सरकार को कड़े कदम उठाने पड़े। यही मीडिया की ताक़त है और ये तब और बढ़ जाती है जब सब मिल कर आवाज़ बुलंद करते हैं।
फिलहाल
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व्यापक प्रभाव पैदा कर सकने की कूवत रखने वाली ख़बरों को मिलाजुला अभियान बनाने की तरफ कुछ क़दम बढ़ते दिखाई पड़ रहे हैं। मौजूदा हालात में ये एक महज संयोग भी हो सकता है या कुछ कैलकुलेटिव मूव भी... पर व्यवस्था दलालों के खिलाफ अभियान को संस्थागत रुप देने की ज़रुरत है। आपस में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा भी चलती रहे तो इसे परस्पर विरोधाभासी नहीं कहा जा सकता।
3 comments:
भाई सत्या जी बहुत सुन्दर अभिव्यक्त किया है आपने . जो पकडा गया वोही चोर होता है बिना पकडाये चोरी तो कई लोग कर रहे है
स्टीग आपरेशन के सम्बन्ध मे न्यायालय का अभिमत अभी हमने पढा नही है पर एसे आपरेशन से ही सच सामने आता है भारतीय न्यायालयीन प्रकृया मे एसे साक्ष्य ज्यादा टिक तो नही पाते पर जनता के सामने नाक कट्ना भी सजा से कम नही होता . साधुवाद . भाई लिखते रहो . . .
चलो भाइ साधुवाद आपको आपकी टीम को,कि जो सबको पता है आपने उसे सबूत के साथ दिखा डाला
बात सही है और इस बात को और जोर से कहने की जरूरत है। सब जानते हैं कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है। लेकिन इस पर पर्दा डाले रखने की कोशिश होती है। आखिर क्यों। इतिहास गवाह है कि जिन चीजों पर ज्यादा पर्दा डाला गया है वहां सड़ांध सबसे ज्यादा होती है। चाहे वो किसी भी तरह का मसला क्यों नहीं ... कोई भी संगठन या संस्था क्यों ना हो। उसी तरह अब न्यायपालिका भी सड़ने लगी है। यहां भी वही बुराइयां फैल गई हैं जो समाज के दूसरे हिस्सों में हैं। अगर ऐसा है तो फिर उम्मीद की किरण कहां नजर आएगी। इसलिए इस संस्था को बचाने के लिए जरूरत है कि न्यायपालिका से जुड़े तमाम लोग विचार करें। सोचें कि किस तरह से कम होते विश्वास को जगाया जा सकता है। किस तरह से लोकतंत्र की अवधारणा को मजबूत की जा सकती है। इसके लिए जरूरी है कि न्यायपालिका से जुड़े लोग खुद कबूल करें कि उनके यहां भी भ्रष्टाचार फैल गया है। इंसाफ के मामले में भी अब सौदेबाजी होती है। जब तक वो कबूल नहीं करेंगे और इस गंदगी को साफ करने के दिशा में पहल नहीं उठाएंगे .. तब तक न्याय की बात अधूरी है। क्योंकि जब न्यायिक व्यवस्था में ही अन्याय होगा .. वहां घूसखोर और दलाल किस्म के लोग बैठे रहेंगे .. न्याय की बात बेमानी है। इक्का दुक्का मामलों को छोड़ दें तो ज्यादातर मामलों में होता भी यही है। वर्षों कचहरी के चक्कर काटने के बाद भी हासिल कुछ नहीं होता। ऐसे ढेरों उदाहरण आस-पास मिल जाते हैं। इसलिए सबसे पहले जरूरत है कि न्यायपालिका और माननीय न्यायधीश लोग कबूल करें कि उनके यहां भ्रष्टाचार है और उसे रोकने की जरूरत है।
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