Sunday, May 6, 2007

चुसूल यात्रा-4: तांगसे पहुंचे

जम्मू और कश्मीर के लंबे दौरों में जिन अनुभवों से गुज़रा हूं, उनमें से कुछ यहां आपके सामने रखने की कोशिश कर रहा हूं। शुरुआत मैंने चुसूल की अपनी यात्रा से की है जिसकी तीन कड़ी आप देख चुके हैं। पेश है चौथी कड़ी... (तीसरी और उससे पहले की कड़ियों के लिए कृपया नीचे जाएं)

आखिरकार तीन दिन की कारगिल-द्रास यात्रा के वापस लेह लौटे। लेह के 246 ट्रांजिट कैंप के आॅफिसर्स मेस में थोडी देर आराम के बाद हम चुसूल की तरफ निकले। मौसम इस बार भी पैक था। लेकिन हम चलते गए क्योंकि रास्ता खुला मिला। लेकिन कारू से हम जैसे जैसे आगे जा रहे सड़क पर पर बर्फ की परत मोटी होती जा रही थी। जीप के पहिए बुरी तरह फिसलने लगे थे। क़रीब 15-20 किलोमीटर जाने के बाद हमें एक ट्रांजिट कैंप के पास रुकना पड़ा। देविन्दर ने बोला नाॅन स्किड चेन बांधे आगे जाना ख़तरनाक है। नाॅन स्किड चेन दरअसल एक ऐसी जंज़ीर है जिसे लपेट कर पहिए पर बांधा जाता है। बर्फ के लिहाज़ से तय किया जाता है कि ये गाड़ी के चारों पहिए पर बांधा या फिर एक यो दो पर बांधने से काम चल जाएगा। देविन्दर को मुश्किल से दो ही पहियों के लिए नाॅन स्किड चेन मिला था क्योंकि सर्दियों में नाॅन स्किड चेन की काफी मांग होती है इसलिए इसकी कमी हो जाती है। देविन्दर ने कहा कि पिछले दोनों पहिए पर चेन बांधने ज़्यादा ठीक हो। यही आम प्रैक्टिस है। ये किसी भी तरह की गाड़ी को बर्फ पर फिसलने से रोकता है।

हम जीप के बाहर आए। देविन्दर ने चेन निकाला। संजय को हमने ट्रांजिट कैंप के वेट कैंटीन की तरफ भेजा क्योंकि वहां से धुंआ निकल रहा था। उम्मीद थी कि शायद वहां चाय पीने को मिल जाए। वो उधर गया हम इधर चेन बांधने मे जुटे। ये अपने आप में बहुत मुश्किल काम है। पहले चेन को सड़क पर जीप के आगे इस तरह रखना होता है जिससे पहिया उस पर बराबर आ जाए। फिर जीप को इस हिसाब आगे बढ़ाना होता है कि पिछला दोनों पहिया चेन के बीचोंबीच आ जाए। देविन्दर कुशलहस्त था। थोड़ी मुश्किल के बाद ही वो जीप के पिछले दोनों पहियों को जंज़ीर पर बराबर लाने में सफल रहा। इसके बाद लोहे के तारों से जंज़ीर को पहिए पर लपेट कर बांधना होता है। हवा तेज़ चल रही थी। तेज़ हवा के झोंके साथ बर्फ के महीन टुकड़े शीशे के की तरह आकर खुले चेहरे औऱ हाथ पर लग रहे थे। चेन बांधते बांधते देविन्दर के हाथ से खून आने लगा था। लेकिन हम जंज़ीर बांधने में क़ामयाब रहे। संजय दूर से ये सब देख रहा था। जैसे ही काम पूरा हुआ उसने आवाज़ लगाई इधर आईए। हम जीप को किनारे मे खड़ी कर ख़ास तौर पर बर्फीले इलाक़े के लिए बनाए गए हट की तरफ गए। वहां दो कुछ फौज़ी चाय पीते नज़र आए। हमारी निगाह ने उनसे चाय मांगी। उन्होने कहा पीने का पानी नहीं है। लेकिन ऐसा शायद महानगरों में होता है कि दरवाज़े पर आए किसी आदमी को बिना पानी के लौटा दिया जाए। जिंदादिल सिपाहिए ने अपने एक साथी को थोड़ा उपर पहाड़ी की तरफ भेजा। साफ बर्फ लाने को। उस बर्फ को उन्होने गर्म किया। फिर उससे चाय बना कर हमारी तरफ स्टील के ग्लास में बढ़ाया। ग्लास जब तक होठों तक जाता चाय ठंडी हो चली थी। लेकिन फिर भी पीकर संतुष्टि मिली। शुक्रिया अदा कि और बिना समय गंवाए हम आगे की तरफ बढ़े।

नाॅन स्किड चेन बांधने के बाद होता ये है कि अगर आपको बर्फ भरी सड़क मिलती जाए तो गाड़ी तेज़ चला सकते हैं। लेकिन जैसे ही बिना बर्फ की सड़क मिलती है...गाड़ी टायर पर बंधी चेन की वजह से हिचकोले खाने लगती है। लिहाज़ा गाड़ी की गति बहुत धीमी करनी पड़ती है। 5-10 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलते हुए हम चांगला टाॅप पर पहुंचे। यहां थोड़ी देर रुक कर बर्फ भरी वादी को निहारने के बाद हम आगे बढ़े। चांगला टाॅप से आगे तांगसे की तरफ जैसे जैसे हम नीचे उतरते गए। बर्फ कम होती गई। लिहाज़ा जीप की रफ्तार और कम होती गई।

आख़िरकार शाम को हम तांगसे पहुंचे। तांगसे का सबसे बड़ा परिचय यही है कि ये दुनिया में सबसे अधिक उंचाई पर स्थित ब्रिगेड हेडक्वार्टर है। 114 ब्रिगेड ने यहां हमारा स्वागत किया। रात हमें यहीं बिताना था। सो शाम का इस्तेमाल हमने ब्रिगेडियर विक्रम का इंटरव्यू कर किया। उन्होने चुसूल यहां चीन के साथ यहां 1962 में हुई लड़ाई का ब्योरा दिया। सड़क बनाए जाने के विवाद पर उन्होने कुछ भी बोलने से मना किया। इसके बाद हमने म्यूजियम देखा जहां 1962 की लड़ाई से जुड़ी यादें संभाल कर रखी गई हैं। यहीं मेजर शैतान सिंह और ध्यानचंद थापा की तस्वीरें भी लगी हैं जो चीन के साथ लड़ाई में बहादुरी के साथ शहीद हो गए।

यहां सर्दी हार गला देने वाली थी। फौज़ी पोशाक भी कम लग रहा था। सफ़र के थके थे। रात को खाना खाने के बाद तुरंत सोना चाह रहे थे। चुसूल अगले दिन सुबह सुबह निकलना था। उससे पहले थोड़ा आराम ज़रुरी था। आॅफिसर्स मेस में हमें सोने को स्लिपिंग बैग दिया गया। मैं और संजय दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा। दरअसल स्लिपिंग बैग में हमें सोने की आदत नहीं थी इसलिए अजीब लग रहा था। पर वहां कोई चारा नहीं था। बिस्तर पर आप चाहे जितने कंबल-रजाई डाल लो, ठंड से बचाव नहीं हो सकता। वो भी तब जब आपके कमरे में चौबीसों घंटे किरासन तेल, लकड़ी या कोयला से जलने वाला बुखारी जलता रहता है। मौक़े की ज़रुरत देख कर हमने जैसे जैसे अपने को स्लिपिंग बैग में क़ैद किया और सो गए। थकान के मारे नींद कब आ गई पता ही नहीं चला।

अगले दिन सुबह क़रीब 6 बजे उठ कर तैयार होने लगे। टाॅयलेट में गए तो पानी नहीं था। जिसकी ज़िम्मेदारी पानी देने की थी वो भागा भागा आया। बोला साब आप पहले निपट लो। फिर आवाज़ देना हम पानी बढ़ा देगें। मैंने हैरानी जताई ऐसा कैसे हो सकता है। वो बोला साब ऐसे ही करना पड़ेगा। पानी अगर में पहले दे दूंगा और अगर आपने देर लगाई तो वो जम जाएगा। आपको फिर आवाज़ लगानी पड़ेगी। लिहाज़ा आप पहले फारिग हो लो। मैंने कहा ऐसा नहीं हो सकता। तुम पहले पानी दे दो। उसने खौलते पानी का बाल्टी टाॅयलेट में रख दिया। ये कहते हुए कि देर मत करना। मैंने भी नित्यक्रिया जल्द निपटायी और बाहर आ गया।

अब हम तांगसे से आगे चुसूल के रास्ते पर थे। जैसे जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे बर्फ के निशान मिटते जा रहे थे। खुला आसमान, खुली घूप। लेकिन ठंड में कोई राहत नहीं थी। कुछ किलोमीटर पक्की सड़क पर चलने के बाद हम परमा पहुंचे। परमा के आगे बिल्कुल कच्ची सड़क थी। भौगोलिक बनावट भी बदल चुकी थी। बर्फ से भरी पहाड़ों की जगह टीलेनुमा पहाड़ियों ने ले ली थी। लेकिन जो बात मुझे ज़्यादा हैरान कर रही थी वो ये कि इस इलाक़े में पक्की सड़क नाम की कोई चीज़ नहीं थी। फिर मुझे थपलियाल साब की बात याद आई कि ये ऐसा इलाका है कि जिस तरफ चल पड़ोगे रास्ता निकल आएगा। हम पहले से गुज़री गाड़ियों के टायरों के निशान का पीछा करने लगे। रास्ता एक दो जगह पूछना भी पड़ा। आख़िरकार हम तांगसे से क़रीब 80 किलोमीटर दूर चुसूल पहुंचे।

पांचवी कड़ी में जारी...

3 comments:

Priyankar said...

पांचवीं कड़ी कहां है भाई! ऐसे थोड़े ही चलता है . जल्दी लिखिए . जल्दी पोस्ट करिए .

उमाशंकर सिंह said...

इंतज़ार कराने के लिए माफी चाहता हूं। जल्द ही लिखने की कोशिश करता हूं

-उमाशंकर सिंह

धीरज चौरसिया said...

उमा जी ये क्या बात हुई पाचवी कडी कहा गई ये गलत बात है..........