अपनी एक कविता आप सब के सामने रख रहा हूं। पुरानी डायरी से मिली है।
ये कैसी वेदना है?
घुटन हो रही है, चीख लोगों तक नहीं पहुंच सकती
समस्त हवन सामग्री
अभी धू धू कर जली नहीं है तिल तिल कर सुलग रही है
शायद चिता की चन्द उन लकड़ियों के समान
जो कल तक एक सम्पूर्ण तना था
नियति ने उसे विच्छिन्न कर दिया है
पर अभी भी वह अपने शिराओं से प्राप्त खनिज से गीला है
झोंक दिया गया है उसे उस जगत में
हवा और धूप झेल चुके उन अभ्यासवृद्ध सूखी लकड़ियों के साथ
जो जलना जानते हैं और जल रहे हैं
भले ही उनकी अग्नि किसी निष्प्राण शरीर को ही जला रही है
उनकी पूछ है, वे काम के हैं
पर मत भूलो
जीवन जेठ की दुपहरिया में इनकी नीरवता भी समाप्त हो जाएगी
ये भी प्रज्वलित हो उठेगें
हो सकता है कि लापरवाही में इनकी लपटें
घर के छप्पड़ तक पहुंच जाएं
तब मत कहना कि
भोजन पकाने वाला वही आग
सर्वनाशी भी है!
शुक्रिया
उमाशंकर सिंह
valleyoftruth.blogspot.com
Monday, May 14, 2007
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3 comments:
आपकी कविता में उपदेश की भाषा और बिंब होते हैं। कविता वो बड़ी होती है, जो कथ्य का हिस्सा कवि भी होता है। समाज पर चिंता करते हुए हमेशा ये समझना चाहिए कि हमारा समाज हमने ही बनाया है। वैसे कविता से बेहतर है आप रिपोर्ताज और व्यंग्य में कलम चलाएं।
पहले का आधा भाग अधिक अच्छा लगा ।
घुघूती बासूती
Mujhe 9th class mein physics mein 45 number aaye the aur 10th mein 73. Matlab ye ki maine mehnat ki aur jisme main kamjor tha usme jayada no. laye. aap bhi kavita achhi likh sakte hain mehnat ki jaroorat hai usse se hatne ki nahi. Waise kavita ke bhaav bade bhav poorn hain. Main avinaash ki baato se sahmat nahi hu.
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