इस एक ख़बरिया चैनल की कोशिशों का इतना तो नतीज़ा रहा कि रात को जिस परी के अपहरण की ख़बर आयी, सुबह वो अपने घर से फोन पर बात करती मिली। पवन के साथ की हर बात मानी पर शादी की बात पर शर्त लादती रही। वो शब्द न तो उसके अपने लग रहे थे और ना ही वे शर्तें। ये शर्तें पहले रहीं हो या नहीं पर इतना तय है कि घर और दबंगों के दबाव में प्यार कहीं दबता नज़र आया। मरता नज़र आया। कल की चिंता थी कि परी कहां गयी पर वो चिंता सुबह मिट गई। परी और पवन की शादी एक बार हो चुकी। नई शर्तों के मुताबिक़ फिर से हो ना हो अब ये दो परिवारों के बीच का आंतरिक मामला है। शायद इसलिए परिपक्वता दिखाते हुए चैनल इस ख़बर से अपने आप को धीरे धीरे दूर ले गया। पर मानना पड़ेगा कि अगर टिक कर बात कही जाए तो कईं चीज़ें बदली जा सकतीं हैं और कईयों की धार मोड़ी जा सकती है। बात नहीं उछाली जाती तो शायद दो रुह ख़त्म हो जातीं औऱ किसी को चीख तक सुनाई नहीं पड़ती।
अपने मक़सद में क़ामयाब होने के लिए इस ख़बर के कलमकारों को बधाई!
आज इतना ही।
Tuesday, May 29, 2007
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3 comments:
खबरिया चैनल कही कही तो अपना काम करते नज़र आते है जिससे उनकॆ सामाजिक सरोकार पर उंगली तो नही ही उठाई जा सकती..हा ये ज़्ररुर कह सकते हैं.. ये जो अपनी अपनी डफली का खेल खेलते है वो बहुत अटपटा लगता है इससे कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे अपने समूचेपन के साथ सामने नही आ पाते या फ़ुस्स होकर रह जाते हैं.उमाशंकर भाई आपकी सोच मुझे अच्छी लगती है. मेरी शुभकामनाएं स्वीकार करें.
मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हमारे पारिवारिक ढांचे और रिश्तों का लोकतंत्रीकरण भी कर रहा है। मीडिया की आलोचना करते वक्त ज्यादातर लोग इस हकीकत को नजरअंदाज कर देते हैं। वैसे, मेरा तो यही मानना है कि टीवी न्यूज इस समय भारतीय समाज के लिए नकारात्मक से ज्यादा सकारात्मक भूमिका निभा रहा है। बाकी सुधीजन जैसा भी सोचें और उवाचें...
विमल भाई, लिखे मे सोच झलकती है और इस बार आपको सोच अच्छी लगी इसके लिए शुक्रिया...पर कभी अच्छी ना लगे तो भी इतल्ला कीजिएगा शायद मुझे सुधारने में सहूलियत हो।
संवाद होता रहेगा।
शुक्रिया
उमाशंकर सिंह
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