Wednesday, May 2, 2007

चुसूल यात्रा-2 : राह की चुनौती

दूसरी कड़ी... (पहली कड़ी के लिए नीचे जाएं)

एयरपोर्ट पर हमें लेने कोई गाड़ी नहीं पहुंची थी। सेना की गाड़ी को आना चाहिए था लेकिन शायद सूचना में ग़लतफ़हमी के चलते ऐसा नहीं हुआ। एयरपोर्ट बिल्डिंग के बाहर आते ही टैक्सी वालों ने हमें घेर लिया। उन्होने पूछा कहां जाना है। उस समय हमें सेना के ३डिव मुख्यालय तक जाना था जो कारू में था। लेह एयरपोर्ट से क़रीब 40 किलोमीटर दूर। लेकिन टैक्सी वालों से मैने कह दिया सीधा चुसूल जाना है। वे आपस में बुदबुदाने लगे। मैने पूछा कौन चलेगा। कितना पैसा लेगा। सभी चुप थे। आख़िरकार एक बुजुर्ग टैक्सी वाले ने कहा साब मैं चलुंगा। पर जाने जाने का 25 हज़ार रुपये लुंगा। पूरा पैसा एडवांस देना होगा। मैंने हैरानी जतायी इतना ज़्यादा। जाने का 25 हज़ार...और आने का? साब अगर ठीक ठीक पहुंच गए तो वापसी फ्री में। और एडवांस इसलिए कि पैसा घर छोड़ कर जाउंगा। इससे आगे वो कुछ नहीं बोला। हम समझ गए कि दिसंबर का महीना और भारी बर्फबारी के चलते रास्ता बेहद मुश्किल है। ऐसे में सेना से मदद लिए बग़ैर आगे बढ़ना मुनासिब नहीं था। चुसूल में जहां तक हमें जाना था वहां तक वैसे भी कोई सेना की सहमति और मदद के बिना नहीं पहुंच सकता। ठंड में तो बिल्कुल भी नहीं।
हमने कारु तक टैक्सी किराए पर ली। ३डिव मुख्यालय पहुंच कर हमने मेजर जेनरल शेरु थपलियाल से मुलाक़ात की। मक़सद चुसूल जाना था। दिल्ली के सेना मुख्यालय की सहमति हमें मिली हुई थी। सूचना उनके पास भी थी। लेकिन हमें बताया गया कि मौसम ख़राब होने की वजह से कई जगह सड़क बंद हो चुकी थी। बर्फ में दब चुकी थी। हमने ज़ोर डालना ठीक नहीं समझा। मौसम पर किसी का ज़ोर नहीं चलता। ये बात आपको तब और समझ में आती है जब आप एक ऐसे इलाक़े में होते हो जहां आपकी हरेक गतिविधि मौसम ही तय करता हो। तय किया कि अगले दिन सुबह निकलेंगे।
दोपहर का इस्तेमाल हमने मेजर जेनरल का इंटरव्यू कर किया। जिस जानकारी के आधार पर हम स्टोरी करने यहां तक पहुंचे थे, उन्होंने उसकी तस्दीक की। लेकिन थोड़े अलग तरीक़े से। कहा कि एलएसी के इस तरफ भारतीय इलाक़े में चीन ने कोई पक्की सड़क तो नहीं बनायी है लेकिन एक अलाईनमेंट ( या यों कहें कि रास्ता) ऐसा ज़रुर बना लिया है जिसका इस्तेमाल वो गाड़ी से बोर्डर पेट्रोलिंग के लिए करने लगे हैं। सेना के एक आला अधिकारी या किसी भी अधिकारी ने पहली बार ये बात कैमरे के सामने स्वीकारी। ये बड़ी बात थी। क्यों और कैसे... और भारतीय सेना का इस मसले पर क्या कदम उठाया इसका ज़िक्र मैं आगे करुंगा।

तीसरी कड़ी में जारी...

2 comments:

अनिल रघुराज said...

विजुअल्स होते तो नेशनल ज्यॉग्रैफिक के लिए शानदार रिपोर्ट बन जाती है। इस एडवेंचरस रिपोर्टिंग के अनुभव को बांट रहे हैं, अच्छा है। ये भी पता चला कि सरकारी नजर का सच क्या होता है, जैसा कि आपने कहा, 'चीन ने कोई पक्की सड़क तो नहीं बनायी है लेकिन एक अलाइनमेंट (या यों कहें कि रास्ता) ऐसा ज़रूर बना लिया है जिसका इस्तेमाल वो गाड़ी से बॉर्डर पैट्रोलिंग के लिए करने लगे हैं।'

उमाशंकर सिंह said...
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