Wednesday, September 26, 2007

जो दिखता है वो बिकता है सरजी

अनिल जी ने जानकारी दी है कि अपमानित हॉकी टीम भूख हड़ताल करेगी। भूखों के इस देश में हड़तालें पहले भी कम नहीं हुईं हैं। अब हॅाकी वाले भी कर लें। क्या फ़र्क पड़ता है। ब्लॅाग पर जानकारी आ गई यही बहुत। कहीं ख़बर ही नहीं आएगी कि ऐसी भी कोई भूख हड़ताल हो रही है। देखा नहीं आपने! ख़बरों में क्या छाया है। खुली बस पर भज्जी का भांगड़ा... युवराज का ठुमका...श्रीसंत की फ्लाईंग किस...छी छी राम राम मत करिए! इतनी बढ़िया ख़बर कि कैसे कोई हट जाए। जश्न से सीधा भूख पर उतर जाए। ' विजुअल जर्क' भी कोई चीज़ है या नहीं।

खैर छोड़िए टांग-खिंचाई। ये बताईये कि ये हॅाकी वाले हैं कौन? कौन जानता है इन्हें? अगर ये शाहरुख़ के चक दे इंडिया वाली लड़कियां हैं तो ले आईए हमारे यहां। अपना पेट काट के भी चाय पिलाएंगे। पर अगर आप वाकई में हॅाकी वाली किसी टीम की बात कर रहे हैं तो संभल जाईए। स्टिक हमारे यहां भी है! चलते देर ना लगेगी। कर्नाटक पुलिस के पास भी होगी। नीचे से मुड़ी ना सही...सीधी ही। पर पड़ती है तो लगती ज़ोर की है। इसलिए चाहे भूख हड़ताल करें पर पुलिस की लाठी-ताल से बचके।

फिर भी उनको भूख-हड़ताल करना ही है तो थोड़ा ठहर के करें। एक एशिया कप जीत लिया तो दिमाग चढ़ गया क्या। इधर क्रिकेट टीम को देखिए। कैसे टुर्नामेंट जीतते जीतते हारे। आख़िरकार एक हारते हारते जीत गए तो आप गए अपनी डफली लेकर विघ्न डालने। एक मूवी देखकर इतना चौड़े ना हों। पहले क्रिकेटरों की तरह दिखना सीखें.... चाहे जीत में हों या हार में... फिर बिकना भी शुरु हो जाएगें। जाईए आराम कीजिए। बढ़िया खेलने की कोशिश कीजिए। फिर जो मिलता है उसमें खुश रहना सीखिए। पड़ोसी की हरी उछाल वाली पिच देख कर अपनी बॅाल चमकाना छोड़िए!

Thursday, September 20, 2007

छक्कों के 'युवराज' और 'छक्कों के बादशाह' में फ़र्क है!

जिस समय टीवी पर पूरा क्रिकेट जगत युवराज के छक्कों की बरसात देख रहा था, उसी बीच कुछ दूसरे तरह के 'छक्कों' की ख़बर भी कई चैनलों पर आ रही थी। एक का खेल नशा दे गया तो दूसरे के 'खेल' ने घिन पैदा की है।

पांच गेंद में 5 छक्के खाए तो छ: गेंद में 6 छक्के जड़ दिए! वाकई में युवराज सिंह 20-20 क्रिकेट में छक्कों के युवराज साबित हुए हैं। अपने बूते इंडिया को मैच जिता दिया। इंग्लैंड से लगान वसूल लिया।

दूसरी ख़बर दिल्ली पुलिस से जुड़ी है। दिल्ली पुलिस में भर्ती होने आए जवानों ने दिल्ली विश्वविद्यालय के आईपी कॅालेज की लड़कियों को जम कर छेड़ा। वे तो बहाली के लिए आए थे। वर्दी में नहीं थे। पर थे छक्के ही। और जो वर्दी में तैनात थे... वे छक्कों से कम नहीं मालूम पड़ते। रिपोर्टों के मुताबिक़ उन्होंने लड़कियों की शिकायत सुनने से इंकार कर दिया। टका सा जवाब दिया.. क्या हो रहा है हमें क्या पता। नतीज़तन लड़कियों को अपनी आवाज़ बुलंद करनी पड़ी। दिल्ली पुलिस हेडक्वार्टर को घेरना पड़ा। जूं फिर भी कान तक शायद ही रेंगी है। बताया जा रहा है कि तीन पुलिस वाले सस्पेंड किए गए हैं।

शायद किसी लड़की के साथ और बुरा हो जाता तब भी ये वर्दीधारी सस्पेंड ही होते। ड्यूटी पर कोताही मामले में कभी भी किसी को इससे कड़ी सज़ा की कोई फौरी व्यवस्था नहीं है। पब्लिक प्रेशर में बस सस्पेंड कर सकते हैं, सो कर दिया। जिसने भी अपनी कुर्सी पर दबाव महसूस कर सस्पेंसन को 'गो अहेड' कहा होगा... लगता है कि उसने युवराज से भी बड़ा छक्का जड़ मैदान मारने की कोशिश की है। वाकई में वो छक्कों का बादशाह ही होगा। जिनके नीचे काम करने वाले दिल्ली पुलिस के जवान अपनी जवानी ग़लत वजहों से तो दिखा जाते हैं और ज़िम्मेदारी के वक्त चूड़ियां पहने नज़र आते हैं। पर अगर 'छक्कों के इस बादशाह' को दिल्ली की जनता का, ख़ास तौर पर असुरक्षित महसूस करने वाली महिलाओं का दिल जीतना है तो पीड़ित लड़कियों की पूरी बात सुननी होगी... इंसाफ करना होगा।

जल्दी ही दिखाउंगा कि किस तरह दिल्ली पुलिस अपने विज्ञापन में आम शहरी की मर्दानगी को ललकारती है... पर जब खुद की बारी आती है तो चूड़ी पहने नज़र आती है।

Wednesday, September 19, 2007

एक रुम-पार्टनर-दोस्त की तलाश में

कॅालेज के दिनों में राजौरी गार्डेन में रहा करते थे। पहले टू-रुम सेट में चार लोग थे। मतलब एक कमरे में दो-दो रहते थे। दो यूपीएससी एसपिरेंट थे, सो वो दोनों एक में। मैं और सौरभ एक कमरे में। एक गोरखा-भाई भी हमारे साथ था...हमारे खाने-कपड़े के लिए। हम से एकाध साल छोटा। रोटी बनाते हुए ब्रेक डांस करता था या ब्रेक डांस करते हुए रोटी बनाता था अंत तक पता नहीं चला। लेकिन दोनों सीनियर के निकल जाने के बाद मैं औऱ सौरभ एक सिंगल रुम सेट में आ गए। गोरखा-भाई को मां की याद आयी तो घर चला गया। जनपथ से हमने उसे जींस और टीशर्ट्स लेकर दिए। नेपाल से था और इसलिए बहुत ही फैशन परस्त। अच्छा लगता था ज़िंदगी के प्रति उसका जोश देखकर। उसके बारे में कभी अलग से बताउंगा।

सौरभ भी इतिहास आनर्स की कर रहा था। रामजस और फिर माईग्रेशन लेकर हिंदू कॅालेज से। मैंने अपनी पढ़ाई दयाल सिंह कॅालेज से ही जैसे तैसे पूरी की। कॅालेज की पढ़ाई के बाद मैंने जो लाईन चुनी वो आपके सामने है। सौरभ ने भी अपने करियर के लिए काफी मेहनत की। लेकिन समय के फेर में हम दूर हो गए। बीच में वो पटना लौट गया। फिर दिल्ली आया। मिला। फिर ग़ुम गया। उसकी याद आती रहती है। कॅामन जानकारों से पूछता रहता हूं। पर इधर बड़े लंबे समय से उसकी कोई खोज़-ख़बर नहीं है। अभी भी उसके पुराने दिए एक मोबाईल पर फोन किया। घंटी बजती रही कोई रिस्पांस नहीं। मन और जिज्ञासु हो गया उसके बारे में जानने को। ब्लाग के ज़रिए उस तक पहुंचने की सोचना नादानी होगी। व्यक्तिगत संबंधों के किसी और अंतरजाल (ये शब्द ब्लॅाग पर ही सीखा है...उम्मीद करता हूं कि सही इस्तेमाल कर रहा हूं) पर मैं हूं नहीं। बस उस रुम-पार्टनर-दोस्त की याद आपसे शेयर करना चाहता हूं। इसलिए लिख रहा हूं। उसके एक जन्मदिन पर मैं चार पंक्तियां लिख कर दी थी। शायद उसने संभाल के रखा हो। मैंने लिखा था...


मेरा अतीत,
एक उपवन।
कहीं उजड़ा हुआ सा
तो कुछ शेष है जीवन।

असंख्य कांटों के बीच
जैसे पुष्पित एक सुमन।

स्मृति का वो सुमन भी
कागज़ का होता,
उसमें यदि सौरभ
तुम समाया ना होता!

सौरभ पटना से है औऱ तिल-तिकड़म से हमेशा दूर ही रहा है। सपाट और बिना लाग-लपेट वाली ज़िंदगी जीने वाला। उससे भी मैंने बहुत कुछ सीखा। कभी भूले से हिंदी ब्लागिंग की दुनिया में झांक ली तो उसे पता चलेगा कि यहां भी उसका ज़िक्र है। इसी बहाने शायद फोन ही कर ले। मेरा मोबाईल नंबर वही है। दस साल पुराना।

Tuesday, September 18, 2007

कोहराम के बीच... एक मुसलमान का राम

राम और राम सेतु को लेकर कुछ कथित हिंदूवादी संगठनों ने हायतौबा मचा रखी है। कोर्ट में दाख़िल कर फिर वापस ले लिया गया हलफ़नामा अपनी जगह... और उसमें जाने-अनजाने की गई ग़लती अपनी जगह, लेकिन ऐसा नहीं कि भगवान राम सिर्फ हिंदुओं के राम हैं। वो बाक़ी धर्मों के लोगों के लिए भी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। इसलिए तहसीन मुनव्वर ने चंद पंक्तियों में अपनी बात रखी है।

"हम दिल से करते हुए एहतराम कहते हैं,
उन्हें हम हिन्द का अब भी ईमाम कहते हैं,
दिलों के बीच बना दे जो प्यार का सेतु...
उस आला ज़ात को भगवान राम कहते हैं।"


दरअसल मुनव्वर ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम पर इक़बाल की कही बात को आगे बढ़ाने की कोशिश की है। इक़बाल की पंक्तियां हैं...

"है राम के वजूद पर हिन्दोस्तां को नाज़
अहले नज़र समझते हैं उनको ईमाम-ए-हिन्द"

एक तरफ मुसलमानों की ऐसी भावनाएं और दूसरी तरफ करुणानिधि जैसे हिंदुओं का बयान कि राम ने कहां से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की ताकि ऐसा पुल बना सकें... । भावना का महत्व है या अपना फ़ायदा... आप ही तय कीजिए।

राम राम।

Monday, September 17, 2007

मेरे अपराध-क्षेत्र अब बड़े हो रहे हैं...

कभी भी किताबी पढ़ाई में मन नहीं लगा। पर बचपन से ही कुछ ना कुछ लिखने का दुस्साहस करता रहा हूं। ख़ूब नहीं तो ए-फोर साईज़ के कई कागद कारे किए हैं। चाहे कोई पढ़े ना पढ़े। किसी को समझ में आए ना आए। सब ख़ुद की संतुष्टि के लिए। लेकिन मेरी पहली चंद पंक्तियां जो प्रकाशन योग्य मानी गईं, वो रहीं...

मेरे अपराध क्षेत्र अब बड़े हो रहे हैं
अगले चुनाव में हम भी खड़े हो रहे हैं!

नब्बे में लिखी गई इन पंक्तियों को 1991 में कॅालेज मैगज़ीन में जगह मिली। दिल्ली विश्वविद्यालय के दयाल सिंह कालेज में तब मैं प्रथम वर्ष में था। तब मंडल कमीशन लागू होने के बाद की आग फैल कर कुछ शांत हो चुकी थी। 'न्यू स्टार' नामक इस मैगज़ीन में मेरी कुछ औऱ पंक्तियां जिनको जगह मिली, वो हैं...

जो करते हैं साम्प्रदायिक एकता की बात
वही लगाते हैं जातीयता की आग!

ये दौर मंडल कमीशन के बाद अयोध्या में राममंदिर बनवाने के भाजपाईयों के जुनून और आम चुनाव का भी था। सो मैंने लिखा...

मंडल है गर्दिश में, मंदिर अभी रौशन है
मुद्दा तो ढूंढ़ना है, चुनावों का जो मौसम है!

द्वितीय वर्ष में मुझे कॅालेज मैगजीन का संपादक बना दिया गया। फिर मैंने क्या लिखा... अगली बार। अगर आपको जानने में दिलचस्पी हो तो!

Thursday, September 13, 2007

रिश्ते हैं रिश्तों का क्या...!

रिश्तों को लेकर हम सभी सचेत रहते हैं। गंभीर औऱ अगंभीर चेतना के साथ और कभी इन दोनों के बीच के मानसिक द्वंद्व में फंस कर भी। दूसरों के हालात पर कई बार हम अपना बड़प्पन वाला चोगा ओढ़ लेते हैं... और जब यही हमारी निजी ज़िंदगी में होता नज़र आता है तो उससे निकलने के रास्ते ढूंढ़ते हैं। ज़रुरत बारीक विश्लेषण की है। खैर... गपशप वाली शैली को आप भी जानते होंगे। क्या ज़्यादा तकलीफ़देह है... ये...या ये! पर शैली ने अपनी प्रतिक्रिया कुछ इस तरह भेजी है।

मुझे ये कहना है कि आज रिलेशन के मायने बदल गए/रहे हैं। शायद ये बात आपके और मेरे लिए अजीब लगे लेकिन दूसरों के लिए नहीं। इसलिए ये ग़लत है कि हम रिलेशन पर क्या सही है और क्या ग़लत है उसका फैसला करें। क्योंकि ये हर व्यक्ति का निजी मामला या सोच है। अगर कोई 'गे' है तो आप उसे कैसे गलत/सही ठहरा सकते है। जबकि 'गे' होना उसका निजी कारण है। आपने जो पिक्चर लगाई है उसी का एक्जामपल देके मै अपना प्वाइंट रखना चाहती हूं।

रिश्तों के बारे में मैं कोई ज्ञानी नहीं। लेकिन इतना तो जानती हूं कि रिश्ता शब्द ही बेहद निजी है।
इन तस्वीरों को देखकर आपको ज़रूर कुछ अलग लगा तभी आपने इन्हें यहां जगह दी। मुझे भी ये दोनों तस्वीरें चौंकाती हैं। क्योंकि ये दोनों ही भाव मेरे लिए सही नहीं। ये मेरे निजी ख्याल हैं ।
लेकिन क्या सही है और क्या गलत इसका फैसला हम और आप नहीं कर सकते क्योंकि ये रिश्तों की बात है।
रिश्ते यानी दृश्टिकोण, जो हर इंसान के लिए अलग अलग है। ये तस्वीरे आपको या मुझे तकलीफ दे सकती हैं। लेकिन क्या वाकयी ये तकलीफदेह हैं? मुझे आपत्ति तब लगी जब मैने तकलीफदेह शब्द पढ़ा। इससे लगता है कि आप लोगों से पूछ रहे हैं कि आपको कौन सा रिश्ता ज्यादा तकलीफदेह लगता है। पहला या दूसरा। क्योंकि ज़रूरी नहीं ये तस्वीरें सभी लोगों को तकलीफ देने वाली ही लगे।

मेरी प्रति-प्रतिक्रिया

शैली जी, यहां रिश्तों की निजता पर कोई शक या सवाल नहीं है। मुद्दा है कि निजी रिश्तों का एक आयाम दूसरे पहलू में तकलीफदेह साबित हो सकता है। ऐसे रिश्तों से जिनको तकलीफ़ पहुंचती या पहुंच सकती है वो भी निजी रिश्ते या रिश्तेदार ही होते हैं। प्वाईंट टू। जब निजी रिश्ता निजी ना रह कर सार्वजनिक तौर पर सामने आ जाए तो कई और सवाल उठ खड़े होते हैं। हम मोरल पुलिसिंग नहीं कर सकते। लेकिन आवाज़ें तो उठती हैं... 'धर्मयुद्ध छेड़ शुचिता' कायम करने के लिए नही तो कम से कम ऐसे रिश्तों को समझने की कोशिश में ही सही।

मेरे ख्याल से रिश्तों का सही और ग़लत होना कथित सिद्धांतों औरआदर्शों से नहीं... बल्कि इससे तय होनी चाहिए कि इसका व्यवहारिकता पर क्या असर पड़ता है। किसी को तकलीफ होती है या नहीं। जिनको तकलीफ नहीं होती वो चाहे बेशक जितने और जैसे भी रिश्ते जीएं किसी को एतराज़ नहीं होगा। लेकिन जिनको तकलीफ होती है वो तो भेद करेंगे ही। विचारेंगे ही। हम तो यहां बस नज़रियों का आदान प्रदान कर रहे हैं। वैसे आपने ठीक कहा कि संस्कार और पलाव-बढ़ाव के माहौल के हिसाब से रिश्तों के आयाम तय होते हैं। रिश्तों के बीच में हम टांग अड़ाने वाले कौन।

शुक्रिया
उमाशंकर सिंह

क्या ज़्यादा तकलीफ़देह है... ये...या ये!

इंसानी रिश्तों की संभावनाएं अनंत हैं और उनमें छिपी आशंकाएं भी। ये कई तरह से और कई रुपों में हमारे आसपास मौजूद रहती हैं। कई बार जानकारी में तो कई बार अनजाने में ही सही। कई रिश्ते ऐसे होते हैं जो उसे जीने वालों को तो खुशी देते हैं लेकिन उनसे जुड़े दूसरों को तकलीफ। बनते, बिगड़ते, टूटते और फिर बनते रिश्तों के बीच ज़िंदगी जारी रहती है।

इन दो तस्वीरों को मेरे एक दोस्त ने ईमेल के ज़रिए भेजा है। इस प्रतीकात्मक तस्वीरों को आप भी देखिए और बताईये कि इसमें ज़्यादा तकलीफ़देह कौन-सी होगी! या ये भी... कि दोनों ही तस्वीरें स्वाभाविक हैं...तकलीफदेह नहीं!

Wednesday, September 12, 2007

एक तस्वीर... और सब कुछ साफ साफ!

जितना 'इनडीसीप्लीन वे' में सोचोगे... उतनी ही क्रिएटीविटी आएगी। विज्ञापन के विशेषज्ञ अक्सर ऐसा सिद्धांत बताते हैं। उनका मतलब होता है लीक से हट कर... एक रास्ते पर सरपट भागते हुए नहीं... दिमाग के बंद कोनों का इस्तेमाल कर... लेकिन बेतरतीबी से नहीं...तरतीब से...एक संदेश के साथ! बेहतरीन माने जाने वाले इन विज्ञापनों को शायद इसी तरह बनाया गया है!


































यहां किसी ब्रांड का प्रचार नहीं किया गया है। बल्कि इस विधा को देखने-समझने की कोशिश की गई है। उम्मीद है आपको भी अच्छा लगा होगा। शुक्रिया

हल्की होती राजनीतिक रिपोर्टिंग...

अमर सिंह को कई लोग हल्के व्यक्तित्व का मालिक मानते हैं। मैं भी उसी इंप्रेशन में रहता रहा हूं। उनकी कई बातें ऐसा करने को पत्रकारों को बाध्य करती हैं। लेकिन कुछ दिनों पहले उनसे पार्लियामेंट में कुछ पत्रकारों ने उनसे एक सवाल किया। संदर्भ था न्यूक्लियर डील को लेकर लेफ्ट फ्रंट का बयान कि यूपीए सरकार के साथ उनका हनीमून खत्म हो गया है और किसी भी वक्त तलाक हो सकता है। पूछा गया कि 'ऐसी बातें कही जा रहीं हैं...क्या मतलब निकाला जाए।' अमर सिंह ने बड़ी संजीदगी से जवाब दिया... 'ये गंभीर राजनीतिक मामला है। इसे लेकर शादी...तलाक...हनीमून जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।' फिर उन्होने अपना जवाब दिया। बेशक अपनी राजनीतिक हित-साधना के हिसाब से ही दिया हो।

ऐसा नहीं है इस वाकये के बाद अमर सिंह मेरे लिए महापुरुष हो गए हों। पर कई बार आप अपने छोटे से भी सीखते हो। पर हज़ारों ऐसे होते हैं जो पूर्वजों से भी नहीं सीखते। रातों रात ना सही... अनुभवों से सीखना तो सीख ही लेनी चाहिए।

इतनी बड़ी भूमिका मैंने इसलिए बांधी क्योंकि 11 सितंबर 2007 को भी कुछ ऐसा ही हुआ। जवाब देने वालों की तरफ से नहीं। सवाल पूछने वालों की तरफ से। शेरों वाली कुर्सी पर बैठने वाले बाला साहेब ठाकरे के बेटे उद्धव ठाकरे कीचड़ में कमल तलाशते दिल्ली में थे। बीजेपी नेताओं को मनाने। क्यों? क्योंकि प्रतिभा पाटिल यानि एक मराठी के राष्ट्रपति बनाने को लेकर शिवसेना ने बीजेपी-एनडीए की उल्टी लाईन ले ली थी। पाटिल यूपीए की उम्मीदवार थीं... फिर भी शिवसेना ने उनको सपोर्ट किया। वो जीत गईं...बिना शिवसैनिकों के भी जीत जातीं। लेकिन प्रतिभा पाटिल की जीत ने लगता है शिवसैनिकों का गर्व से सिर उतना उंचा नहीं किया। इसलिए वो मराठा-प्रतिष्ठा का प्रश्न भुला कर फिर हिन्दी-भाषी-प्रमुख-हिन्दुओं की पार्टी बीजेपी की गोद में आ बैठे हैं। बिना लाज शरम के दिल्ली तक आए। जिस आडवाणी को अनसुना कर गए थे उनकी चौखट तक गए। सब कुछ गुडी-गुडी नोट पर हुआ।

फिर प्रेस कांफ्रेंस की बारी। पूरी दिल्ली की मीडिया। एक से एक धुरंधर पत्रकार। टीवी और प्रिंट के भी। सवाल जवाब का दौर। कई अच्छे सवाल भी। पर जिस एक तरह के सवाल ने डाॅमिनेट किया वो रहा... 'आपका और बीजेपी का तो तलाक होने वाला था, फिर अचानक आप लोग हनीमून पर कैसे जा रहे हैं?' जवाब गोपीनाथ मुंडे ने दिया... 'बच्चों ने मना किया इस उम्र में तलाक लेने को...शादी को बीस साल हो गए हैं सो साथ ही रहना है...।' ऐसे ही कई और सवाल पूछे गए। उद्धव औऱ गोपीनाथ हंस कर टालते-जवाब देते गए। कोई गहराई हो सवाल में तभी तो सोच कर बोलें। रटते रहे कि गिल-शिकवे दूर हो गए हैं। अब शिवसेना बीजेपी के साथ रहेगी। एनडीए के नेता को अपना नेता मानेगी।

बयान आधारित इस बात स्वीकारने में कोई दिक्कत नहीं है। पर दिक्कत ये है कि राजनीतिक अवसरवाद का नमूना पेश करने वाली शिवसेना से ऐसा सवाल पूछने वाले कम ही थे...जिससे उद्धव या मुंडे को जवाब देने में परेशानी हो। पेशानी पर बल पड़े। हल्के सवालों को वे और भी हल्के में टालते गए। सामने बैठी पत्रकारों की टोली को लाफ्टर चैलेंज का आडियेंस मान हंसाते गए। जिनके भी सवाल पर वे हंसे और हंसाए वे अपने को धन्य समझते रहे। राजनीतिक रिपोर्टिंग तलाक और हनीमून जैसे शब्दों के सहारे ख़बर ढूंढती रही। कुछ सवाल और भी रहे। सीटों का बंटवारा क्या होगा। सीएम कौन बनेगा। अरे जैसा मुफीद लगेगा कर लेंगे। पूछना क्या। आख़िर साथ साथ रहना है।

पर कुछेक पत्रकारों ने जता दिया कि वे इन नेताओं के साथ मसखराबाज़ी करने नहीं आए हैं। एक ने पूछा... 'क्या आपलोग इस डर से साथ आए हैं क्योंकि कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने श्रीकृष्ण कमीशन की रिपोर्ट पर अमल का संकेत दिया है?' जवाब गोलमोल रहा। एक औऱ सवाल... 'राष्ट्रपति चुनाव के समय आपने मराठी प्रतिष्ठा का हवाला देते हुए बीजेपी से किनारा कर लिया...अब चुनावों की बारी आयी तो आपको लग रहा है बीजेपी के बिना आपकी कुर्सी नहीं बन सकती...तो आप फिर साथ आ गए हैं...क्या भविष्य में मराठी प्रतिष्ठा के किसी और सवाल पर आप बीजेपी से दुबारा तो नहीं कट लेंगे।' जवाब... 'जो हो गया हो गया... हम साथ साथ... 20 साल से...और अब और मज़बूती से रहेंगे।'

कहते हैं कि ख़बर मौन से निकाली जाती है। जो बोल कर बतायी जाए और जो सुनी-सुनाई जाए वो ज़्यादातर प्रपोगैंडा होती हैं। लेकिन मौजूदा माहौल में मौन को तोड़ ख़बर निकालने वाले सवाल कम ही सुनाई पड़ते हैं। पूछे भी जाते हैं तो जवाब मौन में दबा दिए जाते हैं। ज़्यादातर तो प्रपोगैंडा के आजू-बाजू ही घूमते दिखते हैं। वही संदेश जाता है जो राजनीतिक पार्टियां कहना और फैलाना चाहती हैं। न्यूज़ रूम और एडिटर की भूमिका अगर बहुत इंवोल्वमेंट वाला ना हो तो ज़्यादातर राजनीतिक ख़बरों में चकल्लस ही नज़र आता है। दरअसल हर तरफ हल्कापन आ रहा है। हम सभी शिकार हो रहे हैं। इसलिए कई बार अमर सिंह, अपने नाटकीय अंदाज़ में भी, कथनी में सही नज़र आने लगे हैं। सवाल पूछने वालों से ज़्यादा भारी नज़र आने लगे हैं।

(मैंने अपने इस अनुभव में उन राजनीतिक संवाददाताओं-संपादकों पर टिप्पणी नहीं की है जिन्होंने समय समय पर शासन-सत्ता को चुनौती दी है... और राजनीतिक अवसरवादिता को आईना दिखाया है और आज भी दिखा रहे हैं। शुक्रिया)

Tuesday, September 11, 2007

विज्ञापन की दुनिया के कुछ बेहतरीन नमूने!

विज्ञापन की दुनिया काफी दिलचस्प है। कम शब्दों में बहुत कुछ कहना होता या फिर सिर्फ एक तस्वीर के ज़रिए। पेश है विज्ञापन की दुनिया के कुछ ऐसे नमूने जो मेल के ज़रिए एक-दूसरे तक पहुंच रहे हैं।











हो सकता है कि आपमें से कईयों की निगाह इन पर पड़ी हो। लेकिन बाकी भी देखें कि किस तरह के विज्ञापनों को बेहतरीन माना जाता है। कुछ और ऐसे ही विज्ञापन अगली बार...


Wednesday, September 5, 2007

कृष्ण ने किया तो रासलीला, बाक़ी का कैरेक्टर ढ़ीला!

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने समय में बेहतरीन काम किए। मथुरा को कंस से मुक्ति दिलाई। कई और राक्षसों का खात्मा किया। प्रजा को संरक्षण दिया। हाई स्टैंडर सेट किए। इसलिए श्रीकृष्ण को भगवान मानने वालों को मेरा सलाम है। आख़िर उन्होने ने ही कर्ण की रथ के फंसे पहिए के वक्त मौक़ा निकलवाया। अर्जुन से तीर चलवाया। अभिमन्यु को चक्रव्यूह में घेर कर मारने की रणनीति समझायी। अश्वत्थामा के मरने की अफवाह फैला द्रोणाचार्य को निस्तेज किया। शिखंडी को आगे कर पितामह को ढ़ेर करवाया। पांडवों को जिताया। कौरवों को हराया। अगर वो अपना पाॅलिटिकली करेक्ट रोल न निभाते तो हो सकता है कि युद्ध की शक्ल कुछ और होती और महाभारत के बाद का भारत कुछ और। ये अलग बात है कि हज़ारों साल पहले पांडवों की जीत के बाद भी आज कौरवों का ही राज है। नुक्कड़ों...मोहल्लों में द्रौपदी का चीरहरण आज भी बदस्तूर जारी है। पर आज पांडव कहीं नज़र नहीं आते। या अगर वो हैं तो उनको आज के हालात नज़र नहीं आते।

हज़ारों साल पहले पांडव पांच थे। आबादी तेज़ी से बढ़ी है...ख़ासतौर पर हिंदुस्तान में। पांडवों बाद की उनकी पुश्तों ने एहतियात बरती हो तो भी चलिए... कम से कम उनके पुश्तों की संख्या 50 हज़ार तो होती...पांच करोड़ ना सही। पर आज तो 50 पांडव भी नज़र नहीं आते। फिर कृष्ण जी ने कैसे लोगों को शिक्षा दी? किन लोगों को घर्म के लिए लड़ना सिखाया? किनको जिताया? कहां गए धर्म की हानि के समय उसकी रक्षा के लिए पैदा होने का वादा करने वाले धर्मराज? ऐसा नहीं है कि मैं श्रीकृष्ण के अस्तित्व और उनके किए पर सवाल उठा रहा हूं। ऐसा करुं तो उनको मानने वाले मुझे पूतना के पास भेज देंगे। मैं तो सिर्फ आज की तारीख में उनको देखने की कोशिश कर रहा हूं। भगवान को याद कर रहा हूं। अपने आसपास उनको ढूंढ रहा हूं।

निराश होने की ज़रुरत नहीं। अधर्म पर धर्म की विजय के कर्ताधर्ता के रुप में ना सही, पर व्यक्तित्व के कई पहलुओं में वो आज भी नज़र आते हैं। जैसे कि चुरा कर मलाई खाने वाले आज भी हैं। औऱ वे अकेले नहीं हैं। करोड़ों की तादाद में हैं। प्राईवेट फार्म से लेकर सरकारी दफ्तर तक में हैं। टेबल के नीचे से मलाई खाते हैं। जब मिल जाता है तो अपने बाल-गोपाल में बांटना नहीं भूलते। ऊपर से नीचे तक 'कट' देते हैं। क्या मजाल कि आप उन पर सवाल उठा दें। अशोक मल्होत्रा जैसे जो पकड़े जाने के बाद कहते हैं...मैं नहीं माखन खायो... । कृष्ण दफ्तरों में भी होते हैं। किसको कैसे लंगड़ी लगानी है...किसको कैसे आगे बढ़ाना है...किसको प्रमोशन देना है किसको डिमोट करना है इस रोल को निभाने वाले कृष्ण। अपने अपने धर्मयुद्ध में लिप्त।

आज की चीरहरित होती स्त्रियों की साड़ी में बेशक श्रीकृष्ण ना समाएं। ना ही उसकी साड़ी को हज़ारों मीटर लंबी कर दें। पर गोपियों के साथ रासलीला की उनकी तरह मंशा पालने वालों की तादाद आज लाखों में है। करोड़ों में हैं। आज के कृष्ण नदी किनारे नहीं... स्वीमिंग पूल के आसपास होने की कोशिश करते हैं। या कॅालेज गेट और गर्ल्स स्कूल के आसपास की चाय की दुकानों पर होते हैं। या फिर बड़े बड़े मॅाल में खरीददारी में जुटी लड़कियों के पास मंडराते। बसों में महिलाओं की मज़बूरी की भीड़ के बीच भी उन्हें रासलीला करने की कोशिश करते हैं। ओछी हरकत करना नहीं भूलते। जिनको वे गोपियां मान लेते हैं वे अगर सचेत ना रहें तो उनके कपड़े उतार वो वृक्ष की डाल पर नहीं... अपने घर ही ले जाएं।

ग़रीब दोस्त सुदामा की झेंप मिटाने वाला कृष्ण भी आज कहीं नज़र नहीं आता। सुदामा कांख में चावल दबाए खड़ा रह जाता हो... कृष्ण को आॅफर नहीं कर पाता हो... पर उसकी सुधि लेने वाला कोई नहीं। वैसे आज के कई सुदामा स्मार्ट हो गए हैं। कृष्ण बेशक मक्खन के दीवाने रहें हों... पर उन्होंने खुद कभी भैंस को दूहा हो ऐसी जानकारी नहीं मिलती। पर आज तो कृष्ण वही बनते हैं तो देश को दूह सकें। व्यवस्था को निचोड़ सकें।

आज पुराने कृष्ण की पूजा होती है। होनी चाहिए। मलाई खाने और गोपियों के साथ उनकी क्रीड़ा रासलीला है। लेकिन बाकी वही करते हैं तो कहते हैं कि कैरेक्टर ढीला है। ये क्या बात हुई! ज़माना बदल गया है। और बदले हुए ज़माने के ये भी तो पूजनीय हैं।

Tuesday, September 4, 2007

जब सलमान की बहन से नज़रें मिलीं

खचाखच भरी अदालत। सलमान का मुकद्दमा। जोधपुर हाईकोर्ट में जस्टिस पवार की अदालत में तिल रखने की जगह नहीं। सलमान के स्थानीय दोस्त शिशुपाल और उसके कुछ लोगों के साथ किसी तरह अंदर पहुंची अलवीरा। हर किसी के लिए कौतुहल की पात्र। हर कोई उसे देख रहा था। अलग अलग तरह की नज़रें। सम्मान से देखने वाली भी और असम्मानजनक भी।

न चाहते हुए भी मेरी नज़रें उसकी तरफ उठ जाती थीं। मैं बार बार उसके भाव पढ़ने की कोशिश करता था। इसका ख्‍याल रखते हुए कि मेरी नज़रों से उसे कष्ट ना हो। वो हर सुनवाई पर अदालत आ रही थी। पहली बेंच ने जब मामला सुनने से इंकार किया तब भी और जब दूसरी बेंच में मामला अगले दिन के लिए लिस्ट हुआ तब भी। जेल में हरेक रात सलमान पर भारी पड़ रहा था। उससे ज़्यादा परिवारवालों के लिए भारी वक्त था। ये अलवीरा के चेहरे से साफ झलकता था। जैसे ही सलमान के वकीलों और अदालत के बीच बात शुरु होती थी, अलवीरा खड़ी हो जाती थी। हरेक बात सुनने की कोशिश करती थी। जब कोर्ट को दलील पसंद आती थी तो अलवीरा के चेहरे पर उम्मीद झलक आती थी। जब सुनवाई आगे के लिए टलती थी तो फिर वो भारी कदमों से अदालत के बाहर निकल आती थी। बाहर की भीड़ से बचाने के लिए सलमान का बॅाडी गार्ड शेरा इंतज़ार कर रहा होता था।

सलमान ने जो कुछ किया यहां उस पर नहीं विचारा जा रहा। जेल में बंद स्टार भाई के लिए बहन की भावनाओं को पढ़ने की कोशिश भर है ये। अदालत में मामला कई दिनों तक खिंचा। कई मौक़ों पर वो बिल्कुल मेरी कुर्सी की बगल वाली कुर्सी पर होती थी। तब उसके भावों को पढ़ना मुश्किल होता था। इसलिए मैं दूर दूर ही रहने की कोशिश करता था। उसकी हरेक गतिविधि को देखने की कोशिश करता था। कई बार उसके चेहरे पर बिल्कुल कोई भाव ही नहीं होता था। लेकिन आंखे नम सी होती थी। बीच बीच में अपने वकीलों से बात कर लिया करती थी। या मुंबई से साथ आए लोगों से। कभी उत्तेजना में नहीं देखा मैंने उसे। बिल्कुल शांत रहती थी। लेकिन मन में ज़रुर कई लहरें चलती होगीं। ख़ासतौर पर इसलिए भी कि इसी मामले के चार और अभियुक्तों को निचली अदालत ने बरी कर दिया। पांचवे को सेशन कोर्ट ने छोड़ दिया। जबकि उन सबके के खिलाफ भी वही परिस्थिजन्य साक्ष्य थे जिनके आधार पर सलमान को सज़ा सुनाई गई है। अभियोजन पक्ष ने उन पांचो को सज़ा दिलाने के लिए ऊपरी अदालत का दरवाज़ा भी नहीं खटखटाया। परिवारवालों को ये लगना स्वाभाविक है कि सिर्फ सलमान को जानबूझ कर निशाना बनाया गया है।

अलवीरा को पढ़ पाने की इसी कोशिश में एक बार मेरी नज़र उसकी नज़र से मिल गई। हुआ ये था कि अदालत ने मामले की सुनवाई अगले दिन के लिए तय कर दी थी। परिवार वाले जल्द से जल्द ज़मानत चाहते थे। तो जैसे ही मामला एक दिन के लिए औऱ आगे बढ़ा, मैंने अलवीरा की प्रतिक्रिया नोट करनी चाही। उसकी तरफ देखा तो इत्तेफाकन वो उसकी निगाह मुझसे टकरा गई। मैंने कभी उससे बात करने की कोशिश नहीं की थी। ना तो कैमरे पर और ना ही अदालत में। वो कुछ बोल पाने की हालत में नज़र नहीं आती थी। इसलिए। लेकिन जब नज़रें टकरा गईं तो मेरे मुंह से निकला सॅारी...। ये सॅारी मामला एक दिन और बढ़ जाने के लिए था। उसने मेरे सॅारी को समझा। पलकें झुका उसे एक्सेप्ट करने सा भाव दिया। फिर कुर्सी पर बैठ गई। लेकिन उसने नज़रें नहीं हटाई। उसकी नज़र में एक सवाल था। सवाल सलमान मामले मे हो रहे मीडिया ट्रायल का। उसने बोला कुछ नहीं। फिर मुझे ही संदेश देना पड़ा। 'वी आर विद यू।'

ये एक अदालत से दोषी करार सलमान का साथ देने जैसा संदेश नहीं था। बल्कि एक ऐसी बहन के लिए था जो अपने भाई की रिहाई के लिए अदालत के चक्कर काट रही थी। चाहती तो वो होटल के एसी कमरे में बैठी रह सकती थी। मुकद्दमा तो वकीलों को लड़ना था। पर उसकी नज़रें हमेशा जता रही थी कि वो सलमान के बाहर आने का रास्ता देख रही है। और वो उसे रिहा करा कर ही लौटी।

Monday, September 3, 2007

रवीश जी, मुझे भी जाना है स्वर्ग की सीढ़ी तक

(इन बेतुकी पंक्तियों को पढ़ने के पहले कस्बा पर रवीश का लिखा पत्रकारिता का स्वर्ग काल पढ़ें। तभी आप इसे पूरे कंटेक्स्ट में इसे समझ पाएंगे। शुक्रिया)

आदरणीय रवीश जी,

मुझे जलन हो रही है। आखिर मैं क्यों नहीं पहुंचा स्वर्ग की सीढ़ी तक। मुझे क्यों नहीं एसाईन किया जाता इस तरह के काम के लिए। क्यों बार बार नरक दिखाने के लिए ही कहा जाता है। वो भी वो नरक जो इसी धरती पर है...अपने इसी महान भारत देश में। अभी अभी बाॅडी बिल्डर सलमान खान जोधपुर जेल में नरक की ज़िंदगी बिता रहे थे। बिना एसी कूलर के। न बढ़िया खाना और ना छरहरी-भरीपूरी लड़कियों के साथ नाचना गाना... एक चिंकारा को गोली क्या मारी, रह रह कर ज़िंदगी नरक हो जाती है। उनकी नरक की ज़िंदगी को कवर करने मैं वहां था। सलमान में और मेरे में अंतर सिर्फ इतना था कि वो जेल में क़ैद थे और मैं जोधपुर शहर में। वो सात दिन रहे और मैं दस दिन। वो मुंबई लौटे तो हज़ारों समर्थकों की हौसलाअफ़ज़ाई ने उनके मिजाज़ को स्वर्ग सी अनुभूति दी होगी। पर मुझे स्वर्ग की सीढियां नसीब नहीं।

बात सिर्फ इसी नरक की नहीं है। पिछले दिनों बुंदेलखंड में था। पानी के बिना यहां लोगों की ज़िंदगी नरक है। कुंए और गढ्ढों में जमा कचरा पानी पीते हैं। पानी के लिए महिलाएं कई-कई किलोमीटर तक चलती हैं। हमें भी चलना पड़ा। उनकी नरक की ज़िंदगी जानने और दिखाना के लिए हमें नरक के दरवाज़े तक जाना पड़ा। पर क्या मुझ में इतनी क़ाबिलियत नहीं कि कोई मुझे भी स्वर्ग के मुहाने तक जाने दिया जाए।

यहां कब तक गोहाना के दलितों, विदर्भ के किसानों, झारखंड के आदिवासियों, सरकारी अस्पताल में दाखिल मरीज़ो ब्ला... ब्ला... ब्ला... की नरक सी ज़िंदगी दिखाते रहेंगे। क्या फायदा उसका। वो तो नरक में ही हैं और रहेंगे... सोच के बेतुकेपन से हमारी भी ज़िंदगी रह-रह कर नरक हो जाती है। एक नारकीय रिपोर्ट खत्म नहीं होती कि दूसरी आ जाती है। आखिर क्या हमने ठेका ले रखा है नारकीय चीज़ें दिखाने का। क्या सिर्फ यही पत्रकारिता है। नहीं। पत्रकारिता का स्वर्ग काल कुछ और है।

जिसके पास जो होता है उसका उसमें इंटरेस्ट कम हो जाता है। जिनकी नारकीय ज़िंदगी हम दिखाते रहते हैं, उनका खुद का उसे देखने में दिलचस्पी नहीं। वे ऊब चुके हैं उससे। वो ये देखना चाहते हैं कि किस तरह संजय दत्त भगवान की भक्ति कर जेल से बाहर आए और नरक में दुबारा नहीं जाने के लिए मंदिर मंदिर घूम रहे हैं। शायद वो सोचते हैं कि न्यूज़ चैनल पर ही सही, आस्था का प्रोग्राम देख कर उनकी ज़िंदगी भी नरक से निकल आएगी। स्वर्ग की सीढ़ी तो उनके लिए रामबाण है। पाॅजिटिव स्टोरी है। दिखाना चाहिए। उस सीढ़ी तक आने-जाने का खर्चा भी बताना चाहिए। कांवर लेकर तपती सड़क पर चलने वाले कई भक्त हैं जो कंबल ओढ़ कर वहां पहुंच जाएगें। हमारी स्टोरीज़ उनको नरक से नहीं निकाल पाती लेकिन इस एक कोशिश से वो स्वर्ग के सोपान तक पहुंच जाएंगे।

आपने बताया कि द़ौपदी ने डर के आपको फोन कर आॅफ द रिकार्ड बात की। मतलब कोई बाईट नहीं मिली। तो क्या हुआ। पैकेज तब भी बना सकते हैं। द़ौपदी से मिली जानकारी के आधार पर स्वर्ग का रीक्रिएशन कर तो दिखा ही सकते हैं। स्टिंग ठीक नहीं होगा, पर एक फीचर तो बना ही सकते हैं। एंकर आप ही करेंगे। वैसे भी अब तक आपने ज़िंदगी की इतनी तरह के नारकीय आस्पेक्ट को कवर कर लोगों तक पहुंचाया है कि आप भी थोड़ा चेंज चाहते होगें। मुझे जब तक मौक़ा मिले तब तक हो सकता है कि बहुत देर हो जाए। पर आपके पास अपना बजट है।

आप चाहें तो अपनी स्पेशल रिपोर्ट भी बना सकते हैं। स्वर्ग में मध्यम वर्ग है या नहीं। है तो किस हाल में है। लोन लेकर कार खरीद रहा है कि नहीं। यहां का सतपाल कहीं वहां जा कर सत्या पाॅल तो नहीं बन गया। वहां 'हैव और हैव नॅाट' के बीच का फर्क कितना है। क्या दलितों की सोसाईटी स्वर्ग में है या नहीं। बड़ा सवाल तो ये कि क्या किसी दलित को स्वर्ग में जगह मिली भी या नहीं। या धरती पर नरक काट काट कर गए को वहां भी नरक में धकेल दिया गया है। वहां रिजर्वेशन का क्या हाल है। मामला सुप्रीम कोर्ट में है या सरकार के पास। सवाल बहुतेरे हैं। पर ठहरिए... इन सवालों पर रिपोर्ट करेंगे तो टाईप्ड लगेंगे। कुछ अलग तरह से करना होगा। स्वर्ग के उस प्रभामंडल को बनाए रखना होगा जिसकी वजह हर कोई स्वर्ग जाना चाहता है। ये जानते हुए की भी शरीर छोड़ने के बाद ही जा सकता है...लालच कम नहीं होती। 'धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है...यहीं है...यहीं है' को तो हम सबने कच्ची पक्की स्टोरीज़ कर कर के झुठला ही दिया है। तो, अब तो जो 'स्वर्ग है वो वहीं है...वहीं है...वहीं है...' और इसे बना रहने देने में ही भलाई है। स्वर्ग जाने की लालच रखने वालों की भी और उसकी सीढ़ियां ढुंढ़वाने वालों की भी।

एक बार सीढ़ी का पता चल गया है तो इंवेस्टिगेशन का आधा काम तो हो ही गया है ना। दूसरे की ख़बर टीप कर दिखाने में कोई हर्ज थोड़े ही है। शूट ना करना चाहें तो ट्रांसफर ले लेंगे। वैसे भी स्वर्ग की स्टोरी में रिसर्च की ज़रुरत नज़र नहीं आती। कुछ भी कह देंगे...दिखा देंगे, यहां लोग हाथों हाथ लेंगे। अभी तक के कामों की वजह से शायद ही किसी ने आपका आॅटोग्राफ मांगा हो। पर एक बार अगर आपने अपने अंदाज़ में स्वर्ग पर स्पेशल रिपोर्ट कर दी तो फिर आप रब और ईश के दूत के तौर पर देखे जाने लगेंगे। आपके नाम रवीश की नई व्याख्या होगी। ट्रैकिंग का शौक भी पूरा हो जाएगा। इनविजीबल इंडिया दिखाने के लिए हो सकता है कि पत्रकारिता का एक और पुरस्कार ही मिल जाए।

पर एक बात मत भूलिएगा। मुझे भी जाना है स्वर्ग की सीढ़ी तक!

(ये रचना रवीश के व्यंग्य का विस्तार मात्र है। समानता संयोग से हो सकती है। इसके लिए लेखक ज़िम्मेदार नहीं है। किसी भी विवाद का हल स्वर्ग की अदालत में होगा।)