Monday, May 28, 2007

परी को बचाओ! सब मिल कर बचाओ!

एक हिन्दी चैनल पर एक ख़बर चल रही है। बुलंदशहर की एक मुसलमान लड़की ने एक हिंदू लड़के के साथ दिल्ली आकर शादी कर ली। लड़की का नाम परी है और लड़के का पवन। लड़की के घर के लोग नाराज़ हैं। चैनल पर आ रही ख़बर के मुताबिक 30-35 हथियारबंद बदमाशों ने पति के सामने पत्नी का अपहरण कर लिया है। अपहरण के पीछे बुलंदशहर के बीएसपी विधायक का भी नाम लिया जा रहा है। थाने के अंदर चैनल के पत्रकार पर हमला हुआ है। तस्वीरों से धक्कामुक्की साफ ज़ाहिर हो रही है।

मुझे लग रहा है कि ये समय है मीडिया को एक जुटता दिखाने का। प्रेस पर हमले और कई तरह के तनाजे को लेकर मीडिया पहले से ही एकजुटता दिखाती रही है। लेकिन जब मैं एकजुटता दिखाने की बात कर रहा हूं तो मेरा मतलब है कि दो अलग अलग धर्मों के जोड़े की शादी और उसके बाद उनके साथ परिवार और समाज के व्यवहार से जुड़ी इस ख़बर को एक साथ मिल कर दिखाने की एकजुटता। बदमाशों की करतूत और पुलिसिया निकम्मेपन के ख़िलाफ एक कैंपेन छेड़ देने की एकजुटता। और सिर्फ इस एक ख़बर के लिए नहीं बल्कि ऐसी तमाम ख़बरों को दिखाने की एकजुटता जो आयीं किसी चैनल के पास बेशक अपने ज़रिए से हो लेकिन उस ख़बर का दूरगामी असर हो। सबको मिल कर रार छेड़ देनी चाहिए। कईयों को... ख़ासतौर पर वो जो ख़बर को सिर्फ और सिर्फ व्यापार के नज़रिए से देखते हैं... उनको मेरी बात अटपटी लग सकती है। कई तर्क दे सकते हैं कि जो किसी एक चैनल का 'एक्सक्लुसिव' है भला दूसरा-तीसरा चैनल उस में हाथ क्यों डालेगा। एक चैनल जिसे अपनी ख़बर बताए जा रहा हो तो दूसरा जूठन खाने क्यों आएगा...?

लेकिन मुझे लगता है कि ऐसा करना वक्त की ज़रुरत है। अभी बेशक हम ना समझें। लेकिन किसी एक दिन समझना पड़ेगा। इसी मामले की बात करें तो आरोप गंभीर हैं। धर्म से ऊपर उठ कर एक जोड़े ने प्यार किया। जान को ख़तरा लगा तो शिकायत की। लेकिन बुलंदशहर की स्थानीय पुलिस औऱ प्रशासन ने कोई मदद नहीं मिली। जोड़ा भाग कर दिल्ली आया और शादी कर ली। पति के सामने पत्नी को अग़वा लिया गया है। स्थानीय दिल्ली पुलिस से कोई मदद नहीं। चैनल अपने बूते पूरी कोशिश कर रहा है एक नवविवाहित जोड़े की मदद की। लड़का शिकायत लेकर पुलिस चौकी में खड़ा है। आला अफ़सर घरों में सो रहे हैं या फिर टेर नहीं रहे। किसी तरह का भरोसा तक नहीं। मदद के लिए जाया जाए तो कहां। लड़की को ले जाने वाले उसकी जान ले लेने की धमकी तक दे गए हैं। यानि कम से कम एक जान तो खतरे में है। उसका पति परेशान है। उसे परेशान देख कई संवेदनशील दर्शक परेशान हो गए होगें। लेकिन उसी समय न्यूज़ चैनल बदलो तो किसी एक चैनल पर लाफ्टर शो आ रहा है। कहीं सुनील पाल हंसा रहा है तो कहीं महिला ज्योतिषी दर्शकों का आज का भविष्य बता रहीं हैं। अरे आधी रात को घऱों में सो रहे लोगों के भविष्य को छोड़ो। जैसा होगा वे कल जी लेगें। आज एक साथ तन कर उनकी बात करो जिनकी जान ख़तरे में है। जिनकी मदद को पुलिस भी तैयार नज़र नहीं आ रही।

जानता हूं की सभी चैनल अपने तयशुदा रनडाउन और एफपीसी के हिसाब से चलते हैं। मौजूदा व्यवस्था में इस क़ायदे पर सवाल उठाने वाले किसी व्यक्ति को बतुका जा सकता है। लेकिन मुझे लगता है कि कई बार तयशुदा रनडाऊन और चैनलों की आपसी प्रतिस्पर्धा से बाहर झांक कर... ऊपर उठ कर देखना समाज के हित में होगा। पीड़ितों के हित में होगा। मानवता के हित में होगा। भगवान ना करे ऐसा हो, लेकिन कल को अगर उस लड़की को कुछ हो गया तो क्या सभी चैनल वाले ये कह कर उस ख़बर को हाथ नहीं लगाएगें कि ये फलां चैनल की ख़बर थी? क्या तब भी हाथ नहीं लगाएगें जब ये बात और खुल कर आ चुकी होगी की उस लड़की के अपहरण के पीछे किसी एमएलए का हाथ है? तब तो सभी को इस ख़बर में हाथ लगाना पड़ेगा। डेढ़-दो मिनट का एक पैकेज बनाना पड़ेगा। तो तब तो अब क्यों नहीं। अंतर ये होगा कि तब शायद कुछ नहीं बचेगा बचाने को। अभी एकजुट हो कर आवाज़ उठाएं तो शायद प्रशासन-सियासतदानों की नींद खुले। कार्रवाई करने को वो मजबूर हो जाएं।

कई बड़े हादसे-दंगे-घोटाले की ख़बर जब सभी मिल कर साथ चलाते हैं तो उसका असर भी जल्द देखने को मिलता है। तेज़ी से कार्रवाई होती है। महकमे हरकत में आते हैं। लेकिन सिर्फ किसी 'इवेंट' को साथ मिल कर दिखाने से व्यवस्था को उनका एकाउंटिबल नहीं बनाया जा सकता... ये तो हम में से कई महसूस करते होगें... बल्कि अचानक छन कर आयी इस तरह की ख़बरों में भी एकजुटता दिखानी होगी। ख़बर को आपस में बांटो मत कि मेरी ख़बर ये तेरी ख़बर...बल्कि मिल कर दिखाओ। 'हैं कुर्सी पर जलवागर जो लोग, न जाने क्यों उन्हें ऊंचा सुनाई देता है'... इसलिए सबको साथ खड़े होकर आवाज़ लगानी चाहिए... ये समय की मांग है। जब तक इस बात को समझा ना जाए तब तक तो हम इस नवविवाहित जोड़े के लिए दुआ ही कर सकते हैं।

2 comments:

Sanjeet Tripathi said...

भाई उमाशंकर आपका कहना वाज़िबहै लेकिन जब तक किसी खबर को हमारे टी वी चैनल/पत्रकार सिर्फ़ एक खबर के नज़रिए से देखेंगेकिसी भावनात्मक नज़रिए से नहीं तब तक तो यह हो पाना संभव नहीं है जैसा कि आप कह रहे हैं।

वैसे किसी भी खबरिया चैनल में भावनाएं दिखती कहां है आजकल, उन्हें जो दिखता है सिर्फ़ खबर ही होता है। खबर के अलावा कुछ नहीं।

कल्पना कीजिए, किसी महिला के पति का किसी कारणवश मृत्यु हो जाए और खबरिया चैनल के रिपोर्टर उस महिला से कैमरे पर पूछ रहें हों कि अब आप कैसा महसूस कर रहीं है।

तो ऐसे में क्या उम्मीद की जाए

dhurvirodhi said...

अपने अपने धन्धे के आगे सब मजबूर हैं.
कोई नहीं सुनेगा भैय्या.