Saturday, May 26, 2007

रंग बदला, तेवर नहीं

(कई बार जब मैं अपना पिछला लिखा देखता हूं तो मन करता है धीरे धीरे वो सब भी आपके सामने रखूं। आज की मेरी पोस्ट ऐसी ही है। दरअसल 1995 में दिल्ली की सड़कों पर रेड लाईन बसों का आतंक रहा। फिर दिल्ली सरकार ने एक अजीबोगरीब फैसले के तहत इन बसों की रंगत लाल से ब्लू करने का फैसला किया। इस पर जो कुछ दिमाग में आया कागज़ पर उकेर दिया। 27 जनवरी 1996 को नवभारत टाईम्स में प्रकाशित अपना व्यंग्य आपके सामने रख रहा हूं।)


दो बसों में होड़ लगी थी। एक दूसरी को पछाड़ने की कोशिश में संकरी सड़क पर भी दोनों तीव्र गति से भागी जा रहीं थीं। एक बस ने दूसरी से कहा, 'अब तो तू पीछे हो चल। तू अब रेड लाईन नहीं रही। तेरा रंग अब लाल नहीं रहा। तेरे बदन का रंग अब धीरे धीरे नीला पड़ गया है।'

दूसरी ने पलट कर कहा, 'त्वचा का रंग नीला पड़ गया तो क्या हुआ। मन थोड़े ही नीला पड़ा है। बल्कि ये तो मेरे अंदर के ज़हर को ही दर्शाता है। और मेरे ड्राईवर की धमनियों में बहने वाला रक्त तो अभी भी रेड ही है। उसकी तो त्वचा का रंग भी नहीं बदला। मानसिकता बदलने की बात तो दूर। वह तो अभी भी मेरी स्टीयरिंग और एक्सिलेटर के साथ वैसी ही अठखेलियां करता है, जैसी पहले किया करता था। ब्रेक लगाने के मामले में वो अब भी वैसा ही बेपरवाह है। कभी तो झटके से लगा देता है...कभी लगाता ही नहीं। सचमुच बड़ा झेड़ता है मुझे। कंडक्टर सवारियों को पूर्व की भांति ही मुझमें ठूंसता रहता है। हैल्पर मुझ पर थाप देकर और सिटी बजा कर मेरी गति को और रोमांचकारी बना देता है। वो तो शुक्र है कि हम टाटा और लीलैंड जैसे घरानों में पैदा हुए हैं वर्ना.....।' लेकिन सुना है अब तुममें स्पीड कंट्रोलर नामक कोई यंत्र लगाया जा रहा है। अब तुम पहले की तरह अपना तेवर नहीं दिखा पाओगी।'

'अरे छोड़ो ये सब कहने की बातें हैं। मन को कौन बांध पाया है भला। मेरा ड्राईवर बड़ा होशियार है। दिपु (दिल्ली पुलिस) को देखते ही यंत्र का कनेक्शन कर देता है। और उसके गुज़रते ही हटा देता है। हमारे आपरेटर कुछ दिनों में कुछ ऐसा आविष्कार कर ही लेगें जिससे ये आटोमैटिक हो जाए। अर्थात जिप्सी को देखते ही 40 की स्पी़ड नहीं तो इस्केप वेलोसिटी! और फिर हमारे सभी आपरेटर प्रत्येक रेड लाईट एवं गोलचक्कर पर हर महीने 100 रुपये दक्षिणा क्यों देते हैं। सिर्फ इसलिए न कि मैं बेधड़ रेड लाईट जंप कर सकूं। अपने पायदानों पर भी सवारियों को यात्रा सुख दे सकूं। नियत गति से तेज़ चल सकूं। कहने का मतलब की राजधानी की सड़कों पर मनमानी कर सकूं।'


'लेकिन फिर से ऐसा करने से तो तुम ब्लू लाईन वालों को भी बदनाम कर दोगी।'...'तो ब्लू लाईन वाले भी कौन से दूध के धुले हैं। वे तो और भी ब्लू हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि अख़बार वाले नाहक ही हमारे पीछे पड़ गए। शायद हमारी दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की से जल गए और हमें बदनाम कर दिया। जबकि अन्य 'लाईनवाले' भी हम से किसी भी माने में कम नहीं हैं। अब देखो न, हम रेड लाईन वालों पर ही आरोप लगा कि हम लोगों की जान से खेलते हैं। बात थोड़ी बहुत सच भी हुई तो क्या। दूसरी प्राईवेट बसवालों ने तो महिलाओं की इज्ज़त से खेलना शुरु कर दिया... और तीन लगातार दिनों में तीन बलात्कार कर डाले। हम लोगों को कम से कम इज्ज़त की मौत तो देते हैं। और फिर बिजनेस में रिस्क कवर तो करना ही पड़ता है। हमने भी किया। इसी रिस्क कवर करने के क्रम में कुछ मानव रक्त बह गया जिसके कारण हमरी 'रेडनेस' को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया गया। असल में हमारी तरफ से भी कुछ ग़लतियां हुईं। 'दिपु' की तरह इन अख़बार वालों को 'कुछ' देते रहते तो शायद इस बात को वे आगे तक नहीं बढ़ाते।'

'लेकिन हमने सुन रखा है कि इन्होने हर प्रकार की विसंगतियों को जनता के सामने लाने का ठेका लिया हुआ है। इसलिए कुछ भी आफर करते हुए डर लगता है। हालांकि मुलायम सिंह वाले प्रकरण से कुछ आस बंधी थी। लेकिन इन 'काम के लोगों को पत्रकारिता जगत से परे मान लिया गया। उनकी जगह 'टुटपुंजिया लेखक' अपने को अधिक आदर्शवादी साबित करने में लग गया। हो सकता है कि इन लोगों को आपस में ना बनती हो। फिर दिल्ली पुलिस को उसके सजीले परिधानों से पहचान भी लें। लेकिन इन पत्रकारों को पहचानना आजकल ज़रा मुश्किल काम है। कोई व्यक्तित्व ही नहीं है। जिसे देखो वही अपने को पत्रकार कहता फिर रहा है। ऐसे में सबों को खुश रखना अपने बूते की बात नहीं है। वो तो भला हो सरकार का जिसने हमें विकल्प सुझा दिया है। अब ब्लू रंग की आड़ में हम अपने 'लाल अस्तित्व' को क़ायम रख सकेंगे।'

3 comments:

Anonymous said...

दिल्ली की बसें ही क्यों, गाजियाबाद और मेरठ से आने वाली सभी बसों का पुलिस वालों के साथ बंधा है। ९५% चार्टेड बसें उस वक्त बगैर परमिट के चलती थीं। जब पहली दफे सुना कि आगे पांच नंबर वाले खड़े हैं तो समझ नही आया बाद में ड्राइवर से पुछा तो उसने बताया कि पांच नंबर वाले यानि कि ट्रैफिक पुलिस की वो टीम जो बगैर पांच सौ लिये बस को आगे नही जाने देती। ये बात है १९९५-१९९८ के दौरान की।

BARMERPOLICE said...

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Our official webblog is 'www.barmerpolice.blogspot.com'.Thanks for visit us. We will be thankful to you if you would provice your valuable suggestion for improvement of our blog and other related topics.

Thanking you in Anticipants.

Dictrict Crime Record Bureau,
Barmer (Rajasthan)

Divine India said...

सच लिखा गया है…मगर क्या किया जाए…तरुन ने जो कहा वह भी सत्य है…।