Saturday, May 26, 2007

नंगे को नहला लो बेशक, पर निचोड़ोगे क्या?

(मोहल्ले पर गिरिराज किशोर जी का इंटरव्यू। टिप्पणी कर रहा हूं। आगे भी करुंगा।)

भाई अविनाश के मोहल्ले पर आचार्य गिरिराज किशोर का इंटरव्यू है। पढ़ा। अच्छा है। पर ये पोस्ट इंटरव्यू लेने वाले की अपनी सीमा को भी दर्शाता है। आचार्य गिरीराज किशोर की लाईन को कौन है जो पहले से नहीं जानता है। क्या नया कह दिया उन्होने? क्या नया पूछ लिया गया उनसे? पहले से खिंची लाईन पर शब्दाडंबर के नए ग्राफिक्स पर इतराने वाले बहुतेरे हैं। पर समस्या के बहुआयामी परिदृश्य में झांकने वाले कम। ऐसा कहने पर कई मुझे हिंदूवादी कट्टरवादी ठहरा सकते हैं। मुझे अफसोस नहीं होगा क्योंकि मैंने आतंकवादियों को भी नज़दीक से देखा है और धर्म को भी... मुझे जानने वाले बेहतर जानते हैं और नहीं जानने वालों का शक तब तक जायज़ है जब कि ठीक तरह से मुझे जान ना लें। ( न जानने की निष्क्रियता ज़िम्मेदार मैं नहीं) मेरा अनुभव कहता है कि आतंकवाद का मामला धर्म से जितना जुड़ा है उससे ज़्यादा अर्थ से जुड़ गया है... जुड़ता जा रहा है। आतंकवाद ने एक अपना पंथ (या कहें कि कुपंथ...पर शायद ये शब्द कईयों को ना पचे) क्रिएट कर लिया है। इसलिए ये साबित करने की बजाय कि हिंदू भी बराबर के या ज़्यादा बड़े आंतकवादी हैं... ये साबित करने की कोशिश होनी चाहिए की आतंकवादी आतंकवादी हैं चाहे वो हिंदू हों मुसलमान हों...सिख हों या ईसाई।

पर गिरिराज जैसों की बात कर पूरे हिंदुत्व को गलियाने का एक शगल बन चुका है। इससे गलियाने वाले को नोटिस मिलता है। ख़ासतौर पर उनको जो इसकी पूंछ पकड़ समस्या की वैतरणी को पार करते दिखना चाहते हैं... कि शायद उनका नाम भी सच्चे, सहिष्णु, उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष, मानवाधिकारवादी... भारतीय में शामिल हो जाए। ऐसा करने के से कोई हिंदू फेनेटिक भी आपको नहीं कहेगा क्योंकि उनको पहले ही उनकी औक़ात बता दी गई है। आप जैसों के ज़रिए उनको अपने तरीक़े से 'एक्सपोज़' भी कर दिया गया है। पर आपके ऐसे ही सवाल किसी और धर्म के झंडाबरदार से पूछ कर इसी तरह की स्वीकारोक्ति वाला जवाब ला दो तो मानें। पर उसकी ज़रुरत नहीं क्योंकि वो अभी की लेखनी को लुभाता नहीं।

शायद आप में से किसी को पता हो कि जब जम्मू में एक हिंदू पकड़ा गया था आतंकवादियों की मदद के आरोप में तो क्या कहा गया था...कश्मीर का पहला हिंदू आतंकवादी... पर ये ग़लत। मैंने ऐसा भी देखा है कि जिनके पास खाकी है... चाहे वो हिंदू हैं या मुसलमान... वो कानून को हालात के मुताबिक इस्तेमाल कर ज़्यादा आतंक फैलाते हैं। पर उन पर सवाल उठाने का माद्दा नहीं। हिंदू समेत तमाम धर्म में आतंकवादी शायद प्राचीन काल से ही भरे पड़े हैं। समय और ज़रुरत के हिसाब से उनकी व्याख्याएं बदलती रहीं हैं। उनकी पहचान कब किस रुप में हो पायी या नहीं... ये अलग बात है। पर अभी समस्या ज़्यादा गंभीर हो चली है क्योंकि मौजूदा सभ्य समाज में सरहदों का ज़्यादा वस्तुनिष्ठ सरोकार इससे ज़्यादा जुड़ गया है।

पर एक बात है कि पहले से ही नंगे को नंगा पर अपना कुर्ता सफेद झक दिखाने की कोशिश करने वाले बधाई के पात्र बेशक बन जाएं...लेकिन धर्मनिरपेक्ष कहला कर आतंकवाद को संरक्षण देने वालों में से एक का भी ऐसा इंटरव्यू वो ला पाएं तो वे वैचारिक स्तर पर ज़्यादा भरे-पूरे नज़र आएगें। पर क्या है कि इस देश मे एक धारा चल पड़ी है कि जो घोषित लतखोर हैं उनको और लात मारो तो अपना एक पाठकवर्ग है जो सराहता है। असल में कुछ नया लाना है तो उनको सामने लाओ जो धर्मनिरपेक्षता का चोगा पहन कर तथाकथित बुद्दिजीवियों का इस्तेमाल करना जान गया है। और ये दो टके के हिंदूवादी थोड़े से नानुकुर के बाद सुलभ उपलब्ध हो जाते हैं। इतना ही नहीं अपनी वैचारिक नग्नता दिखाने में भी नहीं हिचकते। उनसे टके दो टके की बात कर कलमकार अपने को धन्य समझता है। अरे कलम और दिमाग के इतने ही धनी हो तो जाओ किसी सैफुल्ला का इंटरव्यू कर लाओ जो पीरपंजाल की पहाड़ियों पर या किसी अनजान जगह पर बैठ कर केनवुड सेट पर फ़रमान जारी करता है कि दस कांपियां (नए लड़के) चाहिए जो एक महीने बाद किताब (प्रशिक्षित आतंकवादी) बन सकें। शिक्षा की कमी के चलते जिहाद की आड़ मे वो दस-बीस ऐसे को तैयार भी कर लेते हैं। पर इंटरव्यू लेने वाले और हम जैसे पढ़ने वाले में से गिरिराज जी की बातों में शायद कोई नहीं आता। तुलनात्मक रुप में बेहतर शिक्षा ने हिंदू धर्म को अपेक्षाकृत सहिष्णु बनाया है। (इस बात को ना मानने वाले मुझे दुत्कार सकते हैं...उनको जवाब दिया जाएगा) तो फिर आतंकवाद को बढ़ावा देने वाला कौन हुआ। जो बरगलता है वो या जो बरगला सकने लायक हालात का ज़िम्मेदार है वो?

आगे भी लिखुंगा। आप सबों की सलाह का इंतज़ार है।

5 comments:

Anonymous said...

उमा शंकर जी; आपने सोचने लायक मुद्दे दिये हैं. बहुत अच्छा लिखा है.

"पर इंटरव्यू लेने वाले और हम जैसे पढ़ने वाले गिरिराज जी की बातों में शायद कोई नहीं आता। तुलनात्मक रुप में बेहतर शिक्षा ने हिंदू धर्म को अपेक्षाकृत सहिष्णु बनाया है। (इस बात को ना मानने वाले मुझे दुत्कार सकते हैं...उनको जवाब दिया जाएगा)"

पर सहिष्णु मुसलमान भी होते हैं, ईसाई भी. कम से कम मुझे तो अधिकांश लोग सहिष्णु ही मिले हैं.

आपने बेहतर लिखा है, अगले लेख का इन्तजार है.

अभय तिवारी said...

आपकी बात में ईमानदारी की बू है.. ये बू हमें पसन्द है.. आप लिखते रहें साथी..

उमाशंकर सिंह said...

धुरविरोधी जी, आपने सही टिप्पणी की है। आपके कहेनुसार मैंने अपने पोस्ट में पंक्ति जोड़ दी है। मेरा मक़सद किसी धर्म को असहिष्णु कहना नहीं है। पर बात कहते हुए कई चीज़े छूट जाती हैं और इसलिए आप जैसे पैनी निगाह से पढ़ने वालों की सलाह मायने रखती है।

आगे भी सहयोग की उम्मीद में

उमाशंकर सिंह

Anonymous said...

आपने इस विषय पर बहुत ही तथ्यपरक और सधा हुआ लिखा है। अगले लेख की प्रतीक्षा।

हरिराम said...

धर्मनिरपेक्ष = अधर्मपेक्ष?