Wednesday, May 2, 2007

चुसूल यात्रा-1 : दिल्‍ली से लेह


जम्‍मू और कश्‍मीर के लंबे दौरों में कुछ ऐसे मौके आये, जो हमेशा के लिए जेहन में बस गये। ऐसे वाकयों की तारीख़ बेशक ठीक ठीक याद न आये, क्‍योंकि डायरीनुमा लिखाई कभी की नहीं, पर पूरा वाकया नज़र के सामने यूं ही उतर आता है। जैसे चुसूल की यात्रा। यहां लाईन आॅफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी)का उल़लंघन कर चीन द्वारा क़रीब ३ किलोमीटर लंबी सड़क बना लेने से भारत-चीन सीमा विवाद में एक नया पेंच जुड़ गया। मामले की थाह लेने हम भारत-अक्साई चीन सीमा तक पहुंचे। थाकुन आॅब्जर्वेशन पोस्ट (ओपी) तक की इस यात्रा में कई उतार चढ़ाव आए। चीज़ें जिस तरह से होतीं गईं वैसे ही बताने की कोशिश कर रहा हूं। शुरुआत कर रहा हूं दिल्‍ली से लेह तक के हवाई सफर से...



पहली कड़ी


18 दिसंबर 2000... सुबह साढ़े पांच बजे लेह की फ्लाइट पकड़नी थी। एलायंस एयर की फ्लाइट थी। इस एयरलाइंस से ये पहला वास्‍ता था। आदत जेट, सहारा या बुरे से बुरे वक्‍त में भी इंडियन एयरलाइंस की पड़ी थी। लेकिन रनवे पर खरखराये ट्रक की तरह खड़े एयरक्राफ्ट को देख कर पटना में हुए एयरक्रैश की याद ताज़ा हो आयी। मन को मज़बूत कर सवार हुआ। कैमरामैन संजय रोहिल्‍ला को भी ढांढ़स बढाया। बार बार बुरा नहीं होता।

अंदर घुस एयर हॉस्‍टेस की तरफ टिकट बढ़ाया। एयरक्राफ्ट की तरह वो भी ज़िन्‍दगी से थकी हारी लगी। इशारा किया जिधर मर्जी बैठ जाओ। सीट नंबर का पंगा नहीं है। मैं खिड़की की तरफ की एक सीट पर जा बैठा। बैठने के पहले एयर हॉस्‍टेस को दिखाते हुए सीट को रूमाल से इस तरह झाड़ा, जैसे पनवारी की दुकान के बाहर लगे किसी स्‍टूल पर बैठने के पहले झाड़ते हैं। ये देख कर फिर किसी एयर हॉस्‍टेस ने मेरी तरफ रुख नहीं किया।

क्‍योंकि ऐसी सुविधा हमेशा नहीं मिलती थी और खिड़की किनारे मैं ही बैठा करता था। लिहाज़ा इस बार संजय ने भी एक खिड़की पकड़ ली। मेरे बगल की सीट खाली थी। तभी एक लड़की की आवाज़ आयी। मैं यहां बैठ जाऊं। घूम कर देखा तो नयी नयी शादी हुई लड़की थी। भरी कलाई चूड़ियां और मांग में सिंदूर। मैंने कहा- बैठ जाइए। फिर काफी देर तक कोई बात नहीं हुई। जब फ्लाइट ने टेक ऑफ किया तो अचानक ही उसने अपने आप को मेरी सीट की तरफ सिकोड़ लिया। बोल पड़ी- पहली बार बैठी हूं। डर लग रहा है। मैंने उसे पहले नज़रों से भरोसा दिलाया और फिर पूछा तो उसने नाम बताया- श्‍वेता बैजल। करोलबाग दिल्‍ली की रहने वाली। मेजर बैजल से हाल ही में शादी हुई थी। शादी के तुरंत बाद वो लेह चले गये थे। वो उनके पास जा रही थी। ऐसी ही छोटी मोटी बातें करते रोहतांग दर्रे के ऊपर से गुज़रे। फिर हम लद्दाख के ऊपर आ गये।



खिड़की के बाहर का नज़ारा देखने लायक था। बर्फ से ढंके पहाड़। बीच में अपनी पहली किरणें फैलाता सूरज। मैं बार बार बाहर का लुत्फ उठा लेता। लेकिन श्वेता की दिलचस्पी इन नज़ारों की बजाए पति के पास जल्द पहुंचने में लग रही थी। पहली हवाई यात्रा उसे परेशान कर रही थी। एयर पॉकेट्स की वजह से जब भी एयरक्राफ्ट झटका खाता उसके चेहरे पर सिकन आ जाती। लेकिन एलायंस एयर की उस फ्लाइट ने टिकट की लाज रख ली। सभी यात्रियों को सही सलामत लेह एयरपोर्ट पर उतार दिया।

लेह एयरपोर्ट पर उतरते ही थोड़ी भारहीनता महसूस होती है। हवा में ऑक्‍सीजन भी कम है। इसलिए दो कदम चलने पर इंसान हांफने लगता है। ऐसा तब तक होता है, जब कि उस माहौल से शरीर का तालमेल न बैठ जाए। इसका असर मुझ पर भी था। लेकिन श्‍वेता ज़्यादा परेशान नज़र आयी। उसे लगातार मितली आ रही थी। सहारा देकर उसे एयरपोर्ट बिल्डिंग तक लाया। वहां उसने अपने को संभाला। कहा बाहर मेजर साब इंतज़ार कर रहे होंगे। मैं खुद चली जाऊंगी। और कुछ नहीं कहा। लगा शायद उसका मेरे साथ बाहर जाना मेजर साब को पसंद न आये। बाहर मेजर साहब अपने जवानों के साथ इंतज़ार कर रहे थे। पत्नी के आने की खुशी चेहरे पर नज़र आ रही थी। मुश्किलात भरे इलाक़ों में तैनात फौज़ियों को परिवार के साथ रहने का मौक़ा मिल जाए तो ये उनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी खुशी होती है। एक ऐसे लम्हें का मैं गवाह बना। मेजर साब ने श्‍वेता को अपनी आर्मी जिप्‍सी में बिठाया और चल दिये।
हम जिस मक़सद से लेह पहुंचे उसे पूरा करने की चुनौती हमारे सामने थी।


दूसरी कड़ी में जारी... (दूसरी कड़ी के लिए ऊपर जाएं)

5 comments:

ravishndtv said...

बधाई । खूब लिखिये और इतना लिखिये कि दफ्तर में चर्चा हो जाए कि काम नहीं करता सिर्फ ब्लाग करता है। समझियेगा ब्लाग लोकप्रिय हो रहा है । मगर सार्थक संवाद की कोशिश बनी रहनी चाहिए। ब्लाग से बवंडर भी मचता है । इससे सबक सीख कर आगे बढ़ना है। किसी से नफरत का नतीजा नहीं होता। सोहबत का सार है कि उसका ध्यान रखा जाना चाहिए।

उमाशंकर सिंह said...

त्वरित बधाई के लिए आपका शुक्रिया। इसका तकनीकि नाम बेशक ब्लाॅग हो लेकिन मेरे लिए ई-डायरी है। इसे बनाने के पीछे मेरा मक़सद अपने कुछ अनुभवों को समेत कर आप सबके सामने रखना है। आप बेहतर जानते हैं कि बहुत बातें महसूस होते हुए भी ज़िदगी की आपाधापी में दब कर रह जातीं हैं। अब इस पर लिखता रहुंगा और अगर आप जैसे पढेंगे के कस्बे-मोहल्ले में भी चर्चा होगी ही। आश्वस्त करता हूं कि 'कमर के नीचे' हमला करने और उसका मज़ा लेने वालों को यहां निराशा हाथ लगेगी।

Soochak said...

आपका ब्लाग देखकर खुशी हुई। पर पहाड़ों का राग जैसा अनोखापन रहे तो चोखा लगेगा।

उमाशंकर सिंह said...

सूचक जी धन्यावाद आपने लिखा। आपको बताना चाहुंगा कि कश्मीर के हालात पर अपनी टीवी रिपोर्टिंग के दौरान जो कुछ अनुभव हुआ इसमें उसे समेटने कर आप सबके सामने रखने की कोशिश कर रहा हूं। जम्मू,कश्मीर और लद्दाख, हर इलाक़े की बातें होगीं। लेकिन आतंकवाद, सीमा पर तनाव, मुठभेड़, कत्लेआम...इन सारी बातों के बीच पहाड़ों का राग कितना मिल पाएगा बताना मुश्किल है। शुरुआत फिर भी मैने मनोहारी करने की कोशिश की है।
एक बार फिर आपका धन्यवाद
उमाशंकर सिंह

Anonymous said...
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