Friday, February 29, 2008

जब आईएसआई वाले पीछे पड़े

इस बार की पाकिस्तान यात्रा में एक बात जो सबसे ज़्यादा एविडेंट रही वो थी हमारा लगातार पीछा किया जाना। पहले दो दिन तो मैंने नोटिस नहीं किया लेकिन चुनाव के दिन यानि 18 फरवरी की शाम तक साफ नज़र आने लगा। एक कार लगातार हमारे पीछे थी। यहां तक कि शाम को जब हम शाम को पीपीपी के सीनेटर अनवर बेग का घर ढूंढ़ रहे थे तो वो कार पीछे आकर लगी। हमें जल्दी थी क्योंकि इंटरव्यू निपटा कर लाईव के लिए पहुंचना था। पीछे से आवाज़ आयी कहां जाना है। मैंने कहा अनवर बेग के घर। तो आवाज़ आयी हमसे पूछें ना। ख़ैर उन्होने ने बता ये कि ये घर है। हम वापस आए तो वो फिर पीछे थे। हमें ज़हूर प्लाज़ा पहुंचना था। मुझे पता था सो पहुंच गया। पीछे वही कार। मुझसे नहीं रहा गया। मैं उतर कर उनके पास गया। कहा बस आधे पौने घंटे की बात है। फिर हम भी फ्री आप भी फ्री। अचंभे से वे बोले। अच्छा। मैंने कहा। बिल्कुल। उन्होने ने पूछा उसके बाद आप कहां जाएंगे। मैंने कहा होटल। और आप भी जाकर आराम करें। ख़ैर। लाईव के बाद मैं वापस लौटा तो वे अपनी ड्यूटी पर मुस्तैद थे। मैंने कहा चलें। तो वे बातचीत पर उतर आए। हिन्दुस्तानियों और पाकिस्तानियों को लेकर दोनों मुल्कों मे शक सुबहों को लेकर कई बातें हुईं। पांच मिनट में ही। फिर मैंने कहा कि आप कभी हिन्दुस्तान आएं तो ये मेरा कार्ड है और फोन नंबर। मेरे घर ठहरें। शर्त एक ही है कि साफ मंशा से आएं। जैसे मैं आया हूं। हमेशा आपके साथ रहूंगा। कोई आपको हाथ नहीं लगाएगा जैसे आप हमें नहीं लगा पा रहे।

वे वापस होटल तक आए। लेकिन उसके बाद कभी पीछे नहीं आए। हमारे ड्राईवर का नंबर ले लिया था उन्होने। हर घंटे उसे फोन किया करते थे। हमारे बारे में पूछने के लिए। लेकिन पीछे नहीं पड़े फिर। एक रात इस्लामाबाद में हम क़रीब सुबह तीन बजे लौटे। फुल दारू पी के। ड्राईवर को भी नहीं पता था कि कहां से लौट रहे हैं। अगले दिन होटल हॉली डे इन के रिसेप्शन पर वे बैठे मिले। मैंने कहा पीछे आने की ज़रूरत नहीं। साथ हमारी कार में ही चलें। उन्होने कहा ज़रुरत नहीं। खाली इतना बता दें रात कहां थे। मैंने कहा सरमत मंज़ूर साहब के यहां। उन्होने कहा ओके। आप जाएं। हमें पीछे आने की ज़रुरत नहीं। उन्होने जो नहीं कहा शायद वो ये कि आपके पीछे आकर भी हमें कुछ नया नहीं मिलने वाला क्योंकि आप जहां जाते हैं खुद ही बता देते हैं।

Saturday, February 23, 2008

एक तरफ जनादेश, दूसरी तरफ ज़रदारी

(अमर उजाला, सोमवार 25 फरवरी के अंक में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)

चुनाव नतीजे आने के बाद पाकिस्तान में तुरंत सरकार बन जानी चाहिए थी। ख़ासतौर पर तब जब पीएमएल एन और पीपीपी चुनाव के पहले से ही साथ चलने की बात करते रहे हैं। अब जबकि 272 जेनरल सीटों वाली नेशनल एसेंबली में पीपीपी 87 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी और पीएमएल एन 67 सीटों के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी है तो फिर इन्हें मिल कर सरकार बनाने में देरी क्यों हो रही है। ज़ाहिर है कि पाकिस्तान में चुनाव के पहले और चुनाव के बाद के राजनीतिक परिदृश्य में ज़मीन आसमान का अंतर आ गया है।

चुनाव के पहले मुशर्रफ को पानी पी पी कर कोसने में पीपीपी को फायदा था। हालांकि बेनज़ीर मुशर्रफ के साथ समझौते के तहत ही पाकिस्तान लौटीं थी और चुनाव में शिरकत कर रही थी। लेकिन चुनाव में धांधली और संविधान की धारा 58 2बी के सवाल पर मुशर्रफ से उनका समझौता अंतिम रुप नहीं ले पा रहा था। इसी बीच बेनज़ीर की हत्या हो गई। पीपीपी ने मुशर्रफ को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की। मुशर्रफ समर्थक सत्तारुढ पार्टी पीएमएल क्यू के कई नेताओं पर इल्ज़ाम लगाया और हत्या के लिए सरकार में बैठे लोगों को ज़िम्मेदार ठहराया। लेकिन पार्टी चुनाव से हटी नहीं। बेनज़ीर की हत्या से उपजी सहानूभुति का फायदा मिलने की उसे उम्मीद थी और कुछ हद तक वो हुआ भी।

इधर नवाज़ शरीफ जो 1993 तक जिनकी बेनज़ीर से बातचीत भी नहीं होती थी... बेनज़ीर की हत्या के बाद उसे अपनी बहन करार देने लगे। चुनाव से हटे लेकिन पीपीपी के मैदान में डटे रहने के कारण अपनी पार्टी को भी चुनाव में उतार दिया। नवाज़ और ज़रदारी कई मौकों पर मिले और जम्हूरियत की जंग में साथ लड़ने की बात की। इन्हें चुनाव में धांधली की आशंका भी सताती रही। लेकिन ख़तरों के बावजूद अवाम वोट डालने निकली और चुनाव ठीक-ठाक हो गए। किसी पार्टी को उम्मीद से कुछ कम तो किसी को कुछ ज़्यादा... लेकिन अपने-अपने हिस्से की सीटें मिल गईं। चुनाव नतीजों के बाद अब पहले की भावनात्मक ऐलानों का वास्ता अब ज़मीनी हक़ीकतों से हो रहा है। इसके केन्द्र में हैं पीपीपी और उनके सह-अध्यक्ष आसिफ अली ज़रदारी।

मुशर्रफ विरोध के सहारे सीटें बटोरने वाली पीपीपी को मुशर्रफ़ को नज़रअंदाज करना अब नामुमकिन लग रहा है। वजह कई है। नंबर एक। मुशर्रफ की संवैधानिक स्थिति राष्ट्रपति की है। सरकार बनाने का न्यौता उन्हीं के हाथ में है। नंबर दो। पाकिस्तान के राष्ट्रपति को ये अख्तियार है कि वो किसी चुनी हुई नेशनल एसेंबली को कभी भी भंग कर सकते हैं। संविधान की धारा 58 2बी के ज़रिए। ज़ाहिर है कि ऐसे में मुशर्रफ को नाराज़ करने वाले फैसले करना पीपीपी के लिए आसान नहीं है। मुशर्रफ कह रहे हैं कि वो नई सरकार के साथ काम करने को तैयार है। लेकिन वो नवबंर तीन के पहले की अदालत की बहाली के ज़बर्दस्त खिलाफ हैं। इमरजेंसी लगाए जाने के पहले की अदालत और चीफ जस्टिस इफ्तिखार चौधरी की फिर से बहाली का मतलब होगा मुशर्रफ के खिलाफ उस मामले का फिर से खुलना जिसमें जेनरल की वर्दी पहन उनके राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की वैधता को चुनौती दी गई थी। अगर वो मामला दुबारा खुला तो मुशर्रफ को राष्ट्रपति पद से हाथ धोना पड़ सकता है। उनके खिलाफ महाभियोग लगाने की ज़रुरत भी नहीं पड़ेगी। अब ज़रदारी को डर ये है कि अगर पुरानी अदालत को बहाल करने की नवाज़ शरीफ की शर्त को उन्होंने माना तो उनकी सरकार चंद घंटों की मेहमान ना साबित हो।

महाभियोग लाने की नवाज़ की शर्त मानने पर डर ये है कि कोई भी सेना अपने पूर्व चीफ पर इस तरह का अभियोग बर्दाश्त नहीं करेगी। मुशर्रफ ने बेशक वर्दी उतार दी हो लेकिन सेना ने उन्हें सिर से उतारा नहीं है। पाकिस्तान में सरकार चलाने के लिए सेना से अच्छे संबंद ज़रुरी हैं और ज़रदारी पाकिस्तान की इस सच्चाई को समझते हुए सेना से अपने संबंध खराब नहीं करना चाहेंगे। इसलिए नवाज़ शरीफ की महाभियोग जैसी शर्त मानने में वो हिचक रहे हैं।

इसके अलावा अमेरिका का दबाव भी ज़रदारी पर काम कर रहा है। अमेरिका ने मुशर्रफ और बेनज़ीर के बीच समझौता करा सत्ता में दोनों को भागीदारी देने का फार्मूला अपनाया था। ताकि दोनों के ज़रिए पाकिस्तान और इस इलाके में अमेरिकी हित सधते रहें। बेनज़ीर बेशक ना रही हो लेकिन अमेरिका अपने लिए स्थिति में बदलाव नहीं चाहता है। उसने ‘साफ-सुथरे’ चुनाव के लिए मुशर्रफ की तारीफ की है। ये भी जता दिया है उन्हें मुशर्रफ चाहिए। बेनज़ीर की जो भूमिका अमेरिकी ने तय की थी वो चाहता है कि अब ज़रदारी उस भूमिका को आगे बढ़ाएं। ऐसे में प्रधानमंत्री पद की पेशकश ज़रदारी की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को हवा दे दे तो हैरानी की बात नहीं। वैसे भी चुनाव के पहले प्रधानमंत्री पद के लिए मकदूम अमीन फहीम का नाम आगे करने वाले ज़रदारी अब कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री कौन होगा ये आगे तय होगा।

पीपीपी की नेतृत्व वाली नई सरकार को लेकर एक तरफ ये तमाम दबाव और आशंकाएं हैं और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा हैं तो दूसरी तरफ है जनादेश। जनादेश मुशर्रफ के खिलाफ है। ऐसे में ज़रदारी अमेरिका और राष्ट्रपति मुशर्रफ के दबाव में आकर पीएमल क्यू जैसी पार्टियों के साथ सरकार बनाने की कोशिश करते नज़र आते हैं तो अवाम भड़क सकती है। वकीलों का आंदोलन और ज़ोर पकड़ सकता है। नवाज़ शरीफ का कद इस हद तक बड़ा हो सकता है कि अगली किसी चुनाव की सूरत में पीपीपी हाशिए पर न चली जाए। या फिर सरकार बनाने के पहले ही पीपीपी ही ना टूट जाए क्योंकि पार्टी में प्रधानमंत्री के पद और बेनज़ीर की राजनीतिक विरासत समेत कई मुद्दों पर मतैक्य नहीं है। मौजूदा हालात की मजबूरी में एक रखे हुई है।

कुल मिला कर ज़रदारी एक ऐसी ज़मीन पर खड़े हैं जहां आगे कुंआ है तो पीछे खाई। इसलिए वो लगातार आम सहमति की सरकार बनाने का राग अलाप रहे हैं। दरअसल उन्हें पता है कि अगर वो पीएमएल क्यू या मुशर्रफ समर्थकों को किसी रुप में साथ लेकर चलने की कोशिश करते हैं तो नवाज़ शरीफ उनके साथ नहीं आएंगे। नवाज़ साथ आए तो उनकी साख को धक्का लगेगा। और वो सरकार से बाहर रहे तो पीपीपी इसका राजनीतिक फायदा उठा सकेगी।

पीपीपी मान चुकी है कि पार्टी लगातार मुशर्रफ से संपर्क में है। बेशक वो हवाला मुशर्रफ की संवैधानिक स्थिति का दे रही है। लेकिन उसकी नज़र पीएमल क्यू के सांसदों पर भी है। वो चाहती है कि पीएमएल क्यू एक पार्टी के तौर पर उसके साथ ना आए। लेकिन चौधरी शुजात और परवेज़ इलाही जैसे नेताओं को छोड़ उसके बाकी चुने हुए सदस्य साथ आ जाएं। इसके अलावा अवामी नेशनल पार्टी के साथ पीपीपी के अच्छे संबंध रहे हैं। एएनपी के पास 9 सीटों हैं। मोहाज़िरों की पार्टी मुत्ताहिद्दा कौमी मूवमेंट यानि एमक्यूएम के पास 19 सदस्य हैं। सिंध की प्रांतीय सरकार में भागीदारी देने के बदले पीपीपी एमक्यूएम को केन्द्र में साथ ला सकती है। एमक्यूएम भी इसके लिए तैयार दिखती है। इसके अलावा 26 आज़ाद उम्मीदवार भी जीते हैं जो सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। कहने का मतलब कि पीएमएल एन के बिना जो सरकार बनती है वो मुशर्रफ को तुष्ट करने वाली भी होगी और अमेरिकी का खुश करने वाली भी। फिर भी अगर ज़रदारी को नवाज़ शरीफ के साथ मिल कर ही सरकार बनाना पड़ा तो ये ज़रदारी पर जनादेश की जीत ही होगी।

(इस लेख को पढ़ने के बाद बगल के सर्वे में अपनी राय ज़रूर ज़ाहिर करें...)

Friday, February 22, 2008

नकली उमाशंकर सिंह से सावधान!

अभी अभी पता चला है कि उमाशंकर सिंह नाम का एक शख्स अखबारों में छपे मेरे लेखों को अपना बता फ़ाइलों में लिए फिर रहा है। दिल्ली में अख़बार के दफ्तरों के चक्कर लगा रहा है। नौकरी की तलाश में। ख़ासतौर पर जनसत्ता के संपादकीय पृष्ठ पर छपे पाकिस्तान मामलों पर मेरे लेखों को बेझिझक वो अपना बता रहा है। क्योंकि यहां लेख के साथ लेखक का एक पंक्ति में दिया जाने वाला परिचय नहीं होता। ख़ैर। अगर मेरे लेखों से उसकी रोज़ी रोटी का जुगाड़ हो जाता है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं शायद खुशी ही होगी। लेकिन डर मेरे नाम के ग़लत इस्तेमाल का है। इसलिए सूचना यहां चिपका रहा हूं।

एक पेशे में संयोगवश एक जैसे कई नाम हो सकते हैं। हर कोई अपने फन का माहिर हो सकता है। लेकिन दूसरे का लिखा अपना बताना अपराध है। अगर आप में से किसी से उमाशंकर सिंह नाम का ये शख़्स टकराता है तो कृपया मुझे इत्तला दें। मेरा मोबाईल नंबर है 9811021470। वैसे, जैसे ही इस शख्स की तस्वीर और उसका बायोडाटा हासिल होता है, उसे मैं अपने ब्लॉग पर डालने वाला हूं।

Tuesday, February 19, 2008

पाकिस्तान में नई सुबह

चार दिनों से इस्लामाबाद रावलपिंडी और लाहौर समेत पूरे पाकिस्तान में में अलग तरह की शंका आशंकाएं देखने को मिल रहीं थी. कई रातों से सोया नही. जानने समझने की कोशिश में. कल की वोटिंग के बाद रात झपकियाँ आ रही थीं. लेकिन यहाँ फ़ोन काल्स ने जगाये रखा.
पाकिस्तान में जम्हूरियत की जंग आख़िर रंग ला रही है. यहाँ की अवाम ने बदलाव के लिए वोट किया है. नतीजे से सामने आ रहे हैं. पीपीपी और पी ऍम एल नवाज़ की जीत पक्की है. मुशर्रफ के लिए मुश्किल दिनों की शुरुआत के तौर भी इसे देखा जा सकता है. नई सरकार के आने के बाद यहाँ की जनता नई हवा में साँस लेने को आतुर दिख रही है. बस कुछ ही घंटों की बात रह गयी है.

Friday, February 15, 2008

आइए देखते हैं पाकिस्तान में जम्हूरियत की जंग

अभी पाकिस्तान निकल रहा हूं। 18 को चुनाव होने हैं। कैसे होते हैं। कौन जीतता है। बुलेट या बैलेट। आप सबों को रुबरु कराने की कोशिश करुंगा। शायद पाकिस्तान से अब मैं अपना ब्लॉग अपडेट कर पाउंगा।

शुक्रिया

Wednesday, February 13, 2008

एक सूखा गुलाब बीस का

बचपन में क्यारियां लगाया करता था। तरह तरह के फूल होते थे उन क्यारियों में। गेंदा, गुलाब, रात की रानी, अरहूल... कई फूलों के नाम भूल गया हूं। हां कई पौधे ऐसे होते थे जो सिर्फ एक सीज़न चलते थे। उस फूल में खूशबू नहीं होती थी। बस देखने में सुंदर लगता था। खुरपी लेकर मैं क्यारियों को खूब सजाया करता था। पड़ोस में रहने वाले मित्तू और टूटू और गित्तू से हमारा खूब कंपीटीशन होता था। कई बार एक दूसरे पर पौधे चुरा लेने या फूल तोड़ लेने के आरोप प्रत्यारोप भी लगते थे। ख़ासतौर पर दुर्गा पूजा, सरस्वती पूजा या ऐसे ही किसी अवसर पर। अलसुबह चहारदीवारी फांद कर अंदर आने की आवाज़ आती थी। दूसरे मोहल्ले के लड़के भी फूल तोड़ भाग जाते थे। जिस पर शक होता था उससे खूब लड़ाई होती थी। फिर शाम को साथ खेलने लगते थे।

फूल की कहानी इसलिए सुना रहा हूं कि आज कम से कम बीस साल बाद गुलाब फूल लेने का मन हुआ। रास्ते में कही गुज़रते हुए। फूल की दूकान पर नज़र पड़ी तो पूछा, 'कैसे दे रहे हो भैय्या गुलाब'। दूकानदार बोला, 'बीस का'। गुलाब भी सूखा सा ही था। वैसा खिला नहीं जैसा अपने बगीचे में उगाया करता था। और ये भी अजीब इत्तेफाक था कि बीस साल बाद एक गुलाब बीस का मिल रहा है। हैप्पी वैलेंनटाईन्स डे!

Wednesday, February 6, 2008

चल 'भैय्या'... महाराष्ट्र चलें

लगता है कि मुंबई को गुंडा राज से निकालने के लिए वहां कूच करना ही पड़ेगा। ख़ूब सारा गेंदे का फूल लेकर... ताकि 'भैय्या' वाली फराकदिली दिखाया जा सके। राज ठाकरे तो अपने राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है... छापामार लड़ाई... जीत गए तो ठीक है नहीं तो ज़्यादा नुक्सान नहीं होगा। लेकिन भैय्याओं के साथ ऐसी कोई दिक्कत नहीं है। वे कल भी थे आज भी हैं और कल भी रहेंगे। मुंबई क्या टोरंटो में भी। जहां भी कहीं उनकी ज़रुरत होगी या जहां भी कहीं उनकी ज़रुरत पूरी होंगी। राज ठाकरे को खुजली बिहारियों या यूपीआईटों से उतनी नहीं हो रही जितनी अपने पैर के नीचे की ज़मीन खिसक जाने की वजह से हो रही है। बाला साहेब ठाकरे ने ऐसी दुलत्ती दी है कि भाई साहब की पैज़ामे की नाड़ ही सरक गई। मराठी बिहारी साथ ही रहेंगे... ये कोई राज़ की बात नहीं बता रहा... स्थापित तथ्य याद दिला रहा हूं।

Friday, February 1, 2008

शिवसैनिकों का मॉडल राज ठाकरे!

मैं उन दिनों मुंबई में ही था जब शिवाजी पार्क में बाला साहेब की पत्नी मीना ताई की मूर्ति पर मिट्टी पोत दी गई। बड़ा बबाल मचा। बसें जलायीं गईं। मैं रिपोर्टिंग कर रहा था। रविवार का दिन था। देखा जितनी भीड़ नारे चल रही है उससे ज़्यादा की भीड़ किनारे खड़ी है। अपने अपने घर के बाहर। छोटी टेबल... या इसी तरह की चीज़ों का इस्तेमाल कर रही थी वो भीड़। दारू की बोतलें रख सरेआम पी रहे थे महाराष्ट्र के तथाकथित शिवसैनिक। मैंने कुछ तस्वीरें लेनी चाही थी इन सैनिकों की। खुलेआम धमकाया था उन्होने। तब कुछ सच्चे मराठी ही मेरी तरफ से लड़े उनसे। और वे भी ऐसे कि अपने तमाम चंगू-मंगू के साथ होने के बाद भी वे मुझे हाथ नहीं लगा पाए। उस आपाधापी में बात आयी गई हो गई थी। आज राज ठाकरे का बयान देख कर याद आयी महाराष्ट्र के 'शिवसैनिकों के गौरव की। राज दरअसल उसी राजनीतिक संस्कृति की देन है। खुद दारू बेशक ना पीता हो पर बहकी बहकी बातें करना उसकी आदत में शुमार हो चुका लगता है। ख़ासतौर पर बाला साहेब ने जब से उसे नकारा ठहरा दिया। राजनीतिक महत्वाकांक्षा सनक में बदल गई लगती है।

वैसे ये राज ठाकरे कौन है। इस सवाल के कई जवाब हो सकते हैं। पर्सनल और प्रोफेशनल भी। पर यहां पर्सनल बात करना उचित नहीं। उसे और उसके परिवार को 'एक गायक'۔۔۔ ۔'अंदर तक' जानता है। हम उसके हवाले से नहीं जानना चाहते। इसलिए कुछ नहीं लिख रहे। प्रोफेशन की बात तो राज जो बयान देता है उसे नज़रअंदाज़ करने में ही फ़ायदा है। वो दरअसल महाराष्ट्र का एक छुटभैय्या नेता है। ख़ासतौर पर बाला साहेब से ठेंगा पाने के बाद वो अपना आपा खो चुका है। मराठा प्रतिष्ठा का सवाल उठा कर, बिहारियों को भला बुरा कह कर वो अपनी ज़मीन तलाशना चाहता है। इसलिए उसे जितना दिखाएंगे उसके मक़सद को भी पूरा करते नज़र आएंगे। बेहतर है कि उसकी गीदड़भभकी को नज़रअंदाज़ ही कर दें। पहले वो उद्धव ठाकरे के सामने अपनी औक़ात साबित करे। बाला साहेब की नज़र में अपनी उपयोगिता दिखाए। खाली यूपी-बिहार को गलिया कर उसे अपना 'घर' तक वापस नहीं मिलने वाला।