Monday, April 4, 2011

सेमी-फ़ाइनल के लिए लाहौर पहुंची दो भारतीय टीमें

संसद सत्र के आखिरी दिन ख़्याल आया कि रिपोर्टर के तौर पर ख़बरों की दुनिया में बने रहने के लिए अब क्या किया जाए है। तभी भारत पाकिस्तान सेमीफ़ाइनल को लेकर बने रोमांच ने नेरे दिमाग के एंटेना को खड़ा कर दिया। पाकिस्तान उच्चायोग फोन मिला कर भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त जनाब शाहिद मलिक के इंटरव्यू की दरख़्वास्त की। उधर से पेशकश की गई कि मैच के दिन पाकिस्तान में होना चाहते हैं तो फौरन बताएं।


दिमाग में तुरंत 'बेहतर टीवी' का ख्याल कौंध गया। फिक्स्ड फ्रेम का एक इंटरव्यू दिमाग से ओझल हो गया। उसकी जगह जोश से लहराए जाते झंडे और असंख्य दीवाने क्रिकेट प्रेमियों से भरी तस्वीरें ज़ेहन में उतर आयीं। मैं संसद भवन से निकल मिनटों में पाकिस्तान उच्चायोग में था। दफ्तर को इतिल्ला दे चुका था। वीज़ा के लिए पासपोर्ट और चार तस्वीरों के साथ दो सहयोगी रास्ते में थे।


वीज़ा सुनिश्चित हो चुका था। जा कर क्या क्या किया जा सकता है विचार इस पर चल रहा था। सवाल ये भी उठ रहा था कि मैच मोहाली में है तो लाहौर में जाने से क्या फ़ायदा। सुरक्षा की चौकस व्यवस्था के लिए ज़िम्मेदार डीएम से लेकर दोनों मुल्कों के पीएम तक सभी मोहली में ही मिलेगें। मेरी दलील थी कि मैच अगर लाहौर में होता तो क्या दिल्ली में कुछ नहीं होता? कोई स्टोरी नहीं होती? क्रिकेट अगर जुनून है तो वो मनमोहन और गिलानी की वजह से नहीं... करोड़ों दीवानों की वजह से। ये दोनों तो शर्म अल शेख से लेकर होनोलूलू तक कहीं भी मिल सकते हैं। मोहाली में मिल रहे तो क्रिकेट की वजह से। और मैदान में उतरने वाले सिर्फ 22 खिलाड़ियों की वजह से नहीं बल्कि मैदान के बाहर... स्टेडिय, गली, नुक्कड़ बाज़ारों और घरों में बैठे क्रिकेट के दीवानों की वजह से। जिसका एक बड़ा हिस्सा सरहद पार भी रहता है। दोनों उन तक पहुंचना चाहते थे। मैं भी। वे मोहाली के रास्ते तो में लाहौर के।


इस तरह मेरी एक और पाकिस्तान यात्रा का प्रारब्ध लिखा जा चुका था। कई और मीडिया संस्थान भी कोशिश में लगे थे। भारत पाकिस्तान सेमीफ़ाइनल को जंगी बता जोश को उत्तेजना के चरम पर ले जाने के लिए शायद ये एक ज़रुरी और नायाब रास्ता था। सरहद पार उतारे गए अपने रिपोर्टर्स सेनापति के ज़रिए ये काम बखूबी हो सकता था। डर भी इसी बात की थी।


पाकिस्तान से की गई पुरानी 'उत्तेजनाहीन' रिपोर्टिंग की वजह से मेरा पास मौक़ा था कि मैं अपनी तरह के कुछ भारतीय टीवीकारों के नाम बताउं। प्रतिस्पर्धा की बात को परे रख कर मैंने अपने दो साथी पत्रकारों के नाम उनसे पूछे बग़ैर पाकिस्तान उच्चायोग में आगे बढ़ा दिया। फिर उन्हें सूचित किया कि जाना चाहते हैं तो अपने अपने दफ्तर से बात कर लें। दरअसल उत्तेजनावादी पत्रकारिता के मौजूदा दौर में भी इन दोनों की परिपक्वता मुझे भाती है। कृपया इसे सर्टिफिकेट के तौर पर ना लें... इसे मेरा ज़ेहनी फितुर समझें। इनमें से एक की बात कतिपय वजहों से आगे नहीं बढ़ सकी। दूसरे ने अदम्य लालसा और जुझारुपन दिखाया। शर्त क्रिकेट को क्रिकेट के तौर पर कवर करने की थी। ऐसी शर्तों को मानने और इसकी गारंटी लेने में मुझे कोई परहेज़ नहीं। लाहौर के मैदान में मुझे भी एक प्रतिस्पर्धी चाहिए था। मैच की रिपोर्टिंग के लिए बेशक ये ज़रुरी नहीं था लेकिन 'रिपोर्टिंग के मैच' का भी अपना मज़ा है। सो भारत से कम से कम दो टीमों का जाना तय हो गया। समस्या हवाई टिकट की आ रही थी।


जारी...