Wednesday, May 2, 2007

टीवी चिंतन : ख़बर पर नज़र

उमाशंकर सिंह

ख़बरिया चैनलों के ख़बरों के चयन, उसकी प्राथमिकता, दर्शकों से उसके सरोकार और उन पर उसके असर को लेकर अक्‍सर छिटपुट चर्चा सुनने को मिलती है। क्‍या होना चाहिए और क्‍या हो रहा है, इस पर विमर्श शुरू तो हुआ है, लेकिन जो जैसा कर रहा है वो उसी को न्‍यायोचित ठहराने की कोशिश करता नज़र आता है। इसलिए इस विमर्श में शामिल हो कर भी चिंतक कम और अपने को बचाने यहां तक कि अपने को थोपने की कोशिश भर में जुटा रह जाता है। दूसरा पक्ष वो है, जो कतिपय कारणों से वैसा नहीं कर पाता, जैसा कई दूसरे कर रहे हैं, तो उसे बिलो स्‍टैंडर्ड साबित करने में तनिक भी क़सर नहीं छोड़ता और खुश होता रहता है। टीवी पत्रकारिता से जुड़े ऐसे लोगों की अपनी एक दुनिया है। हालांकि मॉनसून की फुहार इन्‍हें भी ललचाती है... चलती गाड़ी में बलात्‍कार इन्‍हें भी सताता है... भूत पिशाच के किस्‍से इन्‍हें भी डराते हैं, क्‍योंकि कई चैनलों की टीआरपी यही बढ़ाते हैं। इसलिए अपराध कथाओं से बाहर निकल कर भी उनका द्वंद्व झलक ही जाता है। टीआरपी की दरकार कहीं न कहीं उन्‍हें भी है।

दिक्‍कत यही है। जो विमर्श भारतीय टीवी पत्रकारिता को मौजूदा संक्रमण काल से निकाल कर आगे की ओर ले जाने के लिए होना चाहिए, वो टीआरपी रेटिंग्‍स और कौन किसको देख रहा के आसपास ही घूम कर रह जाता है। एक कहता है कि हम वो क्‍यों न दिखाएं, जो पब्लिक देखना चा‍हती है। जो उसमें दिलचस्‍पी पैदा करती है। और वो क्‍या करती है... मीका-राखी के चुंबन दृश्‍य। आधे-आधे घंटे का शो रन-डाउन भर भर के। कुछ ऐसी कहानियां तो दर्शकों की दिलचस्‍पी को भी आगे ले जाती है। जुगुप्‍सा जगाती है। सेक्‍स आखिर जीवन का मूल है। फ्रायड ने भी कहा और ओशो का तो पूरा दर्शन ही उस पर आधारित है। सेक्‍सी कहानियों से दर्शकों को लुभाने की कोशिश एक तरफ, तो भूत-पिशाच और ख़ौफ़ दिखा कर दर्शकों को बांधने की कोशिश भी उसी तरफ।

दूसरी तरफ क्‍या है। बड़े लोगों की रातों की रंगीनियां। चिल आउट। सेक्‍स यहां भी है। लेकिन हर रन डाउन में नहीं। रिफाइंड तरीक़े से। तहज़ीब के साथ।

भूत-पिशाच, सेक्‍स अपराध और फिल्‍मों की मायावी दुनिया इन सबको निकाल दें तो 24 घंटे के न्‍यूज़ चैनलों में आख़िर बचता क्‍या है। कुछ राजनीति ख़बरें, जो नेताओं के बयानबाज़ी से आगे कभी कभार ही बढ़ पाती है। कुछ क्रिकेट और फुटबॉल का जुनून। कई सारे स्‍पोर्ट्स चैनल शायद ज़्यादा बेहतर दिखाते हैं। कुछ धर्म की बातें, जो आस्‍था और संस्‍कार के साथ भी आप देख सकते हैं।

टीवी चैनलों में इधर काफी कुछ बदलाव भी देखने को मिल रहे हैं। दर्शकों का सेगमेंटेशन हो चुका है। जिस तरह 90 के दशक में राष्‍ट्रीय अख़बार भी स्‍थानीय परिशिष्‍टांक निकालने को बाध्‍य होते गये ताकि हर इलाक़े के लोगों को उनकी बात मिल सके। उसी तरह टीवी भी इस दिशा में आगे बढ़ा है। लोकल चैनल आये हैं गली मोहल्‍ले की ख़बर लेकर। नालों में डीडीटी का छिड़काव हुआ या नहीं, खुला मेनहॉल बंद किया गया, आवारा पशु को बाड़े में डाला गया या नहीं। इस तरह की विषय-वस्‍तु के साथ वे अपने मोहल्‍ले के लोगों को लुभा भी रहे हैं। फैशन शो, गृहणियों के लिए पकवान प्रोग्राम, स्‍कूली बच्‍चों के वाद-विवाद प्रतियोगिता का पुरस्‍कार वितरण समारोह- ये सभी इसके हिस्‍से बन रहे हैं। बड़े चैनलों ने भी ऑप्‍ट आउट और एनसीआर चैनल के ज़रिये स्‍थानीयता को समेटने की कोशिश की है। उनमें लगे संसाधन और उनसे मिल रहे नतीज़े भी उनके लिए उत्‍साह बढ़ाने वाले हो सकते हैं। ये एक नया टीवी है और इनका एजेंडा नेशनल नेटवर्क वाले चैनलों से अलग हो सकता है। लेकिन नेशनल नेटवर्क मौजूदा आपाधापी की पत्रकारिता से कब आगे बढ़ेगा।

एक उम्‍मीद भी बंधती है। ये सब बदलेगा। तुरंत न सही कुछ साल में। इसके लिए कई सोच समांतर रूप से चल रही है। वो सोच अभी की व्‍यवस्‍था को तोड़ उससे अलग राह बना पाने में बेशक अभी क़ामयाब नहीं हो पा रही हो, लेकिन वो लगातार जारी है। वो सोच फिलहाल मौजूदा हिंदी टीवी पत्रकारिता में ही शामिल है। अलग-अलग तरह की ख़बरों के खले में शामिल रह कर वो इसके गुण दोष पर लगातार चिंतनशील है। ये वो सोच है जो ख़बरिया चैनलों की शुरुआत के साथ ही उससे जुड़ा... बहुत ऊंचे नहीं... निचले स्‍तर पर। जिसका वास्‍ता पिछले कई साल से लगातार फील्‍ड से है। वो डेढ़-दो मिनट की ख़बर कर कर के बोर होने लगा है। कुछ स्‍पेशल स्‍टोरीज़ भी की। कई ने बड़ा इंपैक्‍ट भी छोड़ा। गंभीर होने के बाद भी दर्शकों ने देखा और सराहा। लेकिन ये भी कहीं न कहीं टीआरपी जुगाड़ने की रणनीति बनाने में लगे रहने वाले नी‍तिकारों की मांग के मुताबिक... उनकी ज़द में फंसा नज़र आने लगा है।

दो रास्‍ते बचते हैं। या तो दर्शकों की फैंटेसी, उनके भीतर के डर, उनकी लालसा या कुछ स्‍तर पर कह सकते हैं कि उनकी कुंठा का फायदा उठाते हुए आगे बढ़ा जाए... या फिर वाकई में उनके वास्‍तविक सरोकारों वाले मुद्दों को ही फोकस में रखा जाए। दिक्‍कत ये है कि पब्लिक से जुड़ा एक गंभीर मुद्दा एक के लिए मायने रखता है, तो दूसरा उसमें कोई दिलचस्‍पी नहीं लेता।

उसे इस बात का भी भान है कि ख़बर के साथ साथ टीआरपी भी ज़रूरी होगा। मार्केटिंग और मैनेजमेंट के लिहाज़ से। शायद उसके बिना लंबे समय तक सस्‍टेन करना मुश्किल होगा।

4 comments:

Soochak said...

टीवी को विचार देने से वो बदलने से रहा। ये काम जारी है। सामाजिक और सरोकारीय विश्लेषणों की कोई तव्वजो नहीं है बंधु। खैर आपका ब्लाग देखकर खुशी हुई। पर पहाड़ों का राग जैसा अनोखापन रहे तो चोखा लगेगा।

Sanjeet Tripathi said...

खुशी हुई उमाशंकर जी आपको यहां चिट्ठाजगत में देखकर।
शुभकामनाएं

उमाशंकर सिंह said...

शुक्रिया संजीत जी। दरअसल आपकी प्रतिक्रिया यहां दिखने में इसलिए वक्त लगा क्योंकि हमारी लेखनी को पढ़ने वाले कई फालतू फंड के लोग अनर्गल बातें लिख देते हैं। लिहाज़ा मुझे गेटकीपर बिठाना पड़ा है ताकि यहां सिर्फ संजीदा किस्म के लोगों के बीच ही संवाद हो सके। उम्मीद है आप मेरे लिखे को महसूस कर सकेगें। शुभकामना के लिए शुक्रिया।
- उमाशंकर सिंह

Anonymous said...

i am pushpa a journalist in a magazine. i read your article t.v chitan like it. after reading this article felt that you have a deep corner for journalism.it,s fact every channel is chasing for trp and publicity staunts that it. the leve of news stories is decreasing say day.