(क़रीब एक हफ्ता रहने के बाद कल रात ही पंजाब से लौटा हूं। डेरा सच्चा सौदा- सिख संगत विवाद को लेकर जो वहीं महसूस किया आपके सामने रखने की कोशिश कर रहा हूं। कोई ग़लती हो तो कृपया ध्यान दिलाएं)
धर्म के नाम पर जितनी तरह की दूकानदारी अपने देश में होती है कहीं और नहीं होती होगी। पंजाब का डेरा विवाद इसी का उदाहरण है। डेरा सच्चा सौदा की शुरुआत 1948 में हुई और कहते हैं कि इसलिए हुई क्योंकि कुछ जातियों के सिखों को गुरुद्वारे में अलग दरवाज़े से जाना पड़ता था। इससे उनका मानमर्दन होता था। फिर रामदासियों के अलग गुरुद्वारे बने और डेरा बसने शुरु हुए। और अब जब डेरा प्रेमियों का आधार मज़बूत हो गया... वे अपने अलग अस्तित्व के साथ उठ खड़े हुए तो कईयों को यही बात खलने लगी। जब खूब सारे लोग जुड़े तो वे वोट बैंक की तरह भी लिए जाने लगे। कट्टरपंथियों की दुत्कार झेल पनपा-पला-बढ़ा ये समूह कांग्रेस के नज़दीक गया। अकाली भी मिलने और आशीर्वाद लेने गए। लेकिन पिछले चुनाव में भी डेरा ने हाथ का साथ दिया। पर सरकार अकाली की ही बनी तो डेरा प्रमुख से राजनीतिक रंजिश उभरना स्वाभाविक ही था।
डेरा प्रमुख ने भी मौक़ा दे दिया। ऐसी वेशभूषा धरी कि अकालियों ने निशाने पर ले लिया। लोगों की भावना भड़कायी गई। अपने बड़प्पन या घटना की जानकारी की कमी के चलते जिन्हें भी पता नहीं चलता उनके मन में ये बात बैठाने की कोशिश हुई कि देखो सिख धर्म ख़तरे में है। एक बाबा ने ऐसा चोगा धरा कि गुरु गोविंद सिंह जी की जगह लेने की कोशिश कर रहा है। तलवारें निकल आयीं। डेरेवालों ने भी मोर्चा संभाल लिया। सिख संगत के कुछ शिरोमणी कहते हैं कि माफी मांगो... डेरा कहता है क्यों मांगे... अकाली कहते हैं फिर डेरा खाली करो... प्रेमी कहते हैं हमारे सब्र की परीक्षा मत लो... टूट गया तो भारी पड़ेगा।
इस स्टैंडआॅफ के पीछे देखें तो क्या है। क्या कुछ वैसा ही नहीं कि जिस तरह से हिंदू धर्म में हरिजन-दलित-आदिवासी को मंदिर में घुसने की इजाज़त नहीं होती... छूआछूत के शिकार होते हैं कि ईसाई जैसे धर्म की तरफ रुख करते हैं। फिर हिंदूवादी पार्टी का दंभ भरने वाली बीजेपी जैसी पार्टी कहती है कि हिंदू धर्म पर हमले हो रहे हैं... अरे जब जातीय सर्वोच्चता के दंभ में समाज के एक वर्ग को रौंदा जाता है उनकी भावनाओं को मारा जाता है तब आप झंडा लेकर क्यों नहीं खड़े होते। अकाली भी अभी जगे हैं। जगे भी नहीं बल्कि अपनी नाक बचाने की कोशिश में हैं।
पंजाब के कई गांवों से जानकारी मिल रही है कि वे डेरा प्रेमियों पर दबाव बना रहे हैं कि वे दूबारा सरोपा लेलें। सिख धर्म की मुख्यधारा में वापस आ जाएं। पर वे आपकी धारा से कटे ही क्यों? जिसको आप डेरा प्रमुख की दूकानदारी बता रहे हैं तो उसकी दूकानदारी चली ही क्यों? क्योंकि धर्म के आपके शोरुम समाज के एक तबके को बेसमेंट में धकेल दिया गया था। वहां घुटन होती थी उनको। जिसने थोड़ा प्यार जताया वे उसके हो लिए। अब आपको खल रहा है। आप डेरा बंद करने की ज़िद कर रहे हैं। आप भ्रम में जी रहे हैं। मैं लिख के देता हूं डेरे खाली नहीं होगे। 25 के 25 बने रहेगें। और भरेगें। मैंने पंजाब के कुछ दिनों के दौरे में डेरा प्रेमियों की आंखो में वो चिंगारी देखी है जो तलवारों पर भारी पड़ेगी। सालों की उपेक्षा के बाद अपनत्व का जैसा भी अहसास जिससे भी उन्होने पाया वे उसके हो लिए हैं। आप काटने कटने की बात करेगें तो वे भी मैदान नहीं छोड़ेगें।
विवाद का एक दूसरा पहलू है डेरा प्रमुख पर लगे आरोप। लड़की की आबरू से खेलने और एक पत्रकार समते कईयों की हत्या... आरोप तमाम है... सीबीआई जांच चल रही है। मामला कोर्ट में है। 5 साल से ज़्यादा हो रहे हैं असलियत सामने आयी नहीं है। जांच में भी राजनीति देखी जा रही है। कौन सच्चा है कौन झूठा ये अदालत तय करेगा... ये दलील भी अपनी जगह है। लेकिन डेरा प्रेमियों के लिए डेरा प्रमुख लगे आरोप मायने नहीं रखते हैं। उन्होने तो अपने गुरु को हर हाल में स्वीकारा है। इसलिए क्योंकि आपने सालों तक समाज के इस हिस्से को दुत्कारा है। पहले जिन्हें स्वीकारा नहीं अब उन्हीं का असरदार अस्तित्व आपको डरा रहा है।
किसी के लिए आस्था पनपायी या घटायी नहीं जा सकती जबतक कि उसके लिए माहौल ना बनाए जाए। वो माहौल आप डर दिखा कर नहीं पैदा कर सकते है। उनकी तरफ हाथ बढ़ा कर ही बना सकते हैं। 70 साल में जो दूरी बढ़ी है उसे कम करने में हो सकता है कि 140 साल लगें। लेकिन राजनीतिक पार्टियां तो अगले चुनाव से आगे का सोचती ही नहीं। तो ऐसे में चाहे मौजूदा स्टैंआफ किसी एक पक्ष के नरम पड़ जाने या दूसरे के झुक जाने से ख़त्म हो जाए... पर समाज का जो विभेदीकरण हो चुका है जो ख़त्म नहीं होगा।
1 comment:
धरम के धतकरम सिर्फ धरम के धन्धेबाजों और भरे पेट की उछलकूद है.
काश इस धरती पर कोई धरम होता ही नहीं.
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