Wednesday, November 14, 2007

महंगाई मार रही पाकिस्तान को

कल अंडा खरीदने निकला. सोचा लाहौर में यहाँ के बाशिंदों की तरह खरीदारी की जाए. दिल्ली में अक्सर अंडा मैं ही खरीदता हूँ. उसी से महंगाई का अंदाजा लगाता हूँ. मसलन २० रूपये दर्जन से जब २४ रुपये दर्जन हो गया तो लगा महंगाई बढ़ गयी है. लेकिन फैजान जनरल स्टोर में तो पैर तले की ज़मीन ही खिसक गयी. अंडा ५० रूपये दर्ज़न! ६ अंडे लिए. वापस गेस्ट हॉउस पहुँचा तो स्टाफ हैरान. आपने अंडे क्यों खरीदे? क्या हम आपको ठीक से खाना नही देते? मैंने समझाया नहीं. ऐसी बात नहीं. कई दिनों से सुन रहा था कि पाकिस्तान में महंगाई बहुत बढ़ गयी है. सो आम ज़रूरत की चीजों का भाव देखना चाहता था.

इतना सुनते ही नवीद बोल पडा... सर.. महंगाई का मैं बताता हूँ. पिछले १८ दिनों से हम आपको बनी बनाई रोटी बाहर से मंगा कर खिला रहे थे. आज आपको पहली दफा गेस्ट हॉउस में ही बनी ताज़ा रोटी खिलाऊंगा. क्या करते. आटा मिल ही नही रहा था. आज मिला है. जो १२ रूपये किलो मिलता था २८ रूपये मिला है. कीमतें और तेज़ी से चढ़ रही है....

आज सुबह जैसे ही उठा.. इक स्टाफ ने बड़ी उत्सुकता से जानकारी दी. सर... आज अंडा ५७ रूपये दर्जन हो गया है!

Monday, November 12, 2007

मुश्किल मुहाने पर पाकिस्तान

अगला एक-दो दिन पाकिस्तान के लिए अहम साबित हो सकते हैं. बेनजीर लाहौर में हैं और १३ नवम्बर यानी कल सुबह वो इस्लामाबाद तक की प्रस्तावित लॉन्ग मार्च शुरू करेगी. हालांकि सरकार रोकने की कोशिश करेगी. देखना यही है की बेनजीर अपने मकसद में कामयाब होती है या सरकार. वैसे सियासी हालात पर नज़र रखने वाले बता रहें हैं की मुशर्रफ अगले एक दो दिनों में अपनी वर्दी छोड़ सकते हैं. कुछ इसे बेहतरी के तौर पर देख रहें हैं तो कुछ मानते है की इससे हालात और ख़राब होंगे.

मुश्किल हालात में सैर-सपाटा!!!

इमरजेंसी लगने के बाद की पहली सुबह की हमारी शुरुआत भारी पलकों से हुई. पूरी रात हम सोये नही थे. बार बार फ़ोन बजते रहे. किसी को हमारी तो किसी को इस मुल्क की चिंता सता रही है. मैंने रात को ही इम्तिआज़ आलम से बात की थी. पाकिस्तान में वो ही हमारे मेजबान हैं. हमारे कई साथी पत्रकार रात को ही लाहौर लौटना चाह रहे थे. कुछ फोलो-अप और इमरजेंसी के बाद पैदा होने वाले हालात को कवर करने लिए... तो कई सुरक्षा और घरवालों की चिंता की वजह से. लेकिन इम्तिआज़ आलम साहेब ने कहा कोई चिंता की बात नही. आप लोग अपना ट्रिप जारी रखें.

४ नवम्बर की सुबह साढ़े सात बजे हम नंदना का किला और प्राचीन विष्णु मन्दिर देखने निकले. पाकिस्तान के चकवाल और झेलम जिले के इस इलाके में हमारा अनुभव अद्वितीय रहा. क़रीब ६ घंटे की ट्रेकिंग के दौरान हम पहाडों में घूमे भी...भटक भी गए...क्योंकि कोई रास्ता नही था जिस ऊंचाई तक हमें जाना था वहाँ के लिए. एक साथी उस्मान पानी की कमी से बेहोश भी हो गया. खैर, अल-बरूनी ने जिस पहाडी पर बैठ कर धरती की परिधि मापी... हम वहाँ भी पहुंचे. ये अनुभव किसी और पोस्ट में. लेकिन हमारा सारा दिन ऐसी हालत में बीता कि सभी सभी एक दूसरे को याद दिलाते रहे कि ये असल में इमरजेंसी के हालात हैं!


शाम को हम लाहौर के लिए वापस चले. रास्ते भर हमारी नज़रें बदलाव तलाशती रही. इमरजेंसी के पहले और बाद के बदलाव. पर वो कहीं नज़र नही आ रहा था. लोग जो पहले बातें करते नज़र आते थे... वो अब फुसफुसाते नज़र आने लगे. लेकिन ये अभी तो नज़रों का धोखा है. इमरजेंसी लगाए जाने के बाद चीजों को देखने के नजरिये में फर्क आ जाना स्वाभाविक हैं. यहीं ज़रूरत बैलेंस मेंटेन करने की होती है... जो आप सोच लेते है और जैसा आपको लगने लगता है उसके, और जो वाकई में हो रहा होता है उसके बीच. कई बार आप सही होते हैं...कई बार आप बह जाते हैं. बहना मुनासिब नही.


रात क़रीब ८ बजे हूँ लाहौर पहुंचे. गाइड को छोड़ने के बाद हमें सीधे जिन्ना हॉस्पिटल जाना पडा. नेपाल से आयी पत्रकार रोजिना का बदन अकड़ने लगा था. उसे भर्ती करना पड़ा. यहाँ से निकल कर हम अपने ठौर पर पहुंचे. अपने उसी पुराने कमरे में मैंने ने नई निगाह मारी. हरेक चीज़ एक नए लुक में नज़र आ रही थी. जानकारी मिली कि पिछली रात ही यहाँ की एन्क्येरी हो चुकी है. उसके बाद इमरजेंसी की दूसरी रात कई तरह के ख्यालों में कटी.

तीन पत्रकार पाकिस्तान से निकाले गए

तीन पत्रकारों को पाकिस्तान से निकाल दिया गया है. ये ब्रिटेन के पत्रकार हैं और द टेलीग्राफ के लिए काम करते हैं. आरोप लगाया गया कि अखबार के सम्पादकीय में इन्होने पाकिस्तान और इसके लीडरशिप के लिए गाली वाली भाषा इस्तेमाल की. Isambard Wilkinson, Colin Freeman and Damien McElroy नाम के ये पत्रकार इस इमरजेंसी के बाद पाकिस्तान से निकाले जाने वाले पहले विदेशी पत्रकार हैं. पाकिस्तान के डेप्युटी इन्फोर्मेशन मिनिस्टर तारिक अजीम ने बीते शुक्रवार को ही इन्हे ७२ घंटों में देश छोड़ने का आदेह सुनाया था.

पाकिस्तान सरकार के इस कदम को पत्रकारों के सबसे बड़े संगठन वर्ल्ड प्रेस ने 'असहिष्णुता भरा और कानून के बहाली व लोकतंत्र की जल्द वापसी के अंतराष्ट्रीय भरोसे को ख़त्म करने वाला करार दिया है.

Saturday, November 10, 2007

खामोशी... तूफ़ान के पहले या बाद की?

(पाकिस्तान की मौजूदा हालत पर मेरा ये आलेख कल यानी ९ नवम्बर के दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हो चुका है. इसे मैं यहाँ अपने ब्लोगर साथियों के लिए पेश कर रहा हूँ)

ना तो पत्थर चल रहे हैं... ना ही टायर जलाए जा रहे हैं. ना ही पुलिस घेरे को तोड़ने की कोशिश में लाठी खाता... आंसूगैस में आँखें जलाता जनसैलाब ही. सड़कों पर लोग हैं... पर अपने अपने काम से. कुछ इलाके को छोड़ दें तो... सुबह ज़िंदगी की शुरुआत वैसी ही हो रही है जैसे पहले होती थी. शाम को लोग अपने घरों को वैसे ही लौट रहें हैं. लाहौर के फ़ूड स्ट्रीट में खाने के शौकीनों की भीड़ भी कम नही हुई है. मुल्क में इमरजेंसी लगने के बाद आम ज़िंदगी में सतही तौर पर कुछ भी बदलाव नज़र नही आता. लेकिन इस सच को पाकिस्तान का पूरा सच मन लेना यहाँ की समस्या के बहुआयामी चरित्र से मुंह चुराना होगा. ग्वालमनडी स्ट्रीट में अपनी पत्नी और ४ बच्चों के साथ खाना खाने आए ४५ साल के मोहम्मद शफीक साफ करते हैं कि हैं कि हालात कोई नए नहीं बने हैं. सियासी मुश्किलातें पहले भी आती रहीं हैं इसलिए आदत सी पड़ गई है. फिर अपने शौक-मौज को कब तक दफ़न करते रहें!

दुनिया भर के टीवी चैनलों पर आज कल पाकिस्तान की जो तस्वीरें दिखायी जा रही हैं... वो भी पाकिस्तान का सच है. लेकिन वो टुकडों में है. विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं...लेकिन छिटपुट तौर पर. वकीलों- जजों, एनजीओ-मानवाधिकार संगठनों, पत्रकारों पर कार्रवाई हो रही है. किसी की गिरफ्तारी होती है तो सीधी ख़बर आती है. यहाँ दिए जा रहे बयानों में इमरजेंसी से लड़ने की बात की जा रही है. लेकिन फिलहाल वो असर छोड़ पाती नज़र नही आ रहीं.

क्यों है ऐसा? वजह कई हैं. टीवी न्यूज़ चैनल बंद पड़े है. लोगों तक सीधी ख़बर नहीं पहुँच रही. अख़बार अगले दिन सुबह ही मिल पाता है. जानकारियाँ दूसरे देशों से होकर आ रहीं है. इसलिए छोटी-छोटी कोशिशें बड़े आन्दोलन का रूप नही ले पा रही. पंजाब यूनिवर्सिटी के एक छात्र की राय है कि जिया-उल-हक के वक्त से ही छात्र संघों को पनपने नही दिया गया. लिहाज़ा देश की सियासत तय करने में छात्र आन्दोलन की कभी कोई भूमिका बन ही नही पायी. मौजूदा वक्त में नौजवान भी खामोश हैं क्योकि उनका अपना कोई नेतृत्व नही है...और अगर छात्र-नौजवान उदासीन हों तो बड़े आन्दोलन की उम्मीद बेमानी है.

मुखालफत करने वाले वकीलों को बड़ी तादाद में अन्दर कर दिया गया है. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और एनजीओ से जुडी कई हस्तियों को या तो जेल भेज दिया गया है या फिर उनके ही घर में नज़रबंद कर दिया गया है. इनमें अस्मा जहाँगीर भी हैं और इस्लामाबाद बार असोसिएशन के प्रेसिडेंट एतेजाज़ अहसन भी. . किसी को लाहौर से अर्रेस्ट किया जाता है तो ३०० किलोमीटर दूर बहावलपुर जेल ले जाया जा रहा है. बहावलपुर से उठा कर फैसलाबाद. ऐसे में नेतृत्व और आक्रोश छितर से गए हैं. राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले एक शख्स... जो अपना नाम नही देना चाहते...कहते हैं कि जिस तरह से सारी बदोबस्ती की गयी है... तैयारी काफी पुरानी लगती है...हलक से आवाज़ निकालने का किसी को मौक़ा ही नही मिला.

दूसरी तरफ़, राजनीतिक दल अपनी साख खोये नही तो कम तो कर ही चुके हैं. नवाज़ शरीफ देश लौटने की लड़ाई में ही फँसे हैं. आवाम के सामने विकल्प ज़्यादा हैं नहीं. आठ साल बाद मुल्क लौटीं बेनजीर लोगों से लगातार अपील कर रहीं हैं कि सड़क पर उतारें. लेकिन उनकी बात असरदार साबित नही हो रही. उन पर ख़ुद जेन. मुशर्रफ से अंदरूनी तालमेल का आरोप लगा हुआ है. ओल्ड रावियन ऐसोसिअशन के नाविद बलोच का कहते हैं कि ऐसे में उनपर भरोसा करना मुश्किल है. १८ अक्टूबर की खूनी रैली से लोग अब तक उबर नहीं पाये है. नाविद आगे कहते हैं कि जेहन में सवाल है कि जान दे तो किसके लिए? उनके लिए जो सैनिक शासन ख़त्म करने के नाम पर उससे ही समझौता कर बैठे हैं?

हालांकि बेनजीर ने इमरजेंसी को मार्शल ला जैसा करार दिया है. वो मुशर्रफ के इस क़दम के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद कर रहीं हैं. लेकिन वो आवाम के कानों में गूँज नही पा रही. लाहौर के एक कारोबारी कहते हैं कि जिनको सत्ता चाहिए वो बैठ कर तक़रीरें करे तो आवाम सड़क पर जान क्यों लड़ाए! बेनजीर को अपनी सुरक्षा का भी खतरा है. इसलिए उन्हें सड़क पर कदम फूंक-फूंक कर रखना होगा. उन्होंने १३ नवम्बर को लाहौर से इस्लामाबाद तक लॉन्ग मार्च और करने और रोके जाने पर धरना देने का फ़ैसला किया है. पीपीपी के कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी तो हो रही है. लेकिन बकौल एक राजनीतिक कार्यकर्ता... उनमें चिंगारी जैसी बात नज़र नहीं आ रही आ रही.

यहाँ के अखबारों में रूलिंग पाकिस्तान मुस्लिम लीग के प्रेसिडेंट शुजात हुसैन का उम्मीद से भरा बयान है कि इमरजेंसी ३ हफ्ते में हट जायेगी. जेन. मुशर्रफ भी साफ कर रहे हैं कि इमरजेंसी लंबे टाइम के लिए नही है...लेकिन सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले से पहले नहीं हट सकता जो उनके प्रेसिडेंट होने के वैधानिकता पर आनी है. इसमें ६ महीने से साल भर तक का समय लग सकता है. ज़ाहिर है... सभी अपने वक्त के हिसाब से चल रहे हैं.

वैसे ऊम्मीदें टूटी नहीं हैं. छोटी-छोटी मीटिंग्स हो रहीं हैं. बुधवार को लाहौर में एडिटर स्तर के पत्रकारों की मीटिंग हुई. मीडिया पर कई तरह की पाबंदी है. आवाज़ दबाने की कोशिश की कोशिश के खिलाफ वर्किंग जर्नलिस्ट कमर कस रहे है. चैनल बंद रहने की हालत में बड़े-बड़े स्पीकर के ज़रिये ख़बर बांचने की योजना बन रही है. लाहौर प्रेस क्लब पर टीवी स्क्रीन लगाने की भी बात हो रही है. अखबार मालिकों को अपने व्यापारिक हित से ऊपर उठ कर आन्दोलन में साथ देने के लिए मनाया जा रहा है. जेल और पुलिस की मार के लिए कुछ पत्रकार ख़ुद को मानसिक तौर पर तैयार कर रहें हैं. पाकिस्तान के वरिष्ट पत्रकार और साउथ एशिया फ्री मीडिया असोसिएशन के प्रेसिडेंट इम्तिआज़ आलम को इमरजेंसी के पहले ही दिन गिरफ्तार कर लिया गया था. लाहौर के चार थानों में 48 घंटे तक बंद रखने के बाद रिहा कर दिया गया.

इम्तिआज़ आलम, डेली टाइम्स के एडिटर नजम सेठी और कॉलम्युनिस्ट अब्दुल कादिर हसन समेत इस मीटिंग में शामिल सभी जर्नलिस्ट्स को दुनिया के दूसरे देशों की मीडिया से साथ मिलने की उम्मीद है. अलग अलग देशों के पत्रकारों को अपने देशों में जुलूस निकलने के लिए ख़त लिखे जा रहे है. इमरजेंसी की ख़बरों को फोकस कर अभी तक दुनिया की मीडिया ने जो साथ दिया है... उसकी सराहना की जा रही है. अपने मुल्क में अपनी बात नही पहुंचा पाने की इनकी मजबूरी को इससे राहत मिल रही है. पंजाब यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स के अध्यक्ष आरिफ हमीद चौधरी को लगता है कि आखिरकार दुनिया का दबाव काम आयेगा. लेकिन वे यहाँ के पत्रकारों को भी सड़क पर उतरने की ज़रूरत पर ज़ोर डाल रहे हैं.

सबों को पता है कि ये लड़ाई एक या दो हफ्तों कि नहीं है. इमरजेंसी...मार्शल ला से पहले भी जूझना पडा है. इस बार भी लड़ाई लम्बी होने जा रही है. इसलिए आधी-अधूरी तैयारी जम्हूरियत लाने वाली साबित नही होगी.

Friday, November 9, 2007

इमरजेंसी में ब्लोगिंग : मेरी सौवीं पोस्ट

बेनज़ीर को हॉउस अरेस्ट करने की ख़बर है. रावलपिंडी जाने के सारे रास्ते ब्लाक किए जाने की भी ख़बर है जहाँ बेनज़ीर की सभा होने वाली थी. पीपीपी वर्करों को बड़े पैमाने पर पकड़े जाने की सूचना है. अखबारों में जेन मुशर्रफ का बयान प्रमुखता से छपा है कि १५ फरवरी के पहले चुनाव हो जायेंगे. अमेरिकी प्रेसिडेंट बुश का बयान भी है कि उन्होंने पाकिस्तान में चुनाव और वर्दी छोड़ने के मुत्तालिक मुशर्रफ से दो टूक बात की है. ये यहाँ के लिए उम्मीद जगाने वाला बयान है... अगर कुछ और बात सामने नही आई तो...!

यहाँ के पत्रकारों ने बाजू पर काली पट्टी बांधनी शुरू कर दी है. तब तक बंधते रहेंगे जब तक इमरजेंसी नही हटा ली जाती. नामी पेंटर और जर्नलिस्ट सलीमा हाश्मी बाजू पर भी ये नज़र आ रही है. अपने अपने हिसाब से लोग खड़े हो रहे है.

पाकिस्तान में ब्लोग्स अभी उतना लोकप्रिय नही हुआ है. लेकिन मेरे लिए ये यहाँ किसी वरदान से कम नही. जो कुछ भी यहाँ देखता हूँ, वक्त पर पोस्ट कर देता हूँ. और कोई जरिया अभी नही है. यहाँ हिन्दी सॉफ्ट-वेअर नही है. लेकिन उसका रास्ता मैंने कुछ इस तरह निकला. गूगल के ट्रांसलिट्रेशन पर जा कर रोमन में टाइप करता हूँ. वो उसे देवनागरी में बदल देता है. आप में से कई इससे परिचित होंगे. नेपाली, अफगानी, बंगलादेशी, श्रीलंकन... सारे दोस्त समझते हैं कि मैं बहुत टेक्नो-सेवी हूँ. जब बताता हूँ कि मैं कम्प्यूटर अज्ञानी हूँ टू इन्हे भरोसा नही होता.

आज दीवाली है. पाकिस्तान समेत यहाँ जितने भी मुल्क के लोग हैं सबों ने दिवाली विश. इतना सारे विश जितने दिल्ली में रहते हुए कभी नही मिले. दिल्ली में तो ज्यादातर एसऍमएस से ही लोग काम चलाते हैं.

दीवाली पर यहाँ हमें मन्दिर ले जाने का बंदोबस्त किया गया है. हालांकि मैं बहुत ज़्यादा धार्मिक प्रवृति का नही हूँ. लेकिन यहाँ मन्दिर जा रहा हूँ तो यहाँ के अल्पसंख्यकों से शायद मुलाक़ात हो जाए. देखू तो वो किस हाल में है. जैसा प्रपोगेट किया जाता रहा है वैसा या फिर बेहतर. दरअसल पाकिस्तान का ये दौरा कई मायनो में आँखें खोलने वाला साबित हो रहा है. कई सुनी-सुनायी बातें यहाँ बेतुकी साबित हो रहीं है. कई अनजान पहलू सामने आ रहें है. इनमें से ज्यादातर सुखद अनुभूति देने वाले है.

जिस गेस्ट हॉउस में ठहरें है... वहाँ शाम को दीवाली मनायी जायेगी. बंगलादेशी दोस्त फ़रहाना सुबह बहुत खुश थी कि आज दीवाली की छुट्टी होगी. लेकिन नही मिली तो दुखी है. उसे मन्दिर जाने को भी नही मिल रहा है. लिहाज़ा नेपाल के दो और इंडिया के दो, कुल चार जो हिंदू हैं लोग ही मन्दिर जा सकते हैं. खैर... सुरक्षा वजहों से ये यहाँ की स्थानीय व्यवस्था है. हम कुछ नही कह सकते.

Thursday, November 8, 2007

इमरजेंसी की पहली रात

3 नवम्बर 2007

... रात के १० बज चुके हैं. लोगों की आंखों से नींद गायब है. इम्तिआज़ उल हक टीवी सुन कर नोट्स बना रहें हैं. उर्दू के कई मुश्किल अल्फ़ाज़ों का मतलब मैं उनसे पूछते जा रहा हूँ. माहौल बोझिल हो रहा है. मैं बाहर निकलता हूँ. ताज़ा ठंढी हवा के लिए. साथ में अफगानिस्तान के पत्रकार अली अहमद शेरानी हैं.

गेस्ट हॉउस के बाहर कुछ चेहरे हमारे चेहरों को झांकते नज़र आते हैं. शायद इस उत्सुकता में कि हमारे दिमाग में क्या चल रहा है. हम जल्द ही ऊपर गेस्ट हॉउस चले आते है. ११ बजने वाले हैं. जेन. मुशर्रफ का संबोधन होने वाला है. हम रिसेप्शन की जगह एक कमरे में हैं. इस मुल्क के कई लोग हमारे साथ बैठे हैं. जेन. मुशर्रफ का संबोधन थोड़ी देर से शुरू होता है. उन्होंने जो कहा और जिस तरह से कहा उससे पूरी दुनिया ने सुना.

साथ बैठे पाकिस्तानी उदासीन हैं. इस सब से बाहा निकलना चाहते है. शेरो-शायरी का दौर शुरू होता है. सुबह ४ बजे तक चलता है. सुबह ६ बजे फिर निकलना है. आधे घंटे की झपकी के बाद सभी फिर टूथ-ब्रश कर रहे हैं. पाकिस्तान में इमरजेंसी की ये हमारी सिर्फ़ पहली रात है. कई और आनी बाकी है.

Tuesday, November 6, 2007

पाकिस्तान में इमरजेंसी की हमारी पहली रात

तारीख ३ नवम्बर 2007

....पाकिस्तानियों के लिए इमरजेंसी कोई नई बात नहीं है. इसका अनुभव इन्हे कई बार पहले भी हो चुका है. इसलिए जो भी टीवी के सामने बैठे है, उनके चेहरे को पढ़ना मुश्किल नहीं. पर जुबां खामोश हें. बीच से एक आवाज आती है...फिर १७ साल पीछे चला गया मुल्क! फिर लम्बी खामोशी. रायल टीवी अपडेट्स आ रहें हैं. गिरफ्तारियों की ख़बर है. सुप्रीम कोर्ट बार असोसिएशन के प्रेसिडेंट ऐह्तेजाज़ हसन को गिरफ्तार किया जा चुका है. कई और न्यायाधीश कार्रवाई की ज़द में हैं.

सबों को इंतज़ार हैं मुशर्रफ के संबोधन का. ख़बर आती है वो रात ११ बजे बोलेंगे.

अब तक तनाव ने अपनी जगह बना ली है. वो चेहरों पर नज़र आने लगा है. एक माँ फ़ोन पर शायद अपने बच्चे के कह रही है..." मोबाइल में बैलेंस बढ़ा लो. आटा ले आना. मैं शायद आज पहुँच न पाऊं. इस्लामाबाद से डेढ़ सौ किलोमीटर पीछे हूँ. वहाँ पहुँचने के रास्ते बंद कर दिए गए है. पर चिंता मत करना. मैं ठीक हूँ. अब्बू भी ठीक हैं..." इन शब्दों का अंतर्विरोध आप भी समझ सकते हैं. माँ को बच्चे की चिंता है. ख़ुद के लिए चिंतित होने को नही कह रही. मतलब साफ है. या तो बच्चे के लिए भी चिंतित होने की ज़रूरत नहीं...या फिर ये माँ भी सुरक्षित नहीं. बेहतर ये ही समझ सकते है.

काफी देर से मेरा मोबाइल नही बजा है. लगा कहीं बंद तो नहीं हो गया. देखा तो चालू था. पाकिस्तानी समय के हिसाब से ६ बज कर ४८ मिनट पर मुनीर जी का मैसेज था. EMERGENCY IN THE COUNTRY. अब तक सभी साथियों के फ़ोन घनघनाने लगे थे. लाहौर से सदफ के घर से फ़ोन था. घर के लोग चाहते थे कि वो आज ही लौट आए. शहराम के घर भी चिंता थी. सभी बोल-भरोस दे रहे थे. लौटने का ये सही वक्त नहीं था.

जारी...

पाक इमरजेंसी के शुरुआती लम्हें

....ये फ़ोन हमारे राजनीतिक सम्पादक मनोरंजन भारती का है. कह रहें हैं की वहाँ इमरजेंसी के हालात हो गए है. साथ में हिदायत कि अपना ख्याल रखना और जो भी करना सोच समझ कर करना.
हम एक ऐसे इलाके मैं हैं मोबाइल सिग्नल भी ठीक से काम नही कर रहा. सूचना का और कोई जरिया नहीं. अमीन ने बताया कि तमाम प्राइवेट चैनल को ऑफ़ एयर कर दिया गया है. जानकारी ये भी आ रही है कि आधिकारिक ऐलान नही हुआ है. राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ़ मुल्क को कभी भी संबोधित कर सकते हैं.

तभी दिल्ली ऑफिस से फ़ोन आया. फोनो के लिए. कार्यकारी संपादक संजय अहिरवाल एहतियात बरतने की सलाह दे रहे हैं. उनको मेरी चिंता है. जानकारी के लिए ऑफिस की मुझ पर कोई कोई निर्भरता नही. वैसे भी पाकिस्तान से निकलने वाली जानकारी सीधी और ज्यादा तेज़ी से दिल्ली पहुँच रही है. ऐसा होता रहा है.

बातें करते हुए मैं मलोड के मन्दिर की तस्वीरें भी लेता जा रहा हूँ. फीचर स्टोरी के लिए. हार्ड ब्रेकिंग न्यूज़ से अलग जो सामने हैं. ज़रूरत और मौक़ा अति-उत्साह दिखाने का नही है. खैर... शाम घनी हो आयी है. अँधेरा हो चुका है. रात लम्बी होने के आसार हैं. हम वापस कल्लर-कहार की तरफ़ चल पड़े हैं.

क़रीब घंटे भर के इस सफर में मुद्दा मुल्क के सियासी हालात का ही छाया हुआ है. थोड़ी देर पहले तक हालात अलग थे. सुबह क़रीब सात बजे जब से चले थे ततो कोई भी सियासी बात नही कर रहा था. बस में हिन्दी गाने बज रहे थे और सभी नाच रहे थे. लाहौर से इस्लामाबाद को जोड़ने वाले मोटर-वे पर बस १०० किलोमीटर/घंटे से भी तेज़ रफ़्तार से चल रही थी. पाकिस्तान के मोटर-वे की तुलना भारत के एक्सप्रेस-वे से की जा सकती है. लेकिन उससे ज़्यादा तरतीब. नियम-कायदों की ज़्यादा सख्ती. लेकिन सड़क और सियासत में फर्क होता है.

शाम के सात बज चुके हैं. हम कल्लर-कहार के गेस्ट हॉउस पहुँच चुके हैं. सारी निगाहें टीवी सेट पर जमी हैं. तमाम प्राइवेट चैनल ऑफ़ एयर है. सिर्फ़ रायल चैनल दिख रहा है.

जारी...

Monday, November 5, 2007

पाकिस्तान में जिस शाम इमरजेंसी लगी

तारीख ३ नवम्बर 2007

पाकिस्तान के चकवाल जिले के कल्लर-कहार का इलाका. हम कुछ तारीखी जगहों की सैर पर है. कटास राज मन्दिर देखने के बाद मलोड के शिव मन्दिर की ओर बढ़ रहें हैं. गाडी छोड़ चुके हैऔर पैदल जा रहें है. पथरीला रास्ता है. काँटों वाले पेड़ रास्ता रोक रहे हैं. लेकिन हम इस प्राचीन मन्दिर की तरफ़ बढ़ रहे हैं. शाम का धुंधलका छाने वाला है. हम तेज़ कदमों से आगे जाने की कोशिश कर रहें है.

तभी साथ चल रहे जियो टीवी के पत्रकार अमीन हाफिज़ के पास इक कॉल आती है. वो पूछने के अंदाज़ बोलता है. लग गयी या लगने वाली है? कन्फर्म है? अच्छा मैं पता करता हूँ... अमीन के बात करने के तरीके से मुझे लग गया कि मुल्क में कुछ सियासी हलचल हुई है. मैंने पूछा क्या हुआ. अमीन ने बताया मुल्क मैं इमर्जेंसी लग गयी है.

इससे पहले की अमीन से इस मुताल्लिक़ आगे कुछ बात हो पाती, मेरा मोबाइल भी बज उठा.

जारी....