Thursday, January 31, 2008

अज्ञेय की लिखी एक कविता

नवभारत टाइम्स पहले लघु कथाएं और कविताएं छापा करता था। पृष्ठ संख्या दो पर। उनमें कभी खलील जिब्रान की भी हुआ करती थीं और कभी अज्ञेय की भी। सालों पर पढ़ी अज्ञेय की ऐसी ही कुछ पंक्तियां अचानक याद हो आयीं। काफी असरदार हैं ये पंक्तियां।

साँप!

तुम सभ्य तो हुए नहीं

नगर में बसना भी तुम्हे नहीं आया।

एक बात पूछूँ - उत्तर दोगे?

तब कैसे सीखा डसना,

विष कहाँ पाया?

- अज्ञेय

Saturday, January 26, 2008

विनोद दुआ और बरखा दत्त को पद्मश्री सम्मान

यूं तो ऐसे सम्मान कईयों को मिले हैं। लेकिन इन दोनों को पेशेगत तौर से नज़दीक से जानता हूं इसलिए बताने का मन कर रहा है। दुआ साहब। सम्मान मिलने के थोड़ी देर बाद ही उनसे मिलना हुआ। मुझ से बातचीत में उन्होंने कहा कि जिस ज़िम्मेदारी के साथ वो नेताओं को उनका रास्ता बताते रहे हैं... सरकार को चेताते आए हैं... वो जारी रहेगा। सम्मान जनता की तरफ से मिलते रहें हैं। मिलते रहेगें। ....मतबल वही तल्खी। वही ठसक भरी पत्रकारिता। वो 34 साल से पत्रकारिता कर रहे हैं... जितनी मेरी उम्र है। उनके सम्मान में भी कुछ बोलना सूरज को दीपक दिखाने जैसा होगा।

बरखा। कश्मीर भूकंप के बाद अभी हाल ही में बरखा के साथ पाकिस्तान में साथ काम करने का मौक़ा मिला। कोई तब्दीली नहीं। काम को लेकर वही जुनून... जो आपको कभी स्टार समाचार के ज़माने में नज़र आया होगा... करगिल के एक बंकर से। हलो... मैं बरखा दत्त बोल रही हूं...! बरखा अब भी वही है। ज़िंदगी में घट रहे हरेक फ्रेम को वो कैमरे में क़ैद चाहती हैं। रिपोर्टिंग के लिहाज़ से। कुछ भी छूटना नहीं चाहिए। हर शब्द के साथ साथ उनके बीच के अन्तराल का भी अपना अर्थ होता है... लिखने बोलने में। पर साथ ही टीवी में हर फ्रेम की तस्वीर का भी अपना महत्व होता है। एक टीवी पत्रकार के तौर पर बरखा हर फ्रेम को जीतीं हैं। सेकेंड और मिनट उनके लिए बहुत लंबे होते हैं। शायद अर्थ को अनर्थ कर जाने वाले। इसलिए ज़्यादा धारदार रिपोर्टिंग कर पाती हैं। ये सम्मान शायद उनके जुनून और काम की एक स्वभाविक स्वीकारोक्ति है।

दोनों को हमारी बधाई!

Thursday, January 24, 2008

पाकिस्तान का मंदिर और आडवाणी का झूठा वादा...

पाकिस्तान यात्रा के दौरान कटासराज, मलोट और नंदना के मंदिरों को देखने का मौक़ा मिला। मंदिर क्या बस अवशेष भर बचे हैं। कटासराज के शिव मंदिर का ढांचा तो बचा है पर अंदर कुछ नहीं। मूर्ति तक नहीं है। ये वही मंदिर है जिसे हिन्दू धर्म के स्वयंभू रक्षक लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान गोद लेने की बात की थी। जो जानकारी मुझे वहां मिली उसके मुताबिक़ वे आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के लोगों को भेजने वाले थे इस मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए। पर वापस आए तो जिन्ना विवाद में फंस गए...फिर शायद भूल गए। आख़िर बड़े राजनेता हैं। ऐसी छोटी छोटी कितनी कही बातें याद रखें। और वहां कोई हिन्दू वोट बैंक की राजनीति भी तो नहीं करनी कि कहें...कसम राम की खाते हैं... इस मंदिर को बचाएंगे। यूपी बिहार का होता तो कुछ करते भी। पाकिस्तान में मंदिर की हालत खराब है तो पाकिस्तान सरकार जाने कि वो अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा नहीं कर रही। ऐसे तर्क आडवाणी जी के बचाव के हो सकते हैं।

खैर। इस मंदिर की हालत ठीक नहीं। वजह आसपास हिंदू आबादी का नहीं होना भी है। ये पाकिस्तान के चकवाल ज़िले में आता है। पवित्र ननकाना साहिब जैसे इसे भी विकसित किया जा सकता था। लेकिन इसमें अपने देश को ही बड़ा रोल निभाना होता। पर ऐसा नहीं किया गया। सबसे बड़ी बात ये है कि चाहे रख-रखाव ठीक ना हो... मंदिर की इमारतें बुलंद तो हैं... बाबरी मस्ज़िद की तरह गिरा तो नहीं दी गई हैं...। इस मंदिर का ऐतिहासिक महत्व ये है कि ये महाभारत काल की है। यहां के गाइड सलमान साहब ने हमें बताया कि पार्वती की मौत के समय जब शिव जी रोए तो जो आंसू बहे उससे पुष्कर और कटासराज दोनों जगहों पर कुंड का निर्माण हुआ। यानि भारत में जो महत्व पुष्कर का है... हिन्दू धार्मिक आस्था के लिहाज़ से वही महत्व कटासराज मंदिर का भी है। (तस्वीर में श्रीलंका की पत्रकार रुआंती परेरा और शशिका नज़र आ रही हैं...)

अगली बार.... मलोट के शिव मंदिर और नंदना के विष्णु मंदिर की बात और वहां तक पहुंच सकने की पूरी दास्तान।

...मगर शर्म मुझको आती नहीं!

मान लीजिए कि मैं एक टीवी-संपादक हूं। आज मैं अपनी कहानी सुनाता हूं। इसका पात्र 'मैं' काल्पनिक है। इसे किसी और से जोड़ कर मत देखिएगा। जिससे भी जोड़िएगा उसको अच्छा नहीं लगेगा। समानता संयोग से हो सकती है पर उससे तो बिल्कुल भी मत जोड़िएगा जिसकी ज़िंदगी मेरी इन पंक्तियों के सबसे नज़दीक लगे।

तो मैं अपने बारे में बता रहा हूं। ना तो मैं जाट की तरह क़ाबिल हूं और ना ही बनिए की तरह बुद्धिमान। मैं ठाकुर हूं। नंग-धरंग ठाकुर। दिमागी तौर पर शून्य। पर जुगाड़ों के ज़रिए सीढ़ियां चढ़ता गया। मामूली कर्मचारी से खुद-मुख्तारी की हैसियत पाल ली। आज भी कई लाईन में लगे हैं। लेकिन जब मैंने रैकेटिंग शुरु की तब वक्त कुछ और था। ये मीडियम नया-नया था। लोगों की कमी थी। अच्छे लोगों की तो और भी। पर मुझे मौक़ा मिलता गया। जहां मौक़े बंद होते दिखाई दिए अपने तिकड़मी दिमाग से मैंने नये मौक़े बना लिए। एक डाल से उछलता दूसरी डाल पर कूदता गया। नित नई दुकानें खुलती गईं और उनके ज़रिए मैं कमाता गया। जिनको मुझमें फायदा नज़र आया वो मुझ में इंवेस्ट करते गए। चाहे वो नेता हों या प्रापर्टी डीलर या किसी राज्य का सीएम। वो मुझ पर दांव लगाते गए। मेरा इस्तेमाल करते गए और मैं उनका इस्तेमाल करने की फिराक में लगा रहा।

फिर वो वक्त आया जब मिल्कियत मेरे हाथ में आ गई। कलम चलाने से ज़्यादा कुछ भी दिखाने की मिल्कियत। मैं एक टीवी संपादक बन गया। उम्र मेरी कम नहीं है। पर मेरी त्वचा से मेरी उम्र का पता नहीं चलता। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि मुझे वक्त के पहले और क़ाबिलयत के खिलाफ मौक़ा मिला। क्रेडिट गोज़ टू माई एब्लिटी ऑफ रैकेटिज़्म। सेल्फ प्रमोशन। दूसरों की ज़रुरत को समझते हुए अपने को पेश करने की, अपने को सेल कर पाने की क़ाबिलियत।

तो मैं टीवी संपादक बन गया। नहीं बनता तो कहीं अंडा भुर्जी बेच रहा होता। बगल के दुकानदारों से अपनी दुकादारी ज़्यादा चमकता। बिल्कुल सफाई के साथ... और अब तक साउथ दिल्ली में एक रेस्टोरेंट का मालिक बन चुका होता। पर क्योंकि मैंने ये पेशा अपनाया तो मैं संपादक ही बन सकता था। सो बन गया। अब मैं कुछ भी दिखा सकता हूं। किसी के बेडरुम से लेकर फर्ज़ी सेक्स रैकेट तक। मेरे जैसे और भी कई हैं जो सी़ढियां चढना चाहते हैं। इंटर्न से रिपोर्टर...रिपोर्टर से सीधे संपादक बनना चाहते हैं। बिना सैलरी के काम करने को तैयार हैं। कमा वो बाहर से लेते हैं। उनका स्टिंग दिखाने के काम आ जाता है।

हालांकि रिपोर्टर के तौर पर मेरी शुरुआत इतनी धमाकेदार नहीं रही थी। पर संपादकत्व की ओपनिंग अच्छी रही है। लोग जानने लगे हैं। मेरा इंटरव्यू भी छपने-दिखने लगा है। पत्रकार के तौर पर कभी किसी से खुद क़ायदे का सवाल नहीं पूछ पाया। इसलिए अब कोई मुझे क़ायदा समझाता है तो समझ नहीं आता। कभी अपना बचाव कर लेता हूं तो कभी दूसरों की ग़लतियां गिना अपने किए को जस्टिफाई करने की कोशिश करता हूं। निजी बातचीत में कहता हूं बदनाम हुए तो क्या... नाम तो ही ही रहा है ना। नहीं तो अबतक कौन पहचानता था मुझे। और अब पहचान भी गए हैं तो कौन क्या बिगाड़ लेगा। जिसका बिगाड़ना था मैंने बिगाड़ दिया। जनमानस को भड़का दिया। मेरी असलियत खुल ही गई तो क्या। पब्लिक थोड़े ही मुझे पीटने आएगी। वैसे भी पब्लिक मेमोरी शार्ट टर्म होती है। कल कुछ और दिखा देंगे। पुलिस वाले मेरा क्या बिगाड़ेंगे। मैं प्रेसवाला हूं। यक़ीन ना हो तो मेरी गाड़ी के आगे पीछे के शीशे पर लिखा देख लीजिए। शर्ट एक रुपये में प्रेस करता हूं और पैंट डेढ़ रुपये में। किसी की करवानी है तो आप भी संपर्क कर सकते हैं। रिपोर्टर बनाने की गारंटी मेरी।

मुझसे सामाजिक ज़िम्मेदारी की उम्मीद रखने वाले सावधान। मैं टीवी संपादक पहले हूं। मुझे अपनी दुकान चला देनदारों का ऋण चुकाना है। 'मेनस्ट्रीम मीडिया' को बेशक मुझसे घिन आती हो। पब्लिक अब बेशक छी छी कर रही हो... पर शर्म मुझको आती नहीं। आपको आती हो तो जा.. खुशी से खुदकुशी कर ले...

Wednesday, January 23, 2008

ज़्यादातर हिन्दी ब्लॉगर सिर्फ लिखने के लिए लिखते हैं...

आई एम सॉरी। पर ये सच है। ज़्यादातर हिन्दी ब्लॉगर सिर्फ लिखने के लिए लिखते हैं। चाहूं तो कई ऐसे ब्लॉग या पोस्ट के लिंक लगा सकता हूं जिससे ये साबित कर सकूं। पर नहीं चाहता। एक तो इतनी उर्जा खर्च करना और दूसरा, उनको लाल कपड़ा दिखाना...। कई उदाहरण तो अपनी पोस्ट पर आए कमेंट से दे सकता हूं। मैंने क्या लिखा, बिना उसकी प्रकृति जाने टिप्पणी कर दी गई... 'बहुत खूब...ऐसे ही लिखते रहिए', जबकि उस पोस्ट के ज़रिए मैं अपने ब्लॉगर साथियों से कुछ जानना चाहता था। कुछ सुधार चाहा था। अरे भई... अरे पढ़ने का वक्त नहीं है तो मत पढ़ो... पर कम से कम बिना पढ़े टिप्पणी तो मत करो! टिप्पणी के ज़रिए फीड बैक का इंतज़ार सभी ब्लॉगरों को रहता होगा... मुझे भी... लेकिन ऐसी बेतुकी बातों का नहीं। और सिर्फ एक उदाहरण के ज़रिए मैं कोई संदेश नहीं दे रहा। बल्कि ऐसा कई मौक़ो पर देखा है। कईयों के ब्लॉग पर।

आप किसी अच्छे अंग्रेज़ी पोस्ट को उठा कर देख लें। कमेंट्स की लाईन लगी होती है... क्यों? क्योंकि वहां अच्छा लिखने वाले पढ़ते भी हैं और अच्छा पढ़ने वाले लिखते भी हैं।

अब आप में से कईयों की बारी है। वो पूछ सकते हैं कि मैं कितने कमेंट्स देता हूं। बहुत कम। क्यों? क्योंकि ऐसा कम ही लिखा मिलता है जिस पर कमेंट करने का दिल करे।

तार्किक प्रत्युत्तरों और इमोशनल आउटब्रस्ट्स के इंतज़ार में

आपका

सर्दी दूर करने का मेरा तरीक़ा!

सही में कंपकपा देने वाली है इस बार दिल्ली की सर्दी। टीवी पर सुनता हूं तो और सर्दी लगती है। इस सर्दी को काटने के लिए पूरे उत्तर भारत के लोग तरह तरह के इंतज़ाम कर रहे हैं। कोई अलाव सेंक रहा है तो कोई लिहाफ से बाहर नहीं निकल रहा। मैंने भी सर्दी कम करने के लिए एक तरीक़ा निकाला। पुराने एल्बमों से सात आठ साल पहले की तस्वीरें निकालीं। कश्मीर में बर्फबारी के दिनों की। जब मैं वहीं हुआ करता था। बर्फ के बीच काम करता। बर्फ के बीच खेलता। मज़ा आता था। कभी गुलमर्ग में विंटर टूरिज़्म पर स्टोरी करता तो कभी सोनमर्ग स्नो पर वाइल्ड लाईफ के पदचिन्हों का पीछा करता उनकी तस्वीर उतारने की कोशिश करता, या फिर कभी मच्छोई ग्लेशियर पर जाकर विंटर वार फेयर ट्रेनिंग पर डॉक्युमेंटरी बनाता। एक बार तो जोज़िला दर्रे पर -15 डिग्री सेल्सियस पर नंगे बदन फोटो खिंचवाने की ज़िद कर बैठा। खिंचवा भी लिया। दिखा नहीं सकता। लेकिन कुछ तस्वीरें आपके सामने कर रहा हूं। शायद इसे देख कर सर्द इलाक़ों में रहने वाले साथियों की सर्दी भी कुछ कम हो जाए!

Wednesday, January 16, 2008

पाकिस्तान और पीपुल्स पार्टी का भविष्य

(31 जनवरी को अमर उजाला में प्रकाशित)

पाकिस्तान में चुनाव की एक और तारीख नज़दीक आ रही है। 18 फरवरी। क़रीब महीने भर बचा है। बेनज़ीर भुट्टो की हत्या के बाद जो फोकस शिफ्ट हो गया था वो दुबारा फोकस में आने लगा है। हालांकि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का चुनावी अभियान उस तरह से शुरु नहीं हुआ है जैसा बेनज़ीर ने आगाज़ किया था। पार्टी अभी भी सदमें में है... और शायद इस मनोभाव में भी कि अब वर्करों को ज़्यादा कुछ करने की ज़रुरत नहीं। मौत से उपजी सहानुभूति ही सब कुछ कर देगी। प्रधानमंत्री पद के लिए पार्टी के घोषित उम्मीदवार मकदूम अमीन फहीम पुराने और मंजे हुए नेता है। मुल्क की राजनीतिक नब्ज़ की उन्हें पकड़ है। लेकिन बेनज़ीर के नहीं रहने से पार्टी में संगठनात्मक कमज़ोरी आयी है इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। बिलावल ज़रदारी के नाम में भुट्टो जोड़ कर चेयरमैन बना तो दिया गया है लेकिन हाल ही में लंदन उन्होने दुबारा साफ कर दिया है कि सक्रिय राजनीति में आने का उनका कोई इरादा नहीं है। पहले पढ़ाई है। ऐसे में पार्टी गतिविधियों की कमान आसिफ ज़रदारी के हाथों में है। बेशक बेनज़ीर की वसीयत के हवाले से उन्होने पार्टी की कमान संभाली हो। लेकिन उनके सांगठनिक क्षमता पर कई सवाल हैं। पार्टी को एकजुट दिखना अभी वक्त की जरुरत है। इसलिए बेनज़ीर की राजनीतिक विरासत और नए नेतृत्व को लेकर कोई अभी सवाल नहीं उठा रहा। न भुट्टो परिवार में और ना ही पार्टी में। लेकिन राजनीतिक विरोधियों को तो मौक़ा मिल ही गया है। तहरीक़े इंसाफ पार्टी के अध्यक्ष इमरान खान के मुताबिक, ‘ये वो टाइम था जब पीपुल्स पार्टी को भुट्टो परिवार के साए से निकल जाना चाहिए था... ज़रदारी साहब पर खुद भ्रष्टाचार के इतने आरोप हैं कि वो तन कर चुनौती दे पाने की हालत में नहीं हैं।’

पार्टी में आसिफ ज़रदारी, मकदूम अमीन फहीम और मुल्तान के मोहम्मद युसुफ रज़ा गिलानी समेत तीन वरिष्ठ सलाहकारों के अलावा पांच और सलाहकार भी बनाए गए हैं। लेकिन मकसद संगठन को मज़बूत करने से उतना नहीं जितना इलाक़ाई संतुलन बनाने का। कहीं सिंध के नेताओं का दबदबा दिखने से बलुचिस्तान और पंजाब की ईकाईयां ना नाराज़ हो जाएं। फाटा समेत सीमांत इलाके में वैसे ही पीपीपी की पैठ कमज़ोर है। पार्टी में अब कोई करिश्माई नेतृत्व नहीं है। और हालात भी ऐसे हैं कि बड़ी चुनावी रैलियों की गुंजाइश नहीं बची। बेनज़ीर के मारे जाने के बाद दहशत का जो माहौल बना है उसने राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए करने को कुछ ज़्यादा नहीं छोड़ा है। चुनाव की तारीख आगे बढ़ जाने से हिंसा का दौर भी लंबा खिंचने की आशंका बढ़ गई है। वरिष्ठ पत्रकार मुस्तंसर जावेद का कहना है कि ‘इस वक्त स्नैप इलेक्शन हो जाना चाहिए था। कानून और व्यवस्था को बहाना बना कर चुनाव टालने से हिंसा का दौर भी ख़त्म नहीं होगा बल्कि और बढ़ेंगे।’ गुरुवार 10 जनवरी को लाहौर हाईकोर्ट के बाहर हुआ धमाका इसकी तस्दीक करता है। लाहौर पाकिस्तान की राजनीति का सबसे महत्वपूर्ण गढ़ है। पाकिस्तान नेशनल एसेंबली के 270 सीटों में से 148 पंजाब से हैं। और जब यहां इस तरह की हिंसा होगी तो चुनावों पर तो इसका असर पड़ेगा ही।

पिछले साल 20 नवंबर को प्रोविशियल एसेंबली भंग होने के पहले पंजाब में मुशर्रफ समर्थक पीएमएल क्यू की सत्ता थी। अभी भी उन्ही की केयर टेकर सरकार है। पीपीपी का लगातार आरोप लगाती रही है कि मुशर्रफ और उनकी पार्टी चुनाव में जम कर धांधली करने जा रही है। बेनज़ीर के बिना इसे रोकना पीपीपी के लिए बड़ी चुनौती होगी। चुनाव धांधली की मुखालफत को लेकर बेनज़ीर नवाज़ शरीफ के साथ कोई ख़ास रणनीति बनाने की तैयारी में थी। बकौल नवाज़ शरीफ, ‘वो इस मुतल्लिक मुझसे मिलना चाहती थीं। फोन पर चार्टर ऑफ डेमोक्रेसी को लेकर बात हुई थी। लेकिन इससे पहले कि मुलाक़ात हो पाती... वो ख़ुद ही नहीं रहीं।’ बेनज़ीर और नवाज़ शरीफ के बीच जिस स्तर की बातचीत या समझ पैदा हुई थी, पीपीपी के नए नेत़त्व को उसे समझने में और उसी तरह की साझा रणनीति बनाने में वक्त लगेगा। बहुत संभावना इस बात कि है कि वैसी समझ पैदा करने की शायद पार्टी अब ज़रुरत ही ना समझे। ये चुनाव में प्रदर्शन और पार्टी के भविष्य के लिहाज़ से उतना मुफीद नहीं होगा क्योंकि पाकिस्तान का सियासी माहौल इस तरह का नहीं है कि जम्हूरियत चाहने वाली कोई भी पार्टी अकेले दम पर आगे बढ़ सके। बेनज़ीर की मौत के तुरंत बाद नवाज़ ने पीपीपी के कार्यकर्ताओं-समर्थकों से कहा था कि ‘वे (पीपीपी) उन्हें अपना समझें और वे (नवाज़) उनका साथ देने को तैयार हैं।‘ लेकिन उनके इन शब्दों को पीपीपी कार्यकर्ताओं पर असर बनाने की कोशिश के तौर पर लिया गया। नवाज़ शरीफ अपनी और वक्त की नज़ाकत को समझते हैं। लिहाज़ा कहते हैं कि ‘जम्हूरियत की बहाली और मुशर्रफ को जड़ से ख़त्म करने के लिए ज़रुरी हुआ तो वो पीपीपी के साथ मिल कर सरकार बनाने को भी तैयार हैं।’ सवाल है कि या ऐसी ही ज़रुरत पीपीपी भी समझती है या नहीं।

बेनज़ीर को लेकर पंजाब में भी ज़बर्दस्त सहानुभूति की लहर है। सिंध से पीपीपी के सीनेटर अनवर बेग को भरोसा है कि 'हम क्लीन स्विप करेंगे और मुशर्रफ का फ्यूचर स्टेक पर होगा।' लेकिन सिर्फ इसी के भरोसे रहना पीपीपी को मंहगा साबित हो सकता है। लरकाना में अपने पहले संबोधन में आसिफ ज़रदारी ने बेनज़ीर के साथ मारे गए अंगरक्षकों को ‘हमारे पंजाबी भाईयों की शहादत’ करार देकर कर पंजाब को भुट्टो परिवार से जोड़न की कोशिश की। लेकिन पार्टी की असल चुनौती यहां परवेज़ इलाही जैसे नेताओं की पैठ को उखाड़ने की होगी। वैसे भी, पीएमएल क्यू के पास प्रशासनिक ताक़त भी है जिसके बेजा इस्तेमाल का अंदेशा पीपीपी जैसी पार्टियों की तरफ़ से जताया जा रहा है। लेकिन पीएमएल क्यू के नेता और पाकिस्तान के पूर्व रेलमंत्री शेख रशीद ‘फ्री एंड फेयर इलेक्शन की गारंटी’ देते हैं। आसिफ ज़रदारी पर निशाने साधते हुए वे कहते हैं कि ‘आसिफ ज़रदारी पहले ये साबित करें कि जो ज़िम्मेदारी उनकी पार्टी की तरफ से उन्हें सौंपी गई है वो इसके क़ाबिल भी हैं या नहीं।‘ हालांकि शेख रशीद बेबाकी से ये स्वीकारते हैं कि ‘इसमें कोई शक नहीं कि अगर 8 जनवरी को इलेक्शन हो जाते तो पीपीपी को फ़ायदा मिलता।‘

दरअसल बेनज़ीर के बाद पार्टी की संगठनात्मक ‘इफ्स एंड बट्स’ और राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ से जूझ पाने की उसमें बची रही कूवत पर ना जाएं तो पार्टी के लिए जो संभावनाएं नज़र आती हैं वो बस सहानुभूति से ही पैदा होती दिख रही हैं। बेनज़ीर हत्याकांड की जांच में कोताही और मौत की वजहों पर पर्दादारी करने की सरकारी कोशिश ने इसे एक और आयाम दे दिया है। लेकिन पीपीपी सिर्फ इसके भरोसे मैदान में उतरी तो नतीज़ा मनमाफ़िक नहीं भी हो सकता है। वैसे काफी कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि चुनाव में वो ताक़त क्या भूमिका निभाती है जिसके सहारे बेनज़ीर और मुशर्रफ में पावर शेयरिंग जैसी डील की बात सामने आयी थी और बेनज़ीर की वतन वापसी हुई थी। क्या वो ताक़त अब भी मुशर्फर और पीपीपी को एक दूसरे से काउंटर बैलेंस करने की नीति पर चलते हुए पीपीपी को सत्ता में देखना चाहती है...या बेनज़ीर की मौत के बाद वो कोई वैकल्पिक नीति अपना लेती है। वैसे राष्ट्रीय सरकार बनाने की बात भी हवा में है। मुशर्रफ की तरफ से सर्वदलीय सरकार बनाने की पेशकश हुई है। नवाज़ शरीफ मुशर्रफ के बिना ऐसी सरकार बनाने की बात कर रहे हैं। ऐसी कोई सरकार बन पायी और चुनाव उसके तहत हुए तो सूरते हाल बदल सकती है। वैसे डर इस बात का भी है कि कहीं ऐसी कोई सरकार बनाने या न बनने के बहाने चुनाव को और ना टाल दिया जाए।

Thursday, January 10, 2008

पत्रकार ही नहीं... इंसान भी होने का अहसास!

लाहौर में धमाके की जैसे ही ख़बर आयी मैं उन दोस्तों का नंबर मिलाने लगा जो लाहौर में हैं। हम पत्रकार हमेशा उन्हीं को फोन करते हैं जिनसे कोई ख़बर मिलने की उम्मीद होती है। लंबे वक्त बाद आज पहली बार ऐसा महसूस हुआ कि मैं भी इंसान हूं। बेतहाशा फोन मिला रहा था। आफिस में था। पाकिस्तान पर ही अपनी एक रिपोर्ट को एडिट करा रहा था। इसी बीच इंपुट पर बैठीं अदिति भाल ने इत्तिला दी कि शायद लाहौर में कुछ धमाका हो गया है। पता करो। मुझे हमेशा ख़बर की भूख होती है। पर आज जो पहले चार नंबर मिलाए वो ख़बर के लिए नहीं था। सच में। अमीन हफीज़। जियो टीवी के पत्रकार। कैसे उनसे दोस्ती हुई वो लंबी कहानी है। पर पहला नंबर उनका मिलाया। मिला पर कोई रेस्पांस नहीं। फिर मिलाया। आपके मतलूबा नंबर से जवाब मौसूल नहीं हो रहा। फिर मिलाया। वही जवाब। शाहवाज़ का नंबर ट्राई किया। वो स्पोर्ट्स देखता है। फिर भी इस उम्मीद से कि शायद वो बता पाए कि अमीन कहां है। पर नहीं मिला। बार बार कोशिश की। मुश्किल। लाहौर पुलिस के पीआरओ अतहर खान का नंबर भी नहीं मिल रहा था।

फिर इस्लामाबाद में आसमा शिराज़ी को फोन मिलाया। बिज़ी। पर एकाध कोशिश के बाद वो लाईन पर थीं। छूटते ही बोलीं आठ मरे हैं। ज़्यादातर पुलिसवाले हैं। फिदायीन अटैक है। पुलिस को निशाना बनाया गया है। मैंने कहा आज ख़बर के लिए नहीं... दोस्तों का हाल जानने फोन किया है। ख़बर तो डाऩ और पीटीवी पर आने लगी है। ये बताएं वहां रैली होने वाली थी। पत्रकार दोस्त भी होंगे। कैसे हैं सभी। आसमा ने कहा कुछ नहीं कह सकते। अभी पूरी डिटेल नहीं आयी है। ये एआरवाई चैनल की होस्ट वही आसमा हैं जिन्होने मुझे बेनज़ीर की मौत को सबसे पहले कंफर्म किया था। जिसके आधार पर मैं आफिस को घर बैठे मेल कर पाया था कि बेनज़ीर की मौत हो गई है। पर आज उस आसमा के पास भी पूरी जानकारी नहीं थी कि किसे क्या हुआ है। दिक्कत उनकी नहीं...मेरी थी। फिर अमीन का नंबर ट्राई किया। इस बार बिज़ी आया। तसल्ली मिली कि उसका मोबाईल इस्तेमाल में है। दुआ किया कि वही कर रहा हो।

इसके बाद अपने काम की आपाधापी में खो गया। उससे निपट के फिर ख़्याल आया। फोन मिलाया। उसकी चिरपरिचित आवाज़। हलो नौजावान...माई लव...हाउ आर यू। मैंने कहा लगता है खाना खा रहे हो। खा लो। कल बात करते हैं। उसने कहा ओके माई लव। टेक केयर। जो शायद मैं कहना चाहता था।

Friday, January 4, 2008

अब आगे क्या होगा पाकिस्तान में

शीर्षक पर ना जाएं। कुछ बातें प्रेडिक्शन और प्रोजेक्शन से परे होती हैं। विश्लेषण भी काम नहीं आता। ये इस मुल्क के लिए फिट बैठता है। हिंदुस्तानी हूं इसलिए कोई आरोप लगा सकता है कि दुर्भावना में ऐसा कह रहा हूं। लेकिन नहीं। पाकिस्तान में बिताए अपने अब तक के समय और अनुभव के आधार पर कह रहा हूं। मेरी आज की समझ पर कल को हो सकता है मैं ही सबसे पहले सवाल उठाउं। लेकिन आज का सच यही है। कब किस पल क्या हो जाए पता ही नहीं चलता। वैसे आप सेंस करते रह सकते हैं। वैसा हो गया तो कह सकते हैं ऐसा होना ही था। नहीं हुआ तो कह दें 'ये मुल्क बहुत ही अनप्रेडिक्टेबल है' टाईप...जैसा कि मैं अभी कह रहा हूं।

मैं इस वक्त लाहौर के साफमा आफिस में बैठा ये पोस्ट लिख रहा हूं। ये सोचते हुए कि अब तक क्या जाना है इस मुल्क के बारे में। थोड़े शब्दों में अपनी बात रखना चाहूंगा। क्योंकि उससे ज़्यादा आपके पास वक्त ना हो। और मेरे शब्द बड़े सामान्य से हैं। जिसकी लाठी उसकी भैंस! जी हां। ये जुमला सबसे सटीक यहीं बैठता प्रतीत होता है। मार्शल लॅाज़ का सिलसिला... इमरजेंसी का थोपा जाना... चुनाव कराया जाना या टाल दिया जाना... बेनज़ीर का बाहर जाना और लौट आना... नवाज़ का लौट कर आने के बाद भी वापस सउदी अरब भेज दिया जाना और फिर ऐसी किसी डील का हो जाना जिसके तहत उनका पाकिस्तान में ख़ैरमकदम हो जाए.... बेनज़ीर का पीएम बनना तय होते होते मारा जाना... और गोली-धमाके में हुई मौत को हादसा करार देने की कोशिश किया जाना... चुनाव होते होते टाल दिया जाना... पता नहीं पहले और बाद के और कितनी नज़ीरें होगीं। और ये सब बताती हैं कि जिसकी लाठी उसकी भैंस! एयरपोर्ट के लिए निकलना है। वापसी है। फिर बात होती है।