Sunday, December 30, 2007

फिर से पाकिस्तान में

किस्मत दुबारा पाकिस्तान खींच लाई है. बेनजीर की हत्या के बाद के हालात को अपनी आंख से देख पा रहा हूँ. हालात ठीक नही लगते. किसी तरह ये छोटी सी सूचना आप तक पहुँचा पा रहा हूँ. तफसील से बात होगी, फिलहाल इतना ही.

मेरी तो यहीं बीतेगी पर आप सबों को नए साल की बधाई...

Saturday, December 29, 2007

सॅारी, रोड-रेज में गई बेनज़ीर की जान!

जवाब मिल गया है। अल्टीमेट ख़ुलासा हो गया है। पाकिस्तान सरकार का कहना है कि बेनज़ीर की हत्या हादसे में हुई... गोली या धमाके से नहीं। लेकिन शायद उन्हें भी ये बात नहीं पता कि बेनज़ीर की हत्या महज़ एक रोज-रेज का मामला है! रोड रेज नहीं समझते? अरे सड़क पर चलते हुए दो वाहन चालकों के बीच जब को पंगा हो जाए। फिर तू तू मैं मैं होते होते नौबत यहां तक पहुंच जाए कि वे एक दूसरे की जान लेने पर उतर आएं। और जो ले सकता है वो सामने वाले की जान ले ले! एक्ज़ाक्टली यही हुआ है रावलपिंडी में! आपको नहीं पता! तो सुन लीजिए।

दरअसल हुआ ये कि जब बेनज़ीर अपना भाषण ख़त्म कर गाड़ी में बैठीं तो पीछे से मोटरसाइकिल सवार दो-तीन नौजवानों ने साइड लेने के लिए उन्हें हार्न दिया। बेनज़ीर उनकी अनदेखी कर अपनी नेतागिरी में जुटी रहीं। उन्होने ने सोचा कि वो प्रेसिडेंट मुशर्रफ को चुनौती दे रही हैं। भला उनसे कौन टकरा सकता है! लेकिन मोटरसाईकिल पर सवाल नौजवान जल्दी में थे। बेनज़ीर के काफ़िले की धीमी रफ्तार उन्हें नहीं भा रही थी। उन्होने बार बार हार्न दिया। पर लोकतंत्र बहाली की मदहोशी में डूबी बेनज़ीर ने उन्हें हर बार अनसुना कर दिया।

फिर विवश होकर उन नौजवानों में से एक ने पिस्तौल निकाल ली। दूसरे ने भी जोश में निकाल ली। और फिर फ़ायर कर दिया! इसमें आश्चर्य की क्या बात है! दिल्ली की सड़कों पर तो ऐसा होता रहता है। तब आपको आश्चर्य नहीं लगता! अब फ़ायर कर दिया तो कर दिया! भई ये पाकिस्तान का गन कल्चर है। हम आप क्या कर सकते हैं! एक ने फ़ायर किया तो दूसरे से रहा नहीं गया। उसने फिदायीन बटन दी दबा दी। पाकिस्तान में आपको बहुत सारे शख़्स आपको ऐसे बटन के साथ घूमते मिलेगें। ये छोटी-मोटी बातों पर भी ख़ुद को उड़ा देने की क़ाबिलियत रखते हैं। ये बात कई साल बाद मुल्क लौटीं बेनज़ीर नहीं समझ पायीं। आने के पहले पाकिस्तान का ट्रैफ़िक रुल बुक तो पढ़ लेना था! साइड दे दिया होता!

पर जब आप सड़क पर चलते हैं तो एक भ्रम भी पाले चलते हैं कि आप ही सही चल रहे हैं। और आपको इसका नुक्सान भी उठाना पड़ता है। तो जब बेनज़ीर ने साइड नहीं दी तो मोटरसाईकिल सवार नौजवानों ने ... जो जल्दी में थे... सोचा बेनज़ीर को भी साथ लिए चलते हैं! सो उन्होने ख़ुद के साथ साथ बेनज़ीर को भी उड़ा लिया! बस इतनी सी बात है और आप मीडिया वाले पता नहीं क्या तिल का ताड़ बना रहे हो! पाकिस्तान की सरकार को भी बताईएगा। कहां वो हादसा या हक़ीकत के चक्कर में पड़ी है। हमारे यहां कि होनी-अनहोनी सीरियल की तर्ज़ पर। इस रोड-रेज मामले की रावलपिंडी के लोकल थाने में प्रोपर एफआईआर करायी जाए।

Friday, December 28, 2007

बेनज़ीर के नहीं रहने से किसे फ़ायदा?

(जनसत्ता के तीन जनवरी के अंक में प्रकाशित)

बेनज़ीर मारी गईं। बड़े दिनों तक सवाल उठेगा कि किसने मारा... या किसने मरवाया? पाकिस्तान की सियासत में भीतरी और बाहरी काफी पेंचदगियां हैं। फिर भी शक का सिरा पकड़ना मुश्किल नहीं है। सवाल है कि आख़िर बेनज़ीर की मौत से किसे फ़ायदा होगा। एक, या तो उन्हें जो पाकिस्तान में तालिबानी शासन चाहते हैं। या फिर दूसरा, उन्हें जो बेनज़ीर से ख़तरा महसूस करते हों।

बेनज़ीर की पीठ पर अमेरिका का हाथ बताया जाता रहा है। ये अमेरिकी दबाव ही था जिसकी बदौलत उनकी वतन वापसी संभव हो पायी। पाकिस्तान के वे तत्व जो अमेरिका को अपना दुश्मन नंबर वन मानते हैं... बेनज़ीर के भी खिलाफ रहे। उन्हें लगता रहा कि ये अमेरिकी इशारे पर चल कर पाकिस्तान को उस दिशा में ले जाएगी जो 'इस्लाम के हित' में नहीं होगा। लड़के लड़कियों के लिए अलग स्कूल जैसी ज़िद पाले बैठे ये तत्व दरअसल पाकिस्तान को उस रास्ते ले जाना चाहते हैं जिस पर तालिबानों के समय अफग़ानिस्तान चल पड़ा था। वहां से खदे़ड़ दिए गए तालिबानी भी नार्थवेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस के साथ साथ पाकिस्तान के कई इलाक़े में अपनी पकड़ मज़बूत कर चुके हैं। अमेरिकी दबाव में उन पर कार्रवाई हो रही हैं। बेनज़ीर का चुन कर आना उनके लिए और मुसीबत खड़ी कर सकता था। लिहाज़ा बेनज़ीर को रास्ते से हटाना ही उनका मक़सद बन गया था।

लेकिन कुछ और भी है जो क़ाबिले गौर है। बेनज़ीर की 18 अक्टूबर की वतन वापसी से ठीक पहले सूचना आयी कि एक तालिबानी कमांडर बैतुल्लाह मसूद ने आत्मघाती दस्ते तैयार किए हैं बेनज़ीर को मारने के लिए। बेनज़ीर के आते ही उन पर फिदायीन हमला होगा। इस सूचना पर प्रतिक्रिया देते हुए बेनज़ीर ने कहा था कि उन्हें तालिबान से उतना ख़तरा नहीं जितना मिलिटरी स्टैब्लिशमेंट में बैठे जिहादी ताक़तों से है। बेनज़ीर के शब्द थे, "मैं बैतुल्लाह मसूद से चिंतित नहीं हूं। मैं सरकार की तरफ जो ख़तरा है उससे चिंतित हूं। बैतुल्लाह जैसे लोग सिर्फ प्यादे हैं। उसके पीछे वो लोग हैं जिन्होने मेरे मुल्क़ में आतंकवाद को बढ़ाने में बड़ा योगदान दिया है।" अब इसे आईएसआई की तरफ इशारा माने या फिर सेना में बैठे कुछ लोगों की तरफ। बेशक बेनज़ीर की हत्या की ज़िम्मेदारी के तौर पर अल-क़ायदा का नाम सामने आ रहा हो। लेकिन अगर अल-क़ायदा और तालिबान को अपनी चिंता है तो पाकिस्तानी स्टैब्लिशमेंट में बैठे ऐसे तत्व भी कम नहीं जिनको लगता रहा कि अगर बेनज़ीर प्रधानमंत्री बन गईं तो उनकी कमाई का ज़रिए भी बंद हो जाएगा और शायद वो भी।

18 अक्टूबर की खूनी रैली के बाद बेनज़ीर ने उसकी अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से जांच की मांग की थी क्योंकि उन्हें मुशर्रफ और मौजूदा सरकार पर भरोसा नहीं था। लेकिन उनकी इस मांग पर कान नहीं धरा गया। उल्टे सरकार की तरफ से हमेशा उन्हें एहतियात बरतने की सलाह दी जाती रही। कुछ इस तरह का एहतियात कि वे नेता की तरह कभी निकल ही ना पाए। कभी रैली ना कर पाए। यहां तक कि इमरजेंसी के खिलाफ जब बेनज़ीर ने लाहौर से इस्लामाबाद लॅाग मार्च का ऐलान किया तब भी वहां उनकी सुरक्षा को लेकर सचेत किया जाता रहा। लब्बोलुआब ये कि वे पाकिस्तान में रहें और चुनाव लड़े लेकिन अपने साथ लोगों को जोड़ने की कोशिश ना करें। अपने कार्यकर्ताओं में जोश भरने वाले काम न करें। उस समय मैं पाकिस्तान में ही था और हरेक फैसलों और बयानों को नज़दीक से देख पा रहा था।

मुशर्रफ पर भी आरोप है कि वे अमेरिका के कठपुतली के तौर पर काम करते हैं। यानि अमेरिकी हित को साध कर ही आगे बढ़ते हैं। दरअसल अमेरिका ने मुशर्रफ और बेनज़ीर के बीच समझौता करा कर ये तय करना चाहा कि मुशर्रफ सिवियन राष्ट्रपति बन कर रहें और बेनज़ीर चुनी हुई सरकार की मुखिया। ऐसे में दुनिया को पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाली की तस्वीर भी मिल जाएगी और ‘वार आन टेरर’ का अमेरिकी कार्यक्रम भी चलता रहेगा। ख़ुद को और मज़ूबती देने के लिए अमेरिका ने मुशर्रफ को बेनज़ीर से और बेनज़ीर को मुशर्रफ से काउंटर बैलेंस करने की नीति अपनायी। अब बेनज़ीर के नहीं रहने से अमेरिका के काम आने का सारा दारोमदार अकेले मुशर्रफ़ के कंधे पर ही आ गया है। जब अमेरिका के सामने और कोई विकल्प नहीं तो मुशर्रफ की पीठ पर उसका हाथ तो मज़बूती से टिकेगा ही।

अब मुशर्रफ़ के दोनों हाथों में लड्डू हैं। वे चाहें तो बेनज़ीर की हत्या को बहाना बना कर 8 जनवरी को होने वाले चुनाव को टाल दें। नवंबर को नेशनल एसेंबली और प्रांतीय एसेंबलियों को भी भंग किया जा चुका है। केयर टेकर प्रधानमंत्री के तौर पर मोहम्मद मियां सूमरू को मुशर्रफ का पिछलग्गू बताया जाता है। चुनाव जितने दिन टलेंगे... सूमरू उतने दिन प्रधानमंत्री बने रहेगें। यानि उतने दिनों तक मुशर्रफ की पार्टी पीएमएल क्यू की चुनाव में संभावित हार टलती रहेगी। दूसरे शब्दों में, चुनाव टलने से मुशर्रफ की गद्दी पर पकड़ मज़बूत बनी रहेगी। क्योंकि आशंका इस बात की भी है कि अगर पीपीपी या पीएमएल नवाज़ जैसी पार्टी भारी बहुमत से जीत कर आती है तो मुशर्रफ़ को इमरजेंसी लगाने समेत कई पुराने फ़ैसलों की वजह से मुश्किल आ सकती है। हालांकि इमरजेंसी हटाने के ठीक पहले कई अध्यादेशों के ज़रिए मुशर्रफ ने अपनी स्थिति को बादशाह जैसी बना ली है। जैसे कि उनके लिए गए किसी फैसले को कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती... और कई फैसलों को नई बनने वाली संसद की मंज़ूरी या तस्दीक करने की ज़रुरत नहीं होगी। लेकिन पाकिस्तान में जब सत्ता बदलती है तो कानून भी बदलते देर नहीं लगती।

दूसरी स्थिति भी मुशर्रफ के मुफ़ीद बैठती है। वे ये कि वे चुनाव न टालें। 8 जनवरी को चुनाव होने दें। अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने भी पाकिस्तान में लोकतांत्रिक प्रक्रिया जारी रखने की ज़रुरत पर ज़ोर दिया है। मुशर्रफ इसे नज़रअंदाज कर अमेरिका को नाराज़ नहीं करना चाहेगें। और फिर माहौल ऐसा बन गया है कि चुनाव अपने तौर तरीक़े से कराए जा सकें। इस हत्याकांड के बाद नेता रैलियां निकालने से हिचकेगें। कार्यकर्ता और अवाम भी उसमें शिरकत करने से डरेगीं। आल पार्टी डेमोक्रेटिक मूवमेंट के बैनर तले नवाज़ शऱीफ ने नवंबर के अंत में ही चुनाव के बहिष्कार का ऐलान कर दिया था। लेकिन बाहरी दबाव और अपने सांसद-उम्मीदवरों की ज़िद के आगे उन्हें मैदान में उतरना पड़ा। आपराधिक मुकद्दमों और साजिश के हवाले से नवाज़ और शाहवाज़ शरीफ पर का परचा पहले ही ख़ारिज़ किया जा चुका है। बेनज़ीर रही नहीं। तहरीक़े इंसाफ के नेता इमरान खान 13 और पार्टियों के साथ चुनाव का बहिष्कार कर रहे हैं। अल्ताफ हुसैन की मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट, फजलुर्रहमान की जमीयत-उलेमा-ए-इस्लाम, असफंदयार वली खान की नेशनल अवामी पार्टी... ये सब लैंड स्लाइड जीत के साथ संसद नहीं पहुंच सकते। ऐसे में चुनाव को दिशा देने वाला कोई बचा नहीं। अब चुनाव हुए तो सत्ता में रही पार्टी पीएमएल क्यू की चलेगी। चुनाव में धाधली की आशंका पहले से ही जतायी जाती रही है।

एक ही दिक्कत है। नवाज़ शरीफ ने अब फिर से चुनाव के बहिष्कार का ऐलान कर दिया है। ऐसे में इन चुनावों की विश्सनीयता पर और गहरे सवाल उठ खड़े होगें। जानकारी ऐसी भी मिल रही है कि नवाज़ और बेनज़ीर के बीच ये तय हो गया था कि चुनाव के दो-तीन दिन पहले हवा का रुख़ देख कर मैदान से हट लिया जाए। ये स्थिति मुशर्रफ के लिए और बुरी होती।

बेनज़ीर की हत्या की जब जांच होगी तब होगी। नतीज़ा जब आएगा तब आएगा। फिलहाल इसकी वजहों की तरफ इशारा करने के लिए तो कुछ ऐसे ही तथ्य हैं।

बेनज़ीर की हत्या पर...

बेनज़ीर की हत्या को तहसीन मुनव्वर ने चार पंक्तियों में कुछ इस तरह समेटा है...

ख़ैर हो या रब पड़ोसी जान की
अब वहां क़ीमत नहीं इंसान की
साथ अपने ले गईं हैं बेनज़ीर
आख़िरी उम्मीद पाकिस्तान की!

ज़्यादा कुछ कहने की ज़रुरत नहीं।

बेनज़ीर की हत्या से किसको फ़ायदा?

(जनसत्ता के 3 जनवरी के अंक में प्रकाशित)

बेनज़ीर मारी गईं। बड़े दिनों तक सवाल उठेगा कि किसने मारा... या किसने मरवाया? पाकिस्तान की सियासत में भीतरी और बाहरी काफी पेंचदगियां हैं। फिर भी शक का सिरा पकड़ना मुश्किल नहीं है। सवाल है कि आख़िर बेनज़ीर की मौत से किसे फ़ायदा होगा। एक, या तो उन्हें जो पाकिस्तान में तालिबानी शासन चाहते हैं। या फिर दूसरा, उन्हें जो बेनज़ीर से ख़तरा महसूस करते हों।

बेनज़ीर की पीठ पर अमेरिका का हाथ बताया जाता रहा है। ये अमेरिकी दबाव ही था जिसकी बदौलत उनकी वतन वापसी संभव हो पायी। पाकिस्तान के वे तत्व जो अमेरिका को अपना दुश्मन नंबर वन मानते हैं... बेनज़ीर के भी खिलाफ रहे। उन्हें लगता रहा कि ये अमेरिकी इशारे पर चल कर पाकिस्तान को उस दिशा में ले जाएगी जो 'इस्लाम के हित' में नहीं होगा। लड़के लड़कियों के लिए अलग स्कूल जैसी ज़िद पाले बैठे ये तत्व दरअसल पाकिस्तान को उस रास्ते ले जाना चाहते हैं जिस पर तालिबानों के समय अफग़ानिस्तान चल पड़ा था। वहां से खदे़ड़ दिए गए तालिबानी भी नार्थवेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस के साथ साथ पाकिस्तान के कई इलाक़े में अपनी पकड़ मज़बूत कर चुके हैं। अमेरिकी दबाव में उन पर कार्रवाई हो रही हैं। बेनज़ीर का चुन कर आना उनके लिए और मुसीबत खड़ी कर सकता था। लिहाज़ा बेनज़ीर को रास्ते से हटाना ही उनका मक़सद बन गया था।

लेकिन कुछ और भी है जो क़ाबिले गौर है। बेनज़ीर की 18 अक्टूबर की वतन वापसी से ठीक पहले सूचना आयी कि एक तालिबानी कमांडर बैतुल्लाह मसूद ने आत्मघाती दस्ते तैयार किए हैं बेनज़ीर को मारने के लिए। बेनज़ीर के आते ही उन पर फिदायीन हमला होगा। इस सूचना पर प्रतिक्रिया देते हुए बेनज़ीर ने कहा था कि उन्हें तालिबान से उतना ख़तरा नहीं जितना मिलिटरी स्टैब्लिशमेंट में बैठे जिहादी ताक़तों से है। बेनज़ीर के शब्द थे, "मैं बैतुल्लाह मसूद से चिंतित नहीं हूं। मैं सरकार की तरफ जो ख़तरा है उससे चिंतित हूं। बैतुल्लाह जैसे लोग सिर्फ प्यादे हैं। उसके पीछे वो लोग हैं जिन्होने मेरे मुल्क़ में आतंकवाद को बढ़ाने में बड़ा योगदान दिया है।" अब इसे आईएसआई की तरफ इशारा माने या फिर सेना में बैठे कुछ लोगों की तरफ। बेशक बेनज़ीर की हत्या की ज़िम्मेदारी के तौर पर अल-क़ायदा का नाम सामने आ रहा हो। लेकिन अगर अल-क़ायदा और तालिबान को अपनी चिंता है तो पाकिस्तानी स्टैब्लिशमेंट में बैठे ऐसे तत्व भी कम नहीं जिनको लगता रहा कि अगर बेनज़ीर प्रधानमंत्री बन गईं तो उनकी कमाई का ज़रिए भी बंद हो जाएगा और शायद वो भी।

18 अक्टूबर की खूनी रैली के बाद बेनज़ीर ने उसकी अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से जांच की मांग की थी क्योंकि उन्हें मुशर्रफ और मौजूदा सरकार पर भरोसा नहीं था। लेकिन उनकी इस मांग पर कान नहीं धरा गया। उल्टे सरकार की तरफ से हमेशा उन्हें एहतियात बरतने की सलाह दी जाती रही। कुछ इस तरह का एहतियात कि वे नेता की तरह कभी निकल ही ना पाए। कभी रैली ना कर पाए। यहां तक कि इमरजेंसी के खिलाफ जब बेनज़ीर ने लाहौर से इस्लामाबाद लॅाग मार्च का ऐलान किया तब भी वहां उनकी सुरक्षा को लेकर सचेत किया जाता रहा। लब्बोलुआब ये कि वे पाकिस्तान में रहें और चुनाव लड़े लेकिन अपने साथ लोगों को जोड़ने की कोशिश ना करें। अपने कार्यकर्ताओं में जोश भरने वाले काम न करें। उस समय मैं पाकिस्तान में ही था और हरेक फैसलों और बयानों को नज़दीक से देख पा रहा था।


मुशर्रफ पर भी आरोप है कि वे अमेरिका के कठपुतली के तौर पर काम करते हैं। यानि अमेरिकी हित को साध कर ही आगे बढ़ते हैं। दरअसल अमेरिका ने मुशर्रफ और बेनज़ीर के बीच समझौता करा कर ये तय करना चाहा कि मुशर्रफ सिवियन राष्ट्रपति बन कर रहें और बेनज़ीर चुनी हुई सरकार की मुखिया। ऐसे में दुनिया को पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाली की तस्वीर भी मिल जाएगी और ‘वार आन टेरर’ का अमेरिकी कार्यक्रम भी चलता रहेगा। ख़ुद को और मज़ूबती देने के लिए अमेरिका ने मुशर्रफ को बेनज़ीर से और बेनज़ीर को मुशर्रफ से काउंटर बैलेंस करने की नीति अपनायी। अब बेनज़ीर के नहीं रहने से अमेरिका के काम आने का सारा दारोमदार अकेले मुशर्रफ़ के कंधे पर ही आ गया है। जब अमेरिका के सामने और कोई विकल्प नहीं तो मुशर्रफ की पीठ पर उसका हाथ तो मज़बूती से टिकेगा ही।

अब मुशर्रफ़ के दोनों हाथों में लड्डू हैं। वे चाहें तो बेनज़ीर की हत्या को बहाना बना कर 8 जनवरी को होने वाले चुनाव को टाल दें। नवंबर को नेशनल एसेंबली और प्रांतीय एसेंबलियों को भी भंग किया जा चुका है। केयर टेकर प्रधानमंत्री के तौर पर मोहम्मद मियां सूमरू को मुशर्रफ का पिछलग्गू बताया जाता है। चुनाव जितने दिन टलेंगे... सूमरू उतने दिन प्रधानमंत्री बने रहेगें। यानि उतने दिनों तक मुशर्रफ की पार्टी पीएमएल क्यू की चुनाव में संभावित हार टलती रहेगी। दूसरे शब्दों में, चुनाव टलने से मुशर्रफ की गद्दी पर पकड़ मज़बूत बनी रहेगी। क्योंकि आशंका इस बात की भी है कि अगर पीपीपी या पीएमएल नवाज़ जैसी पार्टी भारी बहुमत से जीत कर आती है तो मुशर्रफ़ को इमरजेंसी लगाने समेत कई पुराने फ़ैसलों की वजह से मुश्किल आ सकती है। हालांकि इमरजेंसी हटाने के ठीक पहले कई अध्यादेशों के ज़रिए मुशर्रफ ने अपनी स्थिति को बादशाह जैसी बना ली है। जैसे कि उनके लिए गए किसी फैसले को कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती... और कई फैसलों को नई बनने वाली संसद की मंज़ूरी या तस्दीक करने की ज़रुरत नहीं होगी। लेकिन पाकिस्तान में जब सत्ता बदलती है तो कानून भी बदलते देर नहीं लगती।

दूसरी स्थिति भी मुशर्रफ के मुफ़ीद बैठती है। वे ये कि वे चुनाव न टालें। 8 जनवरी को चुनाव होने दें। अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने भी पाकिस्तान में लोकतांत्रिक प्रक्रिया जारी रखने की ज़रुरत पर ज़ोर दिया है। मुशर्रफ इसे नज़रअंदाज कर अमेरिका को नाराज़ नहीं करना चाहेगें। और फिर माहौल ऐसा बन गया है कि चुनाव अपने तौर तरीक़े से कराए जा सकें। इस हत्याकांड के बाद नेता रैलियां निकालने से हिचकेगें। कार्यकर्ता और अवाम भी उसमें शिरकत करने से डरेगीं। आल पार्टी डेमोक्रेटिक मूवमेंट के बैनर तले नवाज़ शऱीफ ने नवंबर के अंत में ही चुनाव के बहिष्कार का ऐलान कर दिया था। लेकिन बाहरी दबाव और अपने सांसद-उम्मीदवरों की ज़िद के आगे उन्हें मैदान में उतरना पड़ा। आपराधिक मुकद्दमों और साजिश के हवाले से नवाज़ और शाहवाज़ शरीफ पर का परचा पहले ही ख़ारिज़ किया जा चुका है। बेनज़ीर रही नहीं। तहरीक़े इंसाफ के नेता इमरान खान 13 और पार्टियों के साथ चुनाव का बहिष्कार कर रहे हैं। अल्ताफ हुसैन की मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट, फजलुर्रहमान की जमीयत-उलेमा-ए-इस्लाम, असफंदयार वली खान की नेशनल अवामी पार्टी... ये सब लैंड स्लाइड जीत के साथ संसद नहीं पहुंच सकते। ऐसे में चुनाव को दिशा देने वाला कोई बचा नहीं। अब चुनाव हुए तो सत्ता में रही पार्टी पीएमएल क्यू की चलेगी। चुनाव में धाधली की आशंका पहले से ही जतायी जाती रही है।

एक ही दिक्कत है। नवाज़ शरीफ ने अब फिर से चुनाव के बहिष्कार का ऐलान कर दिया है। ऐसे में इन चुनावों की विश्सनीयता पर और गहरे सवाल उठ खड़े होगें। जानकारी ऐसी भी मिल रही है कि नवाज़ और बेनज़ीर के बीच ये तय हो गया था कि चुनाव के दो-तीन दिन पहले हवा का रुख़ देख कर मैदान से हट लिया जाए। ये स्थिति मुशर्रफ के लिए और बुरी होती।

बेनज़ीर की हत्या की जब जांच होगी तब होगी। नतीज़ा जब आएगा तब आएगा। फिलहाल इसकी वजहों की तरफ इशारा करने के लिए तो कुछ ऐसे ही तथ्य हैं।

Thursday, December 27, 2007

"तुम एक गोरखधंधा हो..."

ख़ुदा के लिए गाए इस सुफ़ीयाना कलाम में उर्दू के कई अल्फाज़ और उनका उच्चारण समझ नहीं पा रहा हूं। दरअसल ये मुझे इस क़दर बेहतरीन लगता है कि सुनते हुए गुनगुनाना भी चाहता हूं। जितना मैं सुन के समझ पाया हूं उसे लिखने कोशिश की है। जहां भी शब्द या पंक्तियां समझ में नहीं आ रहीं उसे मैंने लाल कर दिया है। उम्मीद है कि उर्दू के अच्छे जानकार इसे सही कर समझाने में मेरी मदद करेंगे।

कभी यहां तुम्हें ढूंढा कभी वहां पहुंचा... तुम्हारी दीद की खातिर कहां कहां पहुंचा
ग़रीब मिट गए पामाल हो गए लेकिन... किसी तलक ना तेरा आज तक निशां पहुंचा
हो भी नहीं और हरजा हो... तुम एक गोरखधंधा हो... तुम गोरखधंधा हो...
हर जर्रे में किस शान से तू जलनानुमा है...2 हैरान हैं मगर अक्ल कि कैसा है तू क्या है
तू एक गोरखधंधा हो...2
तुझे दैरोहरम में मैने ढूंढा तू नहीं मिलता... मगर तसरीफरमा तुझको अपने दिल में देखा है
तुम एक गोरखधंधा हो...2
जो उल्फत में तुम्हारी खो गया है... उसी खोए हुए को कुछ मिला है

न बुतखाने ना काबे में मिला है... मगर टूटे हुए दिल में मिला है
अदम बन कर कहीं तू छुप गया है... कही तू हस्त बन कर आ गया है
नहीं है तू तो फिर इंकार कैसा... नफीदी तेरे होने का पता है
मैं जिसको कह रहा हूं अपनी हस्ती... अगर वो तू नहीं तो और क्या है
नहीं आया ख्यालों में अगर तू... तो फिर मैं कैसे समझूं तू खुदा है...
तुम एक गोरखधंधा हो...
हैरान हूं... मैं हैरान हूं... हैरान हूं... हैरान हूं इस बात पर तुम कौन हो क्या हो
भला तुम कौन हो क्या हो...तुम कौन हो क्या हो क्या हो क्या हो कौन हो क्या हो
मैं हैरान हूं इस बात पर तुम कौन क्या हो
हाथ आओ तो बुत... हाथ ना आओ तो खुदा हो
अक्ल में जो घिर गया लाइनतहा क्योंकर हुआ... जो समझ में आ गया फिर वो खुदा क्योंकर हुआ
फलसफी को बहस के अंदर खुदा मिलता नहीं... डोर को सुलझा रहा है और सिरा मिलता नहीं
छुपते नहीं हो सामने आते नहीं हो तुम... जलवा दिखा के जलवा दिखाते नहीं हो तुम
दैरोहरम के झगड़े मिटाते नहीं हो तुम... जो अस्ल बात है वो बताते नहीं हो तुम
हैरान हूं मेरे दिल में समाए हो किस तरह... हालांकि दो जहां में समाते नहीं हो तुम
ये माबदोहरम ये कलीसाओदैर क्यूं...2 हरजाई हो जबी तो बताते नहीं हो तुम
तुम एक गोरखधंधा हो....
दिल पर हैरत ने अजब रंग जमा रखा है... एक उलझी हुई तस्वीर बना रखा है
कुछ समझ में नहीं आता कि ये चक्कर क्या है... खेल क्या तुमने अज़ल से ये रचा रखा है
रुह को जिस्म के पिंजरे का बना कर क़ैदी... उस पर फिर मौत का पहरा भी बिठा रखा है
देके तदवीर के पंछी को उड़ाने तूने... दामे तकबीर भी हरसंत बिछा रखा है
करके आरायशी को नैनकी बरसों तुमने...ख़त्म करने का भी मंसूबा बना रखा है
लामकानी का भी बहरहाल है दावा भी तुम्हें... नानो अकरब का भी पैग़ाम सुना रखा है
ये बुराई, वो भलाई, ये जहन्नुम, वो बहिश्त... इस उलटफेर में फरमाओ तो क्या रखा है
जुर्म आदम ने किया और सज़ा बेटों को... अदलो इंसाफ का मियार भी क्या रखा है
देके इंसान को दुनिया में खलाफत अपनी... इक तमाशा सा जमाने में बना रखा है
अपनी पहचान की ख़ातिर है बनाया सबको... सबकी नज़रो से मगर खुदको छुपा रखा है
तुम एक गोरखधंधा हो...3 अलाप....तुम एक गोरखधंधा हो
नित नए नक्श बनाते हो मिटा देते हो...2 जाने किस जुर्मेतमन्ना की सज़ा देते हो
कभी कंकड़ को बना देते हो हीरे की कणी, कभी हीरों को भी मिट्टी में मिला देते हो
जिंदगी कितने ही मुर्दों को अता की जिसने... वो मसीहा भी सलीबों पे सजा देते हो
ख्वाहिशेदीद जो कर बैठे सरेतूर कोई...तूर ही बरके तजल्ली से जला देते हो
नारेनमरुद में डलवाते हो फिर खुद अपना ही खलील... खुद ही फिर नार को गुलजार बना देते हो
चाहे किन आन में फेंको कभी महिनकेन्हा... नूर याकूब की आंखो का बुझा देते हो
लेके यूसुफ को कभी मिस्त्र के बाज़ारों में... आख़िरेकार शहेमिस्त्र बना देते हो
जज़्बे मस्ती की जो मंज़िल पर पहुंचता है कोई... बैठ कर दिल में अनलहक की सज़ा देते हो
खुद ही लगवाते हो फिर कुफ्र के फतवे उस पर... खुद ही मंसूर को सूली पे चढ़ा देते हो
अपनी हस्ती भी वो एक रोज़ गवां बैठता है... अपने दर्शन की लगन जिसको लगा देते हो
कोई रांझा जो कभी खोज में निकले तेरी... तुम उसे जंग के बेले में रुला देते हो
जूस्तजू लेकर तुम्हारी जो चले कैस कोई... उसको मजनूं किसी लैला का बना देते हो
जोतसस्सी के अगर मन में तुम्हारी जागे... तुम उसे तपते हुए थल में जला देते हो
सोहनी गर तुमको महिवाल तस्सवुर करले.. उसको बिफरी हुई लहरों में बहा देते हो
खुद जो चाहो तो सरेअस्र बुला कर मेहबूब...एक ही रात में मेहराज़ करा देते हो
तुम एक गोरखधंधा हो...4
आप ही अपना पर्दा हो...3
तुम एक गोरखधंधा हो...
जो कहता हूं माना तुम्हें लगता है बुरा सा... फिर है मुझे तुमसे बहरहाल गिला सा
चुपचाप रहे देखते तुम अर्से बरी पर... तपते हुए कर्बल में मोहम्मद का नवासा
किस तरह पिलाता था लहू अपना वफा को... खुद तीन दिनों से अगर वो चे था प्यासा
दुश्मन तो बहुत और थे पर दुश्मन मगर अफ़सोस... तुमने भी फराहम ना किया पानी ज़रा सा
हर जुर्म की तौफीक है जालिम की विरासत... मजलूम के हिस्से में तसल्ली ना दिलासा
कल ताज सजा देखा था जिस शख्स के सर पर... है आज उसी शख्स के हाथों में ही कांसा
ये क्या अगर पूछूं तो कहते हो जवाबन... इस राज़ से हो सकता नहीं कोई सनासा
बस तुम एक गोरखधंधा हो...4
मस्ज़िद मंदिर ये मयख़ाने...2 कोई ये माने कोई वो माने 2
सब तेरे हैं जाना पास आने... कोई ये माने कोई वो माने 2
इक होने का तेरे कायिल है... इंकार पे कोई माईल है
असलियत लेकिन तू जाने... कोई ये माने कोई वो माने
एक खल्क में शामिल रहता है... एक सबसे अकेला रहता है
हैं दोनो तेरे मस्ताने... कोई ये माने कोई माने 2
हे सब हैं जब आशिक तुम्हारे नाम का...2 क्यूं ये झगड़े हैं रहीमोराम के
बस तुम एक गोरखधंधा हो....
मरकजे जूस्तजू आलमे रंगवू तमवदन जलवगर तू ही तू जारसू टूटे बाहाद में कुछ नहीं इल्लाहू
तुम बहुत दिलरुबा तुम बहुत खूबरू.. अर्ज की अस्मतें फर्श की आबरु.. तुम हो नैन का हासने आरजू

आंख ने कर कर दिया आंसुओ से वजू... अब तो कर दो अता दीद का एक सगुन
आओ परदे से तुम आँख के रुबरु... चंद लमहे मिलन दो घड़ी गुफ्तगू
नाज जबता फिरे जादा जातू बकू आहदाहू आहदाहू
हे लासरीकालाहू लासरीकालाहू
... अल्लाहू अल्लाहू अल्लाहू अल्लाहू


(इन्हें ठीक कर मुझे umashankarsing@gmail.com पर मेल कर सकते हैं। शुक्रिया)

Wednesday, December 26, 2007

बंद करें मोदी को गलियाना!

सुनते सुनते कान पक गए... आंख फूटने को आयी। जिसे देखो वही कलम घसीट दे रहा है। मोदी ये... मोदी वो...। अरे भई लिख देने भर से क्रांति हो जाती तो ऐसे कई हैं जो हर तीन-चार घंटे में एक कम से कम एक क्रांति तो कर ही देते। पर वो कोशिश कर देख चुके। कई एंगल दे कर देख चुके। ऐसा कर अच्छा किया। अपने को अभिव्यक्त कर जनमानस को जगाने की कोशिश करनी चाहिए। पर जब बहुमत नहीं माना तो भाई अब हम और आप भी स्वीकार लें ना कि मोदी जीत गए। क़ूवत है तो हम संविधान बदलने की कोशिश करें। मोदी को कानून के शिकंजे में लाने का अभियान चलाएं। नहीं कर सकते तो अब अपनी कुंठा से पार पा लें। जिन लोगों ने नरेन्द्र मोदी का विरोध विचारधारा के स्तर पर किया... उन्होने ने भी अब उनकी चुनावी जीत को स्वीकार लिया है। हालांकि वे अपने स्तर पर मोदी-विरोध जारी रखेगें... लेकिन कम से कम उस बचकाने-तुलनात्मक अध्ययन के तौर पर तो नहीं जैसा कि हम में से कई करने में जुटे हैं। तथ्य आधारित विरोध होना चाहिए... सिर्फ शब्दाडंबर भरे विरोध से काम नहीं चला है। नहीं चलेगा।

ऐसे कईयों को देख चुका हूं जो मुसलमान के घर का पानी पीना नहीं पसंद करते लेकिन जब लिखने-बोलने बैठते हैं तो सांप्रदायिक सौहार्द की मोतियां बिछा देते हैं। इनमें कुछ नेता हैं तो कुछ लिखाड़ भी। उनके शब्दों का खोखलापन हम और आप पकड़ सकते हैं। मुझे लगता है कि हाथ में कंप्यूटर या कलम और ठीक-ठाक फुर्सत भर होने से ज़रुरी नहीं कि अच्छा लिख भी लिया जाए। उदाहरणों, प्रतीकों, उपमाओं के ज़रिए बात करने की बजाए हमें सीधी बात करनी चाहिए। मोदी अगर खोटा सिक्का है तो ये सिक्का अगली बार नहीं चलेगा। लेकिन अगर संवैधानिक कसौटी ऐसी हो कि जिसे ऐंड़ी चोटी का ज़ोर लगा कर 'मौत का सौदागर' साबित करने पर तुला जाए और वो फिर भी मुंह चिढ़ा जाए तो कम से कम अपनी इज्ज़त बचाने के लिए विरोध का दायरा बड़ा कर दिया जाना चाहिए।

सीधा सा मतलब है। अब मोदी के खिलाफ नहीं... देश की संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ लिखिए। अगर आपको लगता है कि तमाम कारगुज़ारियां के बाद भी मोदी कैसे जीत गए तो इसका दोष यहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था को दीजिए। उसमें वोट के साथ भावनाओं को कैसे हिस्सेदारी दी जाए इसका तरीक़ा सुझाइए। मोदी को गलिया देना आसान है। पर ऐसे शख्स को गद्दी पर नहीं देखना चाहते हैं तो हम सबको लेखनी में और क़ूवत पालनी होगी। और ये क़ूवत में नहीं पाल सकते तो छोड़ देना चाहिए।

बोल कि क्यूं लब आज़ाद नहीं हैं मेरे

पाकिस्तान में ब्लॅाग्स को पहले भी ब्लॅाक किया जाता रहा है। इसकी कुछ बानगी यहां क्लिक कर देखी जा सकती है। मेरे ब्लॅाग को रोकना इसी एक कड़ी लगती है। वजह चाहे जो भी रहीं हो... अभिव्यक्ति की आज़ादी तो यहां सवालों के घेरे में हमेशा से रही है। पैमरा और पीपीओ कानून के ज़रिए मीडिया को बांध दिया गया है। जिओ न्यूज़ पर अब तक पाबंदी है। जिओ और एआरवाई समेत कई चैनलों के कई एंकरों को शो नहीं करने दिया जा रहा। लाईव शो नहीं हो सकते। सरकारी फैसलों को लेकर असंवैधानिक जैसे शब्द नहीं लिखे जा सकते।
जिओ के पत्रकार जूझ रहे हैं। वो आंदोलन चला रहे हैं कि 'बोल कि लब आज़ाद हैं मेरे...' लेकिन असल आज़ादी अभी दूर नज़र आती है।

http://greensatya.blogspot.com/2006/03/blogger-blocked-in-pakistan.html

http://www.globalvoicesonline.org/2006/03/02/pakistan-blogspot-blogs-blocked-in-pakistan/

http://spiderisat.blogspot.com/2006/03/blogspot-and-other-sites-blocked.html

http://www.zackvision.com/weblog/2006/03/blogspot-pakistan.html

http://ovaiskhan.blogspot.com/2006/03/blogspot-blocked-in-pakistan-some.html

http://valleyoftruth.blogspot.com/2007/12/my-blog-is-blocked-in-pakistan.html

सीमा के उस पार से अपने वतन को देखें!

वाघा बार्डर पर पाकिस्तान की तरफ से ली गई ये तस्वीरें आपको शायद एक अलग तरह का अनुभव दें। सीमा के उस पार खड़े होने से लगता है कि काश दौड़ कर इस तरफ आ पाते... हमवतनों से मिल कर फिर उधर अपने काम पर चले जाते! लेकिन ये संभव नहीं। बीच में एक लकीर खिंची है...




ये तस्वीरें हमारे नेपाली मित्र और सागरमाथा टेलीविजन के पत्रकार अभिजाल बिष्ट के कैमरे की हैं। अभिजाल भी हमारे साथ पाकिस्तान के दौरे पर थे।

Sunday, December 23, 2007

जीत गए मोदी...कांग्रेस ने खो दी...

यही नारा लग रहा था दिल्ली में लालकृष्ण आडवाणी के घर पर। चुनाव नतीजो की तस्वीर जैसे ही साफ हुई...बीजेपी समर्थक टिड्डी दल की तरह निकल आए। उन्हीं के बीच नारा लग रहा था... जीत गए मोदी... कांग्रेस ने खो दी...। इस पर पहले ही कागद कारे कर चुका हूं। कुछ लिखने का मन नहीं कर रहा। बस इतना कि अब तो मोदी को स्वीकारना ही होगा। सिर्फ गुजरात में ही नहीं...शायद पूरे देश में। हिंदुत्व का भूत बलबती होकर लौट आया है। पार्टी इसे आम सभा चुनाव में भी भुनाने में क़सर नहीं छोड़ेगी। संकेत मिल रहे हैं। आडवाणी ने कह दिया है... ये जीत राष्ट्रीय राजनीति का टर्निग प्वाइंट है।

दूसरे संकेत भी हैं। जब पार्टी ने लालकृष्ण आडवाणी को अपना प्राइममिनिस्टीरियल कैंडिडेट घोषित किया तो वेंकैय्या नायडू ने एक सवाल के जवाब में कहा था कि मोदी सिर्फ गुजरात के नेता हैं। उनके केंद्रीय राजनीति में आने का कोई प्रस्ताव नहीं है। आज जब मैंने राजनाथ सिंह के कैटेगोरिकली पूछा कि क्या मोदी सिर्फ गुजरात के नेता हैं...उनकी इस जीत के बाद क्या पार्टी देश भर में उनका इस्तेमाल नहीं करेगी... थोड़ी खीज़ और मजबूरी के साथ राजनाथ बोले...वे पहले से हैं और रहेंगे...

बहुत पेंचदगियां हैं जो आसानी से समझी जा सकती हैं। बीजेपी के भीतर भी और पूरे भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में भी। लेकिन फिलहाल तो एक ही तथ्य है। वो ये कि मोदी जीत गए हैं। वो सोचें जो मोदी के बिना की सोचने की ज़िद पाले बैठे हैं...कि आखिर क्यों जीत गए मोदी और क्यों कांग्रेस ने खो दी...

Thursday, December 20, 2007

मोदी, सोनिया और मीडिया

बड़ा शोर मचा रहा। मोदी...मोदी...मोदी। अब शांत होने लगा है। मतदान हो चुके हैं। नतीज़े का इंतज़ार है। और छटपटाहट भी। मोदी जीतेंगे या हार जाएंगें। गद्दी रहेगी या जाएगी। जनता ने तय कर दिया है। किसी को पता नहीं। पर अंदाज़ा सभी लगा रहे हैं। आप भी और हम भी।

मोदी हारे तो वो वाह-वाह करेंगे जो चाहते हैं कि मोदी हार जाए। ऐसे भी हैं जो कहेंगे देखो ये मेरा कमाल है। पर अगर मोदी जीते तो शायद वो ये नहीं स्वीकार पाएंगे कि देखो... ये मेरा किया धरा है! और मोदी मायावती से भी ज़्यादा तन कर मीडिया से मुखातिब हों तो किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए। वैसे मोदी मीडिया और सोनिया दोनों के शुक्रगुज़ार होंगे। नहीं होगें तो ये उनकी कृतघ्नता होगी। आखिर इन्हीं दोनों ने आखिरी क्षणों में उनकी डूबती-उतरती सांसों को थामा। एक ने मौत का सौदागर कहा तो दूसरे ने इस सौदागर की दुकान सजाए रखी। वैसे ये मेरा व्यक्तिगत विचार है जिसे सबके सामने रख रहा हूं। ग़लत हूं तो सही बताइए।

बीजेपी के कई आला नेता आॅफ द रिकार्ड बातचीत में स्वीकारते हैं कि सोनिया ने अगर मौत का सौदागर नहीं कहा होता तो गुजरात में कमल मुरछा जाता। दरअसल मुसलमान के संहारक के रुप में मोदी इतनी बार दिखाए-पढ़ाए गए कि बात उन हिंदुओं के मन में भी बैठ गई जिन्हें शायद मोदी का बतौर मुख्यमंत्री काम पसंद नहीं आया। यहीं धर्मांधता ने अपना रंग दिखाया। विकास या विनाश के स्थानीय मुद्दे पीछे छूट गए। हिंदू-मुसलमान के बीच का सनातनी-तनातनी को फोकस कर लिया गया। खाली पेट भी जयश्री राम के नारे से खुश रहने वालों के इस देश में बस और क्या चाहिए। आधार तैयार हो गया वोट के पोलराईजेशन का।

अरे मोदी की सत्ता को अपनी मौत मरने देते। बयान आधारित कहानियों की जगह तथ्य आधारित बात करते। गुजरात में विकास नहीं हुआ है तो क्या यूपी और बिहार में हुआ है? और अगर वाकई नहीं हुआ है तो क्या सड़क पर पड़े गढ्ढे दिखाए आपने? क्या भुखमरी दिखा पाए? या फिर सूखे...अकाल में सरकार का नकारापन? नहीं ना? या दिखाया भी तो उसे मुद्दा बना नहीं परोस सके? परोसा तो वोटर क्यों उस थाल में मुंह मारते नज़र आए? नहीं। बस बहस में पड़े रहे। एजेंडा तय करते रहे। लगा इसी से हार तय कर देंगे। अच्छा होता कि मोदी को मुसलमान-विरोधी की बजाए हिंदू-विरोधी साबित कर पाते। शायद ये बेतुकापन ही असर कर जाता!

मोदी इस देश की संवैधानिक व्यवस्था के तहत ही मुख्यमंत्री हैं। क्यों हैं? मौत का सौदागर है तो कैसे बैठे हैं गद्दी पर? बताइए सोनिया जी। बदलिए संविधान। भेजिए इनको अंदर। केंद्र में सरकार आपकी है। खाली बयान देकर 10 जनपथ में मत बैठ जाईए। आपके इस एक बयान ने बड़ा खेल कर दिया लगता है। मोदी फिर आ रहे लगते हैं। एग्ज़िट पोल्स बता रहे हैं। बहुत घटा कर भी उनको 90 तो दिया ही जा रहा है। अगर वो वाकई आ गए तो फिर पांच साल वही करेंगे जो वो चाहेंगे। तब क्या आपका ये बयान काम आएगा? उन मुसलमानों के जिनके घर उजड़ गए। जिनके अपने दंगों के शिकार हुए। आपका क्या। आप तो फिर अगली बार के इंतज़ार में बैठ जाएंगे।

आप मुझे मोदी-समर्थक कह सकते हैं। संघी होने का आरोप भी लगा सकते हैं। अगर मोदी के विरोध का मतलब मोदी के जीत की राह को आसान बनना है तो मैं वैसा संघी बनना पसंद करुंगा जो अपनी महत्ता दिखाने को ही सही...सही में मोदी को नीचे उतारना चाहता है।

फिलहाल तो मोदी की तरफ से सोनिया औऱ मीडिया को बधाई!

Sunday, December 9, 2007

जिनकी दिलचस्पी पाकिस्तान में है उनके लिए...

नमस्कार,
आप में से जिनकी भी दिलचस्पी पाकिस्तान में है वो आज शाम साढ़े सात बजे (भारतीय समयनुसार) एनडीटीवी इंडिया पर आधे घंटे का एक प्रोग्राम देख सकते हैं... 'इमरजेंसी में पाकिस्तान'। वहां रहते हुए जो कुछ भी समेट पाया उसे उन्हीं अर्थों में पेश करने की कोशिश की है मैंने।
फिर बात होती है।
शुक्रिया
उमाशंकर सिंह

Sunday, December 2, 2007

My blog is blocked in Pakistan

dear friends,

i couldn't update my blog from pakistan b'coz it was blocked after 14th Nov. i m back in india now...will keep writing abt my days in pakistan..

thank you...