Tuesday, July 31, 2007

कैसा दु:संयोग है यह?

सुप्रभात,
रवि की प्रथम किरणें लालिमा लिए हुईं
हाथ में प्रथम ग्रास...साथ में अख़बार
दुनिया भर की ख़बरें
वही बासी, घोर कालिमा लिए हुईं


कैसा दु:संयोग है यह
जो बारम्बार घटित हो रहा है
राजनीति-कूटनीति, युद्ध और क्रांति
उन्नति परंतु अवनति
जनकल्याण किंतु स्वार्थसिद्धि
हत्या, हंगामा, जातीय विद्वेष
दंगे, अविश्वास
विभिन्न तरह के कुत्सित प्रयास
नैतिकता का ह्रास...


पता नहीं इसका चरम कहां है
और कहां है अंत
इसी बिंदु पर विचारता
कोई अच्छी सी कविता लिखने की सोच रहा हूं
पर किंकर्तव्यविमूढ़ हूं
कहां से शुरु करुं और किस पर?


वर्तमान के हालात पर
भविष्य की आशंका पर
या भूत के पश्चाताप पर
फिर कहां तक जाउं?
और उसकी सार्थकता क्या होगी?


शायद, चित्त हल्का हो जाए इस कठिन प्रयास से
परंतु ये बोझिल...और बोझिल होता जाता है
ज्यों ज्यों विचारों में गहरा उतरता हूं
अंतत: अंधेरा छा जाता है मस्तिष्क में
और प्रकाशपुंज की आस में
स्वयं को प्रयत्नहीन पाता हूं!

Saturday, July 28, 2007

आस्ट्रेलिया के ब्लॅागर साथियों के नाम एक पैग़ाम

हनीफ को लेकर आस्ट्रेलिया में बहुत कुछ हुआ। आतंकी होने का आरोप लगा। मुकद्दमा चला। जेल हुई। फिर आरोप वापस लिए गए। टीवी, अखबार समेत कई माध्यमों से देश दुनिया तक ये जानकारी फैली। पर मैं जानना चाहता हूं आस्ट्रेलिया में बैठे अपने ब्लागर साथियों से उनकी जुबानी। भारतीय मूल के लोगों में क्या प्रतिक्रिया है वहां। किस तरह से आस्ट्रेलियाई लोगों ने भी आवाज़ बुलंद की हनीफ को बचाने के लिए। आमतौर पर आस्ट्रेलियाई क्या सोच रहे हैं इस हनीफ मामले के बाद...। और ऐसी बहुत सारी बातें।

मैंने कहा कि इस सूचनाओं के हम तक पहुंचने के कई और रास्ते हैं। पर जब हम ब्लॅाग देखने बैठते हैं तो यहां भी इस तरह की सूचनाएं, जानकारी, अनुभव, नज़रिया देखना चाहते हैं। इस मामले में आस्ट्रेलिया में बैठे ब्लागर साथी हमारी मदद कर सकते हैं। अपने ब्लाग पर लिख सकते हैं। हमें पढ़ कर अच्छा लगेगा। अगर कोई मेरे ब्लाग पर ये संदेश देख पा रहे हैं तो।

औऱ सिर्फ आस्ट्रेलिया या हनीफ मामले में ही नहीं... दुनिया में जहां जहां भी हिन्दी ब्लागर साथी हैं... अपने आसपास की सामयिक घटनाओं से संबंधित सूचनाएं हमारे साथ बांटे तो शायद हम खुद को दुनिया के और पास महसूस कर सकें।

शुक्रिया

Thursday, July 26, 2007

हिन्दी टीवी पत्रकारिता और पाकिस्तान में फ़र्क है

बहुत बहस चल रही है। बड़े विचार दिए जा रहे हैं। मोहल्ला से लेकर कस्बा तक। सारी बातें सच हैं। कई झूठ समेटे हुए। मैंने भी इस पर विचारा और लिखा है। टीवी चिंतन : ख़बर पर नज़र काफी पहले लिखा। कोई कालजयी रचना नहीं है। पर आपको आज भी सच लग सकती है क्योंकि हालात बदले नहीं हैं। कुछ विवाद भी हुआ जब मैंने लिखा और मोहल्ले ने छापा क्‍या टीवी संपादक मदारी हो गये हैं ?

दिलीप मंडल ने पूछा कब था पत्रकारिता का स्‍वर्ण काल? शायद ये जताने की कोशिश की कि हर समय हर तरह की धारा चलती रही है। लेकिन शायद वो भूल रहे हैं कि मानस और तकनीकी परिष्करण के एक अलग-अलग युग रहे हैं। पिछले का हवाला देकर अगले को नहीं बांध सकते। निश्चित ही पत्रकारिता का कभी कोई स्वर्ण काल रहा और ना होगा। लेकिन ख़ासतौर पर आज की टीवी पत्रकारिता के संदर्भ में दूरदर्शन का हवाला देकर खुश नहीं हुआ जा सकता। इतराया नहीं जा सकता। मौजूदा हालात पर रवीश ने कहा हिंदी पत्रकारिता का प्रश्न काल । मैं कह चुका हूं शैशवकाल और संक्रमण काल। संदर्भ बेशक बदल जाते हों पर वे एक ही अर्थ रखते हैं।

पर इन कालों के विचार के बीच हमारे सामने सबसे बड़ा सवाल है कि ये बदलेगा कब। बदलेगा कौन। बदलेगा कैसे। मैं किसी एक चैनल के न्यज़ रुम में कुछ बदलाव की बात नहीं कर रहा हूं। उसके फैसले लेने वाली कोटरी के कुछ चेहरे बदलने की बात भी नहीं कर रहा हूं। क्योंकि कमोबेश सब एक जैसे लगते हैं। कोई यहां से वहां चला जाता है कोई वहां से यहां और कुछ नए झंडे बैनर के तले आ जाते हैं। इसलिए बदलाव की ये बात व्यापक परिपेक्ष्य की है। फैसले लेने और व्यवस्था तय करने की हालत में पहुंचने तक या उसके बाद कई क्रांतिकारी-समाजवादी भी पूंजीवाद के शिकार हो जाते हैं। इसलिए मैं हम सबके के अंदर बदलाव की बात कर रहा हूं। हम... जो इस मीडियम में काम करते हैं। हम में से कुछ हैं जो उसूलों, मापदंडों की बात करते हैं। मैं भी करता हूं। ये सब सुनने में बड़ा अच्छा लगता है। लेकिन देखने वाली बात है कि क्या पृष्ठभूमि तैयार हो रही है। हां तो कौन कर रहा है। अगर सिर्फ विचारों की बात है तो विचार कहां तक फैल रहा है। हमारे साथ के कितने लोग उससे प्रभावित हो रहे हैं। बेहतरी के लिए कौन-कौन साथ जुड़ रहे हैं। कोई आत्मचिंतन को विवश भी हो रहा है या नहीं।

किसी चैनल का न्यूज़ रुम अब पाकिस्तान तो है नहीं कि एक रात सैनिक उठेंगे। कुछ संपादक के कमरे में बैठ जाएगें। कुछ पीसीआर में जाकर आॅन एयर जाने वाले कमांड अपने हाथ में ले लेगें। कुछ आउटपुट पर कब्ज़ा कर लेगें। कुछ भूत पिशाची और नंगी काया की नाच वाली स्टोरीज़ को 'ब्लू' करना शुरु कर देगें। कुछ टेप लाईब्रेरी में जाकर नागनागिन वाले आर्काईव्स को मिटाना शुरु कर देगें। और मुशर्रफ की तरह घोषणा कर देगें कि मुल्क... मतलब हिन्दी टीवी पत्रकारिता को अब हम अपनी सोच के हिसाब से चलाएगें। इस तरह से हिन्दी टीवी पत्रकारिता का मौजूदा औघड़ युग बीत जाएगा। किसी के लिए अच्छा होगा तो किसी के लिए बुरा पर ये मीडियम बदल जाएगा। नहीं। ऐसा ऐसे नहीं होगा।

पत्रकारिता को इसके मौलिक सरोकारों की तरफ वापस ले जाना है तो इसके लिए बड़े फोरम पर बहस से भी काम नहीं चलेगा। एक हालिया बहस में जब ऐसे सवाल उठे तो टीवी पत्रकारिता के महानायक समझे जाने वाले ने पतली गली वाला जवाब देना बेहतर समझा। पश्चिम में भारत की छवि सांप सपेरों के देश की रही। इससे हम मुश्किल से उबरने लगे थे। लेकिन हिन्दी पत्रकारिता के कुछ हरकारों ने आवाज़ लगा लगा कर वो दिन दुबारा ला दिए लगते हैं। ये इसे अंग्रेज़ी में नहीं चलाते क्योंकि ऐसा करने पर, अपने उठने बैठने वालों के बीच ही, इनकी पैंट उतर जाएगी। और हिन्दी वालों की नज़र में ये महान हैं सो कोई पूछता नहीं। समस्या हिन्दी व्यूअर्स के च्वाईस की उतनी नहीं जितनी इनके पूअर व्यूज़ की है। बेहतर च्वाईस पेश करने में दिमागी नाकामी की है। इनकी ये हालत है इसलिए नेता भी चढने लगे हैं। किसी मुश्किल मुद्दे पर अपनी गर्दन बचाने के लिए नेता खुलेआम पत्रकारों से प्रतिप्रश्न करने लगे हैं कि 'इस सवाल में क्या रखा है...क्यों पूछ रहो हो... ये क्या टीआरपी देगा।'

उच्च पदस्थों और नीति नियंताओं को भलाबुरा कहना भी ठीक नहीं। मुझे तो दुख तब ज़्यादा होता है जब में अपने बीच के युवा टीवी पत्रकारों को भुतही भाषा में बात करता देखता हूं। किसी मौक़े पर जो कोशिश उसे व्यवस्था-विरोध की एक अच्छी ख़बर दे सकता है उससे वह झट... 'आन द स्पाट' ही ये कह कर निकल लेता है कि 'ये हमारी यहां नहीं चलेगी। एनडीटीवी पर ही चल सकती है।' अब सभी चैनल तो एनडीटीवी नहीं हो सकता जहां उसूलों को महत्व दिया जाता है। रात आठ बजे जहां कई चैनलों पर एक साथ राखी सावंत नाच रही होती है या फिर ज्योतिष भविष्य के फरेब में दर्शकों को फांसे होते हैं...वहीं विनोद दुआ ठसक के साथ ख़बर पढ़ रहे होते हैं। ख़बरदार कर रहे होते हैं। वैसे ये तो बहुत दूर की बात हो चुकी है। कई चैनलों की हालत तो ऐसी है कि उससे जुड़ा अच्छा से अच्छा पत्रकार भी अपनी किसी ख़बर को लेकर अपने दफ्तर को इंसिस्ट भी नहीं करता। समझाने की कोशिश भी नहीं करता। हो सकता है कि पहले कभी किया हो। अब ये मान बैठा हो कि कुछ नहीं हो सकता। पर इसका मतलब ये तो नहीं कि छोड़ दें।

कुछ तो ट्रेन से ही कूद कर भाग लिए अपनी जान बचाने। पत्रकारिता को जर्जर पुल करार देते हुए। बाकी जनता को उसी जर्जर पुल के सहारे गुज़रने को अभिशप्त छोड़। और फिर शान से एक भगोड़े मीडियाकर्मी का बयान देते हैं। अरे नहीं भाई। रेस्ट इफ यू मस्ट बट डोंट यू क्विट...वापस आ जाओ। मज़बूत खंभा बनो। पुल को मज़बूती दो।

Wednesday, July 25, 2007

आपके सुझावों की दरकार है

मैंने नीचे की पोस्ट दिमागी तौर पर बहुत परेशान और विवश होकर लिखा था। इस पोस्ट के ज़रिए मैं जो भी कुछ कहना चाह रहा था वो कह चुका और सम्मानित ब्लागर समुदाय ने मौन रह कर ऐसी बेतुकी चीज़ों को प्रोत्साहन नहीं देने पर अपनी सहमति जता दी है। इसलिए अब मैं अपने इस एक तरह के नकारात्मक पोस्ट को ब्लाग से हटा रहा हूं। मेरा ऐसा करना आप में से किसी ग़लत लगे तो बता सकते हैं।

Sunday, July 22, 2007

जिस भैंस को राखे साईयां... मार सके न शेर!

youtube पर जारी ये दृश्य कई मायनों में अद्वितीय हैं, आप भी देखें।


COURTESY:YOUTUBE

बिहार का सफ़र और मेरी पत्नी की नज़र


कैमरे के सामने रहने वाली तरु ने कैमरे के पीछे अपनी क़ाबिलियत दिखाने की कोशिश की है। उन्होने अपनी पहली बिहार यात्रा को अपने मोबाईल कैमरे में कुछ इस तरह उतारा है। पटना से मधुबनी तक के इस सफ़र में मैं गाड़ी चलाता रहा और मेरी पत्नी अपना मोबाईल कैमरा।
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टेम्पो की छत पर टीवी के साथ सवारी।
जीप पर लदे लोग






















लड़कियों का स्कूल से क्या लेना देना? भैंस तो चराना ज़रुरी है क्योंकि इसी से रोज़ी-रोटी मिलती है

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अरे किसी तरह एक बस मिली है कैसे छोड़े दें दूसरी कब आएगी नहीं आएगी पता नहीं


आप को रुकना पड़ा तो क्या... हम तो बीच सड़क ही टायर की हवा देखेंगे



बस! किसी तरह पहुंचना है
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बिहार में लोग ऐसे सफ़र के आदी हैं। बस-टेम्पो की छत पर सफ़र अपनी आंखो से देखना तरु के लिए नया अनुभव रहा। आप में से कईयों को ऐसा अनुभव होगा।

Friday, July 20, 2007

जलप्रपात

अपने उदगम से निकल कर
दूरी तय करती

प्रपात बिन्दू तक पहुंच कर
उंचाईयों से गिरती

चट्टानों से टकरा कर

अपने तल को ढ़ूंढती
जलधारा।

मैंने देखा नहीं है
पर सोचता हूं

ऐसा ही होता होगा
जलप्रपात।

Thursday, July 19, 2007

राष्ट्रपति के हाथों रामनाथ गोयनका अवार्ड लेते रवीश






रवीश के कुछ यादगार पल









राजदीप (ऊपर) और माता-पिता व पत्नी के साथ रवीश

Wednesday, July 18, 2007

क्या वाकई सारे मर्द एक जैसे होते हैं?

'मर्द पर भरोसा नहीं किया जा सकता। आप तो जानते हैं। वो किस काम से कब कहां होते हैं। किनसे संबंध बनाते है। बीमारी लगाते हैं। फिर आप में फैलाते हैं। ख़ास तौर पर जब दारू पीकर आते हैं तो कंडोम लगाने का ख़्याल नहीं रहता है। आप कंडोम लगाने के लिए कहने से झिझकें नहीं। वो ना लाए तो आप ख़ुद कंडोम ख़रीदें।' - ये रेणुका चौधरी के बयान हैं। वो केन्द्र सरकार में महिला एवं बाल विकास मंत्री हैं। उन्होने ये बातें बीते सोमवार को एड्स जागरुकता से जुड़े एक कार्यक्रम में कहीं।

रेणुका के इस बयान के कई पहलू हैं। ये अलग बात है कि मंगलवार को जब इस मसले पर मैंने उनसे बात की तो वो थोड़ी सी पलटती नज़र आयीं। कहा कि मैंने ऐसा देश के सारे मर्दों के लिए नहीं कहा है। ये नहीं कहा कि सारे मर्द भरोसे के क़ाबिल नहीं हैं। मैंने ये सलाह सिर्फ उन महिलाओं को दी है जो अपने पति की ग़लत हरकतों की वजह से एड्स की शिकार हो गई हैं। रेणुका ने साथ में ये भी जोड़ा कि उनके ऐसा कहने से 'अगर किसी मर्द का दिल घबरा रहा है तो उसे अपने गिरेबां में झांक कर देखना चाहिए।'

मैंने उनके सोमवार के बयान के टुकड़े को पूरा सुना। एक परिदृश्य में वो घर से...पत्नी से...दूर जाकर काम करने वाले मर्दों की बात कर रही थीं। उनके 'दायें-बाएं' चले जाने की बात कर रही थीं जो एक हद तक सच है। पर व्यापक परिदृश्य में उनका इशारा उन सभी मर्दों की तरफ था तो पत्नी के साथ रहते हुए भी भरोसे के लायक काम नहीं करते। चाहे वो शहरी हो ग्रामीण। पढ़े लिखे हों या अनपढ़। वेलआफ हों या आर्थिक रुप से कमज़ोर।

उनके इस बयान के और भी कई आयाम हैं। इन पर विवाद भी है। पहला कि क्या रेणुका को इस तरह से पूरी मर्द प्रजाति पर सवाल उठाने का अधिकार है। नहीं कहने वालों का तर्क है कि सारे मर्द एक जैसे नहीं होते। बहुत भरोसेवाले भी होते हैं जो अपनी पत्नी के साथ भरोसे का रिश्ता जीते हैं। इसलिए ये बयान 'राम' जैसे मर्दों को भी धिक्कारने जैसा है। सबको एक हल में जोतने जैसा है।

लेकिन रेणुका की बातों में सच्चाई देखने वालों की भी अपन दलीलें हैं। वे कहते हैं कि मर्दों ने अपनी प्राक़तिक रचना का इतना फ़ायदा उठाया है कि उसे जब भी जहां भी मौक़ा लगा है मुंह मारने से नहीं चूका है। कौमार्य रक्षा का बंधन मर्दों पर नहीं। पैर उनके भारी होते नहीं। सारे क़ायदे महिलाओं के लिए बने हैं। पुरुष तो कुलटा भी नहीं होते। शरीर या समाज के प्रति किसी जवाबदेही के आभाव ने पुरुषों को स्वच्छंदचारी बना दिया है। ऐसे में कुछ 'राम' भी होगे तो गिनते में नहीं आते।

एक और विचार है। वो ये कि रेणुका ने बात तो सही कही लेकिन ऐसा कहना नहीं चाहिए। वो इसलिए कि अगर एड्स पर काबू पाना है तो मर्दों को साथ लेकर चलना पड़ेगा। उन्हें ग़ैरज़िम्मेदार कह ज़िम्मेदारी का एहसास नहीं करा सकते। वो छिटक जाएगें। ऐसे में एड्स को लेकर सरकारी जागरुकता प्रोग्राम या नीति पर अमल मुश्किल होगा।

मैं यहां कोई ब्लागमत सर्वेक्षण नहीं करवा रहा। पर चाहता हूं कि आप भी सोचें और बताएं। कि क्या रेणुका ने जो कहा सही कहा। या ग़लत कहा। या उन्होंने सही बात कह कर ग़लती की है।

शुक्रिया

Monday, July 16, 2007

कहीं आपकी फ़ाईल भी तो नहीं अटकी है?

फ़ाईलें चलती हैं। उनकी अपनी चाल होती है। कई बार वो तेज़ी से चलती हैं। कई बार बहुत स्लो। इतनी कि एक टेबल से बगल वाली टेबल तक पहुंचने में दिनों लग जाते हैं। एक महकमे से दूसरे महकमे तक पहुंचने में तो महीनों। जिस मक़सद से फ़ाईल चली हो उसे पूरा होने में तो कई बार ज़िंदगी भी खप जाती है। जिसके लिए उस फ़ाईल को चलना होता है वो चल बसता है पर फ़ाईल नहीं चल पाती।

पदोन्नति की फ़ाईल। पुरस्कृत करने की फ़ाईल। तबादले की फाईल। नौकरी की फ़ाईल। कोर्ट-कचहरी की फ़ाईल। मुआवज़े की फ़ाईल। पेंशन की फ़ाईल। सरकारी लोन की फ़ाईल। जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र की भी फ़ाईल। अस्पताल में दाख़िले की फ़ाईल। डिस्चार्ज होने की फ़ाईल। मंत्रालय की फ़ाईल। सरकारी ख़रीद फ़रोख्त की फाईल। बोफोर्स और डेनेल आर्म्स डील की फाईल। केस की फ़ाईल। सीबीआई की जांच की फ़ाईल।

फ़ाईलें तमाम तरह की होतीं हैं। कईं फ़ाईलें एक साथ चलती हैं। उनमें कईयों से हमारा सीधा सरोकार होता है। कईयों से पाला नहीं पड़ा होता है। जिनसे पड़ता है उन्हीं के बारे में समझ में आती है। पहले तो गैस और टेलिफोन कनेक्शन की भी फ़ाईलें चला करती थीं। बिजली मीटर लगाने की फ़ाईल। इन फ़ाईलों की तादाद घटी है क्योंकि अब फ़ाईलों की जगह 'मेलें' चलने लगी हैं। वो ख़ासतौर पर प्राईवेट दफ्तरों। यहां फ़ाईलें आगे नहीं बढ़तीं। यहां मेल फार्वर्ड होतीं हैं। इसके अपने गुण दोष हैं। कई बार पेंडिग बॅाक्स में डाल दी जाती हैं। शो ऐज़ अनरेड। कई बार तुरंत फार्वर्ड होती हैं। फ़ाईल लाने ले जाने वाले पिउन की भी ज़रुरत नहीं होती। बस मेल भेजना होता है। भेज कर बार इतल्ला भी करना होता है। 'डिड यू सी माई मेल। आई हैव जस्ट सेंट टू यू।' मेल पर सारा काम होता है। दूसरों का किया भी अपने नाम होता है। कुछ इसे मेल का खेल कहते हैं।

मेल को छोड़िए। उस संसार पर बात और कभी। अभी हम बात कर रहे हैं फ़ाईलों की। फ़ाईल किस चाल से चलती हैं ये फ़ाईल चलाने वालों की चरित्र पर डिपेंड करता है। फ़ाईलों की स्पीड घटाने-बढ़ाने के पीछे इनकी कुछ अपनी चालें होती हैं। कई बार वो चाल सीधे समझ में आ जाती है। कई बार घुमाफिरा बतायी जाती है। एक किरानी दूसरे के पास भेजता है। दूसरा तीसरे के पास। तीसरा फिर पहले के पास। इस चक्कर में कई ऋतुचक्र निकल जाती हैं।

फ़ाईलों को आगे बढ़ने के लिए चढ़ावे का बड़ा चक्कर है। क्लर्क स्तर पर ये चक्कर 10 से लेकर 10,000 तक का.... कुछ भी हो सकता है। इसमें बिचौलियों का भी बड़ा रोल होता है। जो फ़ाईल आपके जूते घिसने से आगे नहीं बढ़ती...इन बिचौलिए को बीच में लाते ही बढ़ जाती है। ये बड़े एक्सपर्ट होते हैं। किस बात की फ़ाईल है या किस अफ़सर के पास फ़ाईल है ये जाना नहीं कि तुंरत बड़बड़ा देते हैं। कह देते हैं कि 'जानता हूं उसे.... बड़ा काईयां हैं। बिना लिए दिए मानेगा नहीं। आप देख लीजिए क्या कर सकते हैं।'

फ़ाईलें छोटी और बड़ी भी होती हैं। बड़े लेबल की फ़ाईल पर चक्कर भी बड़ा होता है। वहां लेबल आफ इंटेरेस्ट अलग होता है। अंबानी के सेज़ की फाईल मुलायम बढाएं तो अलग बात होती है। मायावती रोके तो अलग। फिर मायावती भी फ़ाईल आगे बढ़वा दें तो कहानी बदल चुकी होती है। कुछ भी हो पर टाटा-बिड़ला जैसे पूंजीपतियों की फ़ाईलें कभी रुकती नहीं। उनकी फ़ाईलों की कांपियां भी कई होती हैं। एक अटकी हैं तो दूसरी चल पड़ती हैं। बंगाल में अटकती है तो हरियाणा में आगे बढ़ जाती है। सरकार बदलने के साथ कई बार फ़ाईलें खोली और बंद भी की जाती हैं। अपनो की बंद की... राजनीतिक विरोधियों की खोल ली।

'फक्करों' की फ़ाईल की तस्वीर अलग होती है। फ़ाईल आगे बढ़ने से उसकी ज़िंदगी बंधी होती है। और जहां किसी तरह का बंधन हो वहां फ़ाईल तेज़ी से कैसे मूव कर सकती है। वो धूल खाती है। वो वसूली मांगती है। नहीं मिलने पर वो गुम जाती है। वो ढ़ूंढ़ने पर भी नहीं मिलती है। मिलती है तो उस पर बड़े बाबू के दस्तख़्त नहीं हुए होते। 'फ़ाईल अभी नहीं देखी है.... फ़ाईल मेरे पास नहीं आयी है... पता करो फ़ाईल कहां है...' जैसे जवाब मिलते हैं। जबकि फ़ाईल वहीं कहीं होती है। वहीं अफ़सर दबा के बैठा होता है।

तो फ़ाईलें दबती भी हैं। पूरी नहीं सही तो उसमें से कुछ रिकार्ड तो ग़ायब हो ही जाते हैं। कई बार तो दफ्तरों में आग लगती है और फ़ाईलें जल जाती हैं। कुछ बचता ही नहीं। क्या कर लोगे।

Thursday, July 12, 2007

जो पाले उसी का कर दो नाश

मिट्टी पानी का खुराक
और धूप, हवा, छांव भी
पौधे ने गमले से सब कुछ लिया
पेड़ बनने के क्रम में।

पौधा गमले में अपनी जड़ें फैलता गया
पेड़ बनने के क्रम में।

और एक दिन,
पौधे ने गमले को ही चटका दिया
पेड़ बनने के क्रम में!!!

Wednesday, July 11, 2007

आओ 'लाईन' मारते हैं...रंगत बदल बदल कर

ब्लू लाईन बसें इन दिनों सुर्खियों में हैं। दरअसल 1995 में दिल्ली की सड़कों पर रेड लाईन बसों का आतंक रहा। फिर दिल्ली सरकार ने एक अजीबोगरीब फैसले के तहत इन बसों की रंगत लाल से ब्लू करने का फ़रमान जारी कर दिया। बसों का रंग बदल देने मात्र से क्या बस आॅपरेटर-ड्राईवर अपनी रंगत बदल लेगें...ये सवाल मेरे दिमाग में उठे क़रीब एक युग होने को आया। इस पर जो कुछ लिखा वो 27 जनवरी 1996 को नवभारत टाईम्स में 'कांटे की बात' कालम में प्रकाशित हुआ। आपके सामने फिर पेश कर रहा हूं।

दो बसों में होड़ लगी थी। एक दूसरी को पछाड़ने की कोशिश में संकरी सड़क पर भी दोनों तीव्र गति से भागी जा रहीं थीं। एक बस ने दूसरी से कहा, 'अब तो तू पीछे हो चल। तू अब रेड लाईन नहीं रही। तेरा रंग अब लाल नहीं रहा। तेरे बदन का रंग अब धीरे धीरे नीला पड़ गया है।'

दूसरी ने पलट कर कहा, 'त्वचा का रंग नीला पड़ गया तो क्या हुआ। मन थोड़े ही नीला पड़ा है। बल्कि ये नीलापन तो मेरे अंदर के ज़हर को ही दर्शाता है। और मेरे ड्राईवर की धमनियों में बहने वाला रक्त तो अभी भी रेड ही है। उसकी तो त्वचा का रंग भी नहीं बदला। मानसिकता बदलने की बात तो दूर। वह तो अभी भी मेरी स्टीयरिंग और एक्सिलेटर के साथ वैसी ही अठखेलियां करता है, जैसी पहले किया करता था। ब्रेक लगाने के मामले में वो अब भी वैसा ही बेपरवाह है। कभी तो झटके से लगा देता है...कभी लगाता ही नहीं। सचमुच बड़ा झेड़ता है मुझे। कंडक्टर सवारियों को पूर्व की भांति ही मुझमें ठूंसता रहता है। हैल्पर मुझ पर थाप देकर और सीटी बजा कर मेरी गति को और रोमांचकारी बना देता है। वो तो शुक्र है कि हम टाटा और लीलैंड जैसे घरानों में पैदा हुए हैं वर्ना.....।'

लेकिन सुना है अब तुममें स्पीड कंट्रोलर नामक कोई यंत्र लगाया जा रहा है। अब तुम पहले की तरह अपना तेवर नहीं दिखा पाओगी।' 'अरे छोड़ो ये सब कहने की बातें हैं। मन को कौन बांध पाया है भला। मेरा ड्राईवर बड़ा होशियार है। दिपु (दिल्ली पुलिस) को देखते ही यंत्र का कनेक्शन कर देता है। और उसके गुज़रते ही हटा देता है। हमारे आपरेटर कुछ दिनों में कुछ ऐसा आविष्कार कर ही लेगें जिससे ये आटोमैटिक हो जाए। अर्थात जिप्सी को देखते ही 40 की स्पी़ड नहीं तो इस्केप वेलोसिटी! और फिर हमारे सभी आपरेटर प्रत्येक रेड लाईट एवं गोलचक्कर पर हर महीने 100 रुपये दक्षिणा क्यों देते हैं। सिर्फ इसलिए न कि मैं बेधड़ रेड लाईट जंप कर सकूं। अपने पायदानों पर भी सवारियों को यात्रा सुख दे सकूं। नियत गति से तेज़ चल सकूं। कहने का मतलब की राजधानी की सड़कों पर मनमानी कर सकूं।'

'लेकिन फिर से ऐसा करने से तो तुम ब्लू लाईन वालों को भी बदनाम कर दोगी।'...'तो ब्लू लाईन वाले भी कौन से दूध के धुले हैं। वे तो और भी ब्लू हैं। फ़र्क सिर्फ इतना है कि अख़बार वाले नाहक ही हमारे पीछे पड़ गए। शायद हमारी दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की से जल गए और हमें बदनाम कर दिया। जबकि अन्य 'लाईनवाले' भी हम से किसी भी माने में कम नहीं हैं। अब देखो न, हम रेड लाईन वालों पर ही आरोप लगा कि हम लोगों की जान से खेलते हैं। बात थोड़ी बहुत सच भी हुई तो क्या। दूसरी प्राईवेट बसवालों ने तो महिलाओं की इज्ज़त से खेलना शुरु कर दिया... और तीन लगातार दिनों में तीन बलात्कार कर डाले (ये वारदात उन दिनों व्हाईट लाईन और चार्टर्ड बसों में हुईं थीं)हम लोगों को कम से कम इज्ज़त की मौत तो देते हैं। और फिर बिजनेस में रिस्क कवर तो करना ही पड़ता है। हमने भी किया। इसी रिस्क कवर करने के क्रम में कुछ मानव रक्त बह गया जिसके कारण हमारी 'रेडनेस' को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया गया। असल में हमारी तरफ से भी कुछ ग़लतियां हुईं। 'दिपु' की तरह इन अख़बार वालों को 'कुछ' देते रहते तो शायद इस बात को वे आगे तक नहीं बढ़ाते।'

'लेकिन हमने सुन रखा है कि इन्होने हर प्रकार की विसंगतियों को जनता के सामने लाने का ठेका लिया हुआ है। इसलिए कुछ भी आफर करते हुए डर लगता है। हालांकि मुलायम सिंह वाले प्रकरण से कुछ आस बंधी थी। लेकिन इन 'काम के लोगों' को पत्रकारिता जगत से परे मान लिया गया। उनकी जगह 'टुटपुंजिया लेखक' अपने को अधिक आदर्शवादी साबित करने में लग गया। हो सकता है कि इन लोगों को आपस में ना बनती हो। फिर दिल्ली पुलिस को उसके सजीले परिधानों से पहचान भी लें। लेकिन इन पत्रकारों को पहचानना आजकल ज़रा मुश्किल काम है। कोई व्यक्तित्व ही नहीं है। जिसे देखो वही अपने को पत्रकार कहता फिर रहा है। ऐसे में सबों को खुश रखना अपने बूते की बात नहीं है। वो तो भला हो सरकार का जिसने हमें विकल्प सुझा दिया है। अब ब्लू रंग की आड़ में हम अपने 'लाल अस्तित्व' को क़ायम रख सकेंगे।'

मतलब वही हुआ जिसका डर था। अब ब्लू लाईन वालों पर भी पाबंदी की बात हो रही है। रेड लाईन ख़त्म कर ब्लू लाईन बनी। देखते हैं अब इन बसों को दिल्ली सरकार अब क्या रंगत देती है। किसी ना किसी रंग में ये 'लाईनें' चलती रहेंगी...मरेंगी नहीं... दिल्ली की जनता बेशक सड़कों पर मरती रहेंगी।

Tuesday, July 10, 2007

अंतरिक्ष में कल्पना की मौत का भयावह मंज़र

1 फरवरी 2003 को कोलंबिया हादसे ने कल्पना चावला समेत 7 अंतरिक्ष वैज्ञानिक की जान ले ली। टेलिविजन पर अबतक हमने कोलंबिया के कुछ टूटे हूए मलवे की ही तस्वीर देखी थी। लेकिन नीचे कुछ ऐसी तस्वीरें हैं जो कोलंबिया में आग की शुरुआत से लेकर अंत तक की स्थिति बयां करती है। ये एक इस्रायली स्पेस शटल से ली गई तस्वीरें हैं। स्पेस शटल कोलंबिया के आसमान में इस तरह आग के गोले में तब्दील हो जाने से मिशन स्पेशलिस्ट कल्पना चावला के अलावा जिन 6 अंतरिक्ष वैज्ञानिकों की जानें गईं वे हैं... उनमें एक और महिला थीं। मिशन स्पेशलिस्ट लाउरेल क्लार्क। बाक़ी पांच अंतरिक्ष यात्री थे 1. विलयम सी मैककूल (पायलट) 2. रिक डी हसबैंड (कमांडर) 3. इयान रमोन (पेलोड स्पेशलिस्ट) 4. माइकल पी एंडरसन, (पेलोड स्पेशलिस्ट) 5. डेविड एम ब्राउन (मिशन स्पेशलिस्ट)

इन सबों को हमारी श्रद्धांजलि !

Saturday, July 7, 2007

उत्तरी ध्रुव पर डूबता सूरज - एक तस्वीर

उत्तरी ध्रुव पर अस्त होते सूरज की ये तस्वीर मुझे मेरे एक मित्र ने ईमेल के ज़रिए फारवर्ड की है।
इस अदभुत नज़ारे को आप भी देखें।

Friday, July 6, 2007

बोल्‍ड लेखनी के नाम पर ग़ाली-गलौज नहीं चलेगी

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संगीता तिवारी स्टार न्यूज़ से जुड़ीं हैं। ये पत्रकारिता में जितनी सक्रिय हैं उतनी विचारों की दुनिया में भी। साहित्य में ग़ालियों की भाषा का इस्तेमाल हो या नहीं इस पर इनसे यूं ही बात हुई। बोल्ड लेखनी के नाम पर जिस तरह की स्वच्छंदता चाही जा रही है संगीता उस बात से इत्तेफ़ाक नहीं रखतीं हैं। वे ऐसी लेखनी चाहतीं हैं जिसमें समाज का चेहरा भी साफ हो जाए और अनर्गल शब्दों के प्रयोग से भी बचा जाए। पूरी बात संगीता तिवारी की ही कलम से...

साहित्य में गालियों का इस्तेमाल क्यूं नही..इस पर बहस छिड़ी है..दरअसल ये बहस नयी नही है..इसपर कई बार पहले भी काफी चर्चा हो चुकी है लेकिन बात महज गालियों की नही बल्कि भाषा को लेकर होती रही है ..मृदुला गर्ग की लेखनी से लेकर ओमप्रकाश वाल्मिकी तक की लेखनी पर खूब कागद कारे किए गए इस बहस में..इस बहस की शुरूआत उस दौर में हुई जिसमें भाषा के आधार पर बोल्ड लेखनी की परिभाषा गढ़ी गयी..कहा गया यथार्थवादी चित्रण हो रहा है..समाज जैसा है वैसा सामने रखा जा रहा है...एक तर्क ये आया था कि दलित साहित्य अगर लिखा जाएगा तो उसी भाषा में जिस भाषा का वो आपसी बातचीत में इस्तेमाल करते हैं..लेकिन यहां चर्चा का दायरा इतना विस्तृत नही है..बात सिर्फ गालियों की हो रही है...साहित्य को समाज का आईना माना जाता है. अगर हमारे समाज में गाली के लिए जगह है तो फिर साहित्य उससे इतर कैसे हो सकता है..यानि गाली के लिए भी जगह होनी चाहिए..दरअसल ये बहस इसपर नही होनी चाहिए कि गाली साहित्य का हिस्सा बन सकती है या नही बल्कि बहस इसपर होनी चाहिए कि इसकी सीमा क्या हो..समाज के अलग अलग वर्ग में गालियों का दायरा भी अलग है..हम किसे आधार मानेंगे..

निजी तौर पर मेरी राय है कि गालियों में भी एक चुनाव होना चाहिए..क्यूंकि साहित्य का काम सिर्फ आईना सामने रखना नही बल्कि अगर कहीं उसमें धुंधलापन है तो उसे भी साफ करना होता है..इसलिए मैं तथाकथिक बोल्ड लेखनी के नाम पर धड़ल्ले से गाली के इस्तेमाल की पक्षधर नही हूं। उमाशंकर सिंह से इस मुद्दे पर यूं ही बात हुई उन्होंने ही बताया कि ऐसी कोई बहस छिड़ी है..मौका मिलते ही मोहल्ला घूम कर आयी। अविनाश जी ने गालियों के प्रयोग को बड़ा तार्किक आधार देने की कोशिश की है..लेकिन अविनाश जी का भदेस का तर्क कहीं से भी तर्कसंगत नही है.. उदाहरण संदर्भों से काट कर नही पेश किया जा सकता। जिन गालियों की बात उन्होंने की है वो हमने भी सुनी है, लेकिन उसके संदर्भ क्या होते हैं ये समझना जरूरी है..हमारा भी सामाजिक दायरा वही है जो उनका है..शादी ब्याह के मौके पर गायी जाने गाली को उदाहरण के तौर पर पेश किया जाना अखर गया..अविनाश को शायद सिर्फ गालियां याद रह गयी..पूरी गीत या उसका भाव नही...औऱ हां मैं गीत का उदाहरण देकर बता सकती हूं कि उसमें भी एक सलीका होता है..

हां एक और बात गाली के पक्ष में ग्रामीण जीवन का उदाहरण धड़ल्ले से दिया जाता है..वहां की जिंदगी और बोलचाल का हवाला दिया गया है..लेकिन गांव, गांव का जीवन और उसके मुद्दे हमने भी करीब से देखा है..लेकिन ऐसा गांव नही मिला जहां गालियों को मान्यता मिली हो..उसका इस्तेमाल बुरा नही माना जाता हो..गांव और गंवई जीवन के बारे में प्रेमचंद ने भी लिखा था..ऐसा लिखा जिसकी प्रासंगिकता आज भी है ..आज भी गांव में उनके चरित्र नज़र आ जाते हैं...समय के साथ धुंधले नही पड़े उस यथार्थ के चित्रण में उन्हें गालियों के प्रयोग की जरूरत नही पड़ी.. हालांकि वो जिस वर्ग की बात कर रहे थे उसके बारे में आज लिखा जाता है तो बोल्ड लेखनी की जाती है...शायद अविनाश के नजरिये से देखे तो प्रेमचंद की लेखनी यथार्थ के करीब नही मानी जा सकती।

दरअसल इन तथाकथित यथार्थवादी लेखकों को आदत पड़ गयी है समाज के अलग अलग हिस्सों को एक फ्रेम में जड़कर देखने की। अगर दलित है तो वो गालियों का इस्तेमाल तो करेगा ही..ये इन लेखकों की सवर्ण मानसिकता है..जहां दलित या समाज के निचले तबके से आने का मतलब है गाली की जुबान..आप ये क्यूं मानकर बैठे हैं कि परिष्कृत भाषा समाज के किसी तबके की बपौती है.. इन्हें समझाओ की कि ऐसा नही है..बदलाव सब तरफ है..एक काम करने वाली जो दलित है भले ही उसने कभी गाली की जुबान बोली हो लेकिन अपने बच्चों को वो बेहतर भाषा देना चाहती है औऱ इस कोशिश में उसने अपनी जुबान भी सुधारी है..फ्रेम में जड़ देखना बंद करें ये यथार्थवादी लेखक..यथार्थ का चेहरा भी बदला है पिछले सालों में...

अच्छा लगा कि इसपर बहस तो छिड़ी है..विस्तार देने की कोशिश करूंगी

Wednesday, July 4, 2007

मुझे नहीं रहना अविनाश के 'मोहल्ले' में

प्रिय अविनाश भाई,

'मोहल्ला' पर मेरे जो भी लेख हैं (उमाशंकर सिंह का कोना) उसे तुंरत प्रभाव से हटा दो । साथ ही मेरे ब्लाग का लिंक (उमाशंकर सिंह... सच की वादी) भी। वजह अगर ज़रूरी हुआ तो ज़रुर बताउंगा।

शुक्रिया
उमाशंकर सिंह