तो अगली सुबह यानि 19 दिसंबर को चुसूल के लिए निकलना था। जो गर्म कपड़े हम पहन कर गए थे वो नाकाफ़ी थे। सेना की तरफ से हमें स्नो बूट, मोटी जुराबें, मोटी जैकेट जैसी चींज़ें दी गईं। (आप ऊपर जिस तस्वीर में मुझे देख रहे हैं... सिर से पांव तक 16 कपड़े पहने हुआ हूं। इसलिए इतना मोटा दिख रहा हूं।) हम हर तरह से लैस हो चुके थे। इंतज़ार सुबह का था।
वो सुबह आयी भी। सेना की महिंन्द्रा जीप और सेना के ही ड्राईवर देविन्दर के साथ निकले। लेकिन हमें बता दिया गया था कि आज सीधे हम चुसूल नहीं पहुंच सकते। रात को तांगसे में रुकना होगा जो कारू से है महज़ 60 किलोमीटर पर पहुंचने में लगेंगे 8 से 10 घंटे। बर्फ भरे रास्ते के हिसाब से वहां तक पहुंचते पहुंचते ही शाम हो जाने की उम्मीद थी। चुसूल उससे भी क़रीब ४० किलोमीटर आगे है। तो पड़ाव तांसगे ही करना था। लेकिन क़िस्मत में कुछ और ही लिखा था।
हम निकल पड़े। हल्की घूप निकल आयी थी। लेह के बारे में दिलचस्प जानकारी ये है कि यहां सबसे ज़्यादा क्लोज़ वेदर होता है यानि बादलों से घिरा मौसम लेकिन सबसे ज़्यादा सनी डेज़ भी यहीं होता है। मतलब बादल आते हैं छाते हैं पर किसी ना किसी समय चमकता सूरज भी दिखाई पड़ जाता है। ये मेरी जानकारी कहती है। ऐसी ही एक और जानकारी है कि लेह एक ऐसी जगह जहां एक ही समय में फ्रास्ट बाईट और सन बर्न हो सकता है। कैसे? ये जानना दिलचस्प है। अगर घूप खिली है तो वो काफी तीखी होती है। आप नंगी पीठ किए घूप सेंक रहे हैं तो आपकी पीठ पर सनबर्न हो सकता। लेकिन सामने की तरफ बह रही ठंडी हवा से आपको फ्राॅस्ट बाईट हो सकता है। हालांकि नंगी पीठ यहां कोई धूप नहीं सेंकता लेकिन जानकारी दिलचस्प है इसलिए ज़िक्र कर रहा हूं।
हम कारू से ३-४ किलोमीटर आगे निकल आए थे। भारत-अक्साई चीन सीमा देखने का जोश हिलोरें ले रहा था। लेकिन वो अभी दूर था। सामने की सड़क
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मैं अपनी जीप की आगे की सीट पर बैठा था। मैने संजय से कैमरा मांगा और रोल करना शुरु कर दिया। देविन्दर ने बोला आगे नहीं जा सकते। मैं वापस लौटने के मूड में नहीं था। देविन्दर ने मज़ाक में कहा साब उपर से ज़्यादा बर्फ गिरी तो हम उसमें दब जाएगें. बह कर कहां जाएंगे पता नहीं। दो तीन साल बाद हंसते हुए मिलेगें। खाली शरीर में जान नहीं होगी। बाक़ी हमारी बाॅडी बर्फ में खराब नहीं होगी। मैने कहा चलो दुनिया से जा कर भी एक स्टोरी दे जाएगें। ये सारी बातें १०सेकेंड के भीतर हुईं। हम सभी हंसे। लेकिन जल्दी फ़ैसला लेना था। एक सच्चे फौज़ी की तरह देविन्दर को आदेश का इंतज़ार था। उसने जीप बैक करना तब तक शुरु नहीं किया जब तक मैंने नहीं कहा। मैंने भी फैसला लेने में मुश्किल से एक मिनट लगाए होगें। तब तक जीप के पीछे भी बर्फ फिसलने की आहट हुई। रियर मिरर में देविन्दर ने ये देख लिया। जीप से बाहर हम निकलना नहीं चाहते थे क्योंकि तीन लोगों की सांसों से जीप के भीतर तब हल्की गरमाहट पैदा हो गई़ थी।
सर्दी हार गला देने वाली थी। देविन्दर ने तेज़ी से रिवर्स गियर डाल जीप पीछे लिया। पीछे सड़क कुछ दूर तक सीधी थी। ये राहत की बात थी। जीप जैसे ही पीछे हुई सामने वाली जगह पर बर्फ भरभरा कर गिरी। इतनी गिरी की जीप वहां होती तो उसे अपने साथ लेते हुए बायीं तरफ की हज़ारों फीट की गहराई में बह जाती। सड़क बंद हो चुकी थी। हम थोड़ी देर के लिए जीप से बाहर आए। हालात का जायज़ा लिया। देविन्दर बोला सर वापस कारु जाना होगा। और कोई उपाय नहीं है। मैने पूछा बर्फ के उस पार जो जवान रह गए हैं वो क्या करेगें। देविन्दर ने बताया वो पैदल मार्च करेगें अगले ट्रांजिट कैंप तक। गाड़ी फंसने की हालत में यही स्टैंडिंग आर्डर होता है। सेट पर बात कर भी बातें तय होती हैं। ख़ैर हमारे पास कारू लौटने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। हम वापस लौट आए। पता चला कि एवलांच कई जगहों पर हुआ है और ऐसा हुआ है कि कम से कम तीन दिनों तक रास्ता क्लियर होने की उम्मीद नहीं है।
तीन दिनों तक हम बैठे नहीं रह सकते थे। पता किया इन तीन दिनों का इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं। क्या कारगिल की तरफ जा सकते हैं। पता चला लेह से कारगिल तक का रास्ता भी रिस्की है पर भारी बर्फबारी में भी ये कभी कभार ही बंद होता है। उस समय कोई दिक्कत की ख़बर नहीं थी। फिर हमने अपने प्रोग्राम बदला। कारगिल और द्रास की तरफ निकल गए। इस यात्रा के बारे में आगे बताउंगा। अगली कड़ी में बताउंगा कि आख़िर कैसे हम चुसूल के थाकुन ओपी तक पहुंचे। आपको भी रोमांच का अनुभव होगा।
चौथी कड़ी में जारी... (इंतज़ार कराने के लिए माफ़ी चाहता हूं)
2 comments:
ब्लॉग की दुनिया में आपका स्वागत है। जैसी और जिस किस्म की मुठभेड़ यहां होती है, उसकी झलक आपको भी मिल गयी है। ये आपके डिलीटेड कमेंट से पता चलता है। लेकिन कोई बात नहीं। जम कर जमे रहिए।
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