बहुत बहस चल रही है। बड़े विचार दिए जा रहे हैं। मोहल्ला से लेकर कस्बा तक। सारी बातें सच हैं। कई झूठ समेटे हुए। मैंने भी इस पर विचारा और लिखा है। टीवी चिंतन : ख़बर पर नज़र काफी पहले लिखा। कोई कालजयी रचना नहीं है। पर आपको आज भी सच लग सकती है क्योंकि हालात बदले नहीं हैं। कुछ विवाद भी हुआ जब मैंने लिखा और मोहल्ले ने छापा क्या टीवी संपादक मदारी हो गये हैं ?
दिलीप मंडल ने पूछा कब था पत्रकारिता का स्वर्ण काल? शायद ये जताने की कोशिश की कि हर समय हर तरह की धारा चलती रही है। लेकिन शायद वो भूल रहे हैं कि मानस और तकनीकी परिष्करण के एक अलग-अलग युग रहे हैं। पिछले का हवाला देकर अगले को नहीं बांध सकते। निश्चित ही पत्रकारिता का कभी कोई स्वर्ण काल रहा और ना होगा। लेकिन ख़ासतौर पर आज की टीवी पत्रकारिता के संदर्भ में दूरदर्शन का हवाला देकर खुश नहीं हुआ जा सकता। इतराया नहीं जा सकता। मौजूदा हालात पर रवीश ने कहा हिंदी पत्रकारिता का प्रश्न काल । मैं कह चुका हूं शैशवकाल और संक्रमण काल। संदर्भ बेशक बदल जाते हों पर वे एक ही अर्थ रखते हैं।
पर इन कालों के विचार के बीच हमारे सामने सबसे बड़ा सवाल है कि ये बदलेगा कब। बदलेगा कौन। बदलेगा कैसे। मैं किसी एक चैनल के न्यज़ रुम में कुछ बदलाव की बात नहीं कर रहा हूं। उसके फैसले लेने वाली कोटरी के कुछ चेहरे बदलने की बात भी नहीं कर रहा हूं। क्योंकि कमोबेश सब एक जैसे लगते हैं। कोई यहां से वहां चला जाता है कोई वहां से यहां और कुछ नए झंडे बैनर के तले आ जाते हैं। इसलिए बदलाव की ये बात व्यापक परिपेक्ष्य की है। फैसले लेने और व्यवस्था तय करने की हालत में पहुंचने तक या उसके बाद कई क्रांतिकारी-समाजवादी भी पूंजीवाद के शिकार हो जाते हैं। इसलिए मैं हम सबके के अंदर बदलाव की बात कर रहा हूं। हम... जो इस मीडियम में काम करते हैं। हम में से कुछ हैं जो उसूलों, मापदंडों की बात करते हैं। मैं भी करता हूं। ये सब सुनने में बड़ा अच्छा लगता है। लेकिन देखने वाली बात है कि क्या पृष्ठभूमि तैयार हो रही है। हां तो कौन कर रहा है। अगर सिर्फ विचारों की बात है तो विचार कहां तक फैल रहा है। हमारे साथ के कितने लोग उससे प्रभावित हो रहे हैं। बेहतरी के लिए कौन-कौन साथ जुड़ रहे हैं। कोई आत्मचिंतन को विवश भी हो रहा है या नहीं।
किसी चैनल का न्यूज़ रुम अब पाकिस्तान तो है नहीं कि एक रात सैनिक उठेंगे। कुछ संपादक के कमरे में बैठ जाएगें। कुछ पीसीआर में जाकर आॅन एयर जाने वाले कमांड अपने हाथ में ले लेगें। कुछ आउटपुट पर कब्ज़ा कर लेगें। कुछ भूत पिशाची और नंगी काया की नाच वाली स्टोरीज़ को 'ब्लू' करना शुरु कर देगें। कुछ टेप लाईब्रेरी में जाकर नागनागिन वाले आर्काईव्स को मिटाना शुरु कर देगें। और मुशर्रफ की तरह घोषणा कर देगें कि मुल्क... मतलब हिन्दी टीवी पत्रकारिता को अब हम अपनी सोच के हिसाब से चलाएगें। इस तरह से हिन्दी टीवी पत्रकारिता का मौजूदा औघड़ युग बीत जाएगा। किसी के लिए अच्छा होगा तो किसी के लिए बुरा पर ये मीडियम बदल जाएगा। नहीं। ऐसा ऐसे नहीं होगा।
पत्रकारिता को इसके मौलिक सरोकारों की तरफ वापस ले जाना है तो इसके लिए बड़े फोरम पर बहस से भी काम नहीं चलेगा। एक हालिया बहस में जब ऐसे सवाल उठे तो टीवी पत्रकारिता के महानायक समझे जाने वाले ने पतली गली वाला जवाब देना बेहतर समझा। पश्चिम में भारत की छवि सांप सपेरों के देश की रही। इससे हम मुश्किल से उबरने लगे थे। लेकिन हिन्दी पत्रकारिता के कुछ हरकारों ने आवाज़ लगा लगा कर वो दिन दुबारा ला दिए लगते हैं। ये इसे अंग्रेज़ी में नहीं चलाते क्योंकि ऐसा करने पर, अपने उठने बैठने वालों के बीच ही, इनकी पैंट उतर जाएगी। और हिन्दी वालों की नज़र में ये महान हैं सो कोई पूछता नहीं। समस्या हिन्दी व्यूअर्स के च्वाईस की उतनी नहीं जितनी इनके पूअर व्यूज़ की है। बेहतर च्वाईस पेश करने में दिमागी नाकामी की है। इनकी ये हालत है इसलिए नेता भी चढने लगे हैं। किसी मुश्किल मुद्दे पर अपनी गर्दन बचाने के लिए नेता खुलेआम पत्रकारों से प्रतिप्रश्न करने लगे हैं कि 'इस सवाल में क्या रखा है...क्यों पूछ रहो हो... ये क्या टीआरपी देगा।'
उच्च पदस्थों और नीति नियंताओं को भलाबुरा कहना भी ठीक नहीं। मुझे तो दुख तब ज़्यादा होता है जब में अपने बीच के युवा टीवी पत्रकारों को भुतही भाषा में बात करता देखता हूं। किसी मौक़े पर जो कोशिश उसे व्यवस्था-विरोध की एक अच्छी ख़बर दे सकता है उससे वह झट... 'आन द स्पाट' ही ये कह कर निकल लेता है कि 'ये हमारी यहां नहीं चलेगी। एनडीटीवी पर ही चल सकती है।' अब सभी चैनल तो एनडीटीवी नहीं हो सकता जहां उसूलों को महत्व दिया जाता है। रात आठ बजे जहां कई चैनलों पर एक साथ राखी सावंत नाच रही होती है या फिर ज्योतिष भविष्य के फरेब में दर्शकों को फांसे होते हैं...वहीं विनोद दुआ ठसक के साथ ख़बर पढ़ रहे होते हैं। ख़बरदार कर रहे होते हैं। वैसे ये तो बहुत दूर की बात हो चुकी है। कई चैनलों की हालत तो ऐसी है कि उससे जुड़ा अच्छा से अच्छा पत्रकार भी अपनी किसी ख़बर को लेकर अपने दफ्तर को इंसिस्ट भी नहीं करता। समझाने की कोशिश भी नहीं करता। हो सकता है कि पहले कभी किया हो। अब ये मान बैठा हो कि कुछ नहीं हो सकता। पर इसका मतलब ये तो नहीं कि छोड़ दें।
कुछ तो ट्रेन से ही कूद कर भाग लिए अपनी जान बचाने। पत्रकारिता को जर्जर पुल करार देते हुए। बाकी जनता को उसी जर्जर पुल के सहारे गुज़रने को अभिशप्त छोड़। और फिर शान से एक भगोड़े मीडियाकर्मी का बयान देते हैं। अरे नहीं भाई। रेस्ट इफ यू मस्ट बट डोंट यू क्विट...वापस आ जाओ। मज़बूत खंभा बनो। पुल को मज़बूती दो।
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3 comments:
दिलीप की बात अपनी जगह बिल्कुल सही है. लेकिन उन्होने स्थितियाँ सुधारने के प्रति कहीँ हताशा व्यक्त नहीं की है. उन्होने केवल दुराग्रहों और नोस्टालजिया से मुक्त होकर सच को देखने का आग्रह भर किया है. आपका भी आग्रह यही है कि इन स्थितियों से उबारा कैसे जाए, यह सोचना चाहिए. मुझे लगता है कि इसका रास्ता अतीत के वस्तुगत अवलोकन और हमारे समसामयिक यथार्थ की समझ के बीच से होकर गुजरेगा और वह हमें ही विकसित करनी होगी.
सभी चैनलों के पत्रकार अलग-अलग अच्छा सोचते हैं। लेकिन उनका कलेक्टिल प्रोडक्ट भुतहा हो जाता है। क्या ये सिर्फ टीआरपी का दवाब है या असुरक्षा से ग्रस्ट लीडरशिप की संकरी गली।
मुझे तो लगता है कि जो चिंतित हैं कहीं टीवी से निकाल न दिए जाए। बदलेगा उमा जी। पत्रकारों पर भरोसा रखिए। जो भी पत्रकार है चाहता है कि खबरों की दुनिया हो। जो नहीं है उसके बारे में हम आप कह ही रहे हैं। लेकिन पत्रकारिता को भी बदलना होगा तभी वह भूत प्रेत सावंत खबरों की विकल्प बनेगी। उसे अपने ढर्रे को बदल कर और खबर को नए सिरे से पकड़ कर कुछ नया दिखाना होगा। मशाल उठाये
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