सुप्रभात,
रवि की प्रथम किरणें लालिमा लिए हुईं
हाथ में प्रथम ग्रास...साथ में अख़बार
दुनिया भर की ख़बरें
वही बासी, घोर कालिमा लिए हुईं
कैसा दु:संयोग है यह
जो बारम्बार घटित हो रहा है
राजनीति-कूटनीति, युद्ध और क्रांति
उन्नति परंतु अवनति
जनकल्याण किंतु स्वार्थसिद्धि
हत्या, हंगामा, जातीय विद्वेष
दंगे, अविश्वास
विभिन्न तरह के कुत्सित प्रयास
नैतिकता का ह्रास...
पता नहीं इसका चरम कहां है
और कहां है अंत
इसी बिंदु पर विचारता
कोई अच्छी सी कविता लिखने की सोच रहा हूं
पर किंकर्तव्यविमूढ़ हूं
कहां से शुरु करुं और किस पर?
वर्तमान के हालात पर
भविष्य की आशंका पर
या भूत के पश्चाताप पर
फिर कहां तक जाउं?
और उसकी सार्थकता क्या होगी?
शायद, चित्त हल्का हो जाए इस कठिन प्रयास से
परंतु ये बोझिल...और बोझिल होता जाता है
ज्यों ज्यों विचारों में गहरा उतरता हूं
अंतत: अंधेरा छा जाता है मस्तिष्क में
और प्रकाशपुंज की आस में
स्वयं को प्रयत्नहीन पाता हूं!
Tuesday, July 31, 2007
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2 comments:
गहन असहजता को दर्शाती, विचलित मनोभावों से उभरी एक जीवंत रचना.
अच्छी कविता लिख गयी!
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