Friday, July 6, 2007

बोल्‍ड लेखनी के नाम पर ग़ाली-गलौज नहीं चलेगी

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संगीता तिवारी स्टार न्यूज़ से जुड़ीं हैं। ये पत्रकारिता में जितनी सक्रिय हैं उतनी विचारों की दुनिया में भी। साहित्य में ग़ालियों की भाषा का इस्तेमाल हो या नहीं इस पर इनसे यूं ही बात हुई। बोल्ड लेखनी के नाम पर जिस तरह की स्वच्छंदता चाही जा रही है संगीता उस बात से इत्तेफ़ाक नहीं रखतीं हैं। वे ऐसी लेखनी चाहतीं हैं जिसमें समाज का चेहरा भी साफ हो जाए और अनर्गल शब्दों के प्रयोग से भी बचा जाए। पूरी बात संगीता तिवारी की ही कलम से...

साहित्य में गालियों का इस्तेमाल क्यूं नही..इस पर बहस छिड़ी है..दरअसल ये बहस नयी नही है..इसपर कई बार पहले भी काफी चर्चा हो चुकी है लेकिन बात महज गालियों की नही बल्कि भाषा को लेकर होती रही है ..मृदुला गर्ग की लेखनी से लेकर ओमप्रकाश वाल्मिकी तक की लेखनी पर खूब कागद कारे किए गए इस बहस में..इस बहस की शुरूआत उस दौर में हुई जिसमें भाषा के आधार पर बोल्ड लेखनी की परिभाषा गढ़ी गयी..कहा गया यथार्थवादी चित्रण हो रहा है..समाज जैसा है वैसा सामने रखा जा रहा है...एक तर्क ये आया था कि दलित साहित्य अगर लिखा जाएगा तो उसी भाषा में जिस भाषा का वो आपसी बातचीत में इस्तेमाल करते हैं..लेकिन यहां चर्चा का दायरा इतना विस्तृत नही है..बात सिर्फ गालियों की हो रही है...साहित्य को समाज का आईना माना जाता है. अगर हमारे समाज में गाली के लिए जगह है तो फिर साहित्य उससे इतर कैसे हो सकता है..यानि गाली के लिए भी जगह होनी चाहिए..दरअसल ये बहस इसपर नही होनी चाहिए कि गाली साहित्य का हिस्सा बन सकती है या नही बल्कि बहस इसपर होनी चाहिए कि इसकी सीमा क्या हो..समाज के अलग अलग वर्ग में गालियों का दायरा भी अलग है..हम किसे आधार मानेंगे..

निजी तौर पर मेरी राय है कि गालियों में भी एक चुनाव होना चाहिए..क्यूंकि साहित्य का काम सिर्फ आईना सामने रखना नही बल्कि अगर कहीं उसमें धुंधलापन है तो उसे भी साफ करना होता है..इसलिए मैं तथाकथिक बोल्ड लेखनी के नाम पर धड़ल्ले से गाली के इस्तेमाल की पक्षधर नही हूं। उमाशंकर सिंह से इस मुद्दे पर यूं ही बात हुई उन्होंने ही बताया कि ऐसी कोई बहस छिड़ी है..मौका मिलते ही मोहल्ला घूम कर आयी। अविनाश जी ने गालियों के प्रयोग को बड़ा तार्किक आधार देने की कोशिश की है..लेकिन अविनाश जी का भदेस का तर्क कहीं से भी तर्कसंगत नही है.. उदाहरण संदर्भों से काट कर नही पेश किया जा सकता। जिन गालियों की बात उन्होंने की है वो हमने भी सुनी है, लेकिन उसके संदर्भ क्या होते हैं ये समझना जरूरी है..हमारा भी सामाजिक दायरा वही है जो उनका है..शादी ब्याह के मौके पर गायी जाने गाली को उदाहरण के तौर पर पेश किया जाना अखर गया..अविनाश को शायद सिर्फ गालियां याद रह गयी..पूरी गीत या उसका भाव नही...औऱ हां मैं गीत का उदाहरण देकर बता सकती हूं कि उसमें भी एक सलीका होता है..

हां एक और बात गाली के पक्ष में ग्रामीण जीवन का उदाहरण धड़ल्ले से दिया जाता है..वहां की जिंदगी और बोलचाल का हवाला दिया गया है..लेकिन गांव, गांव का जीवन और उसके मुद्दे हमने भी करीब से देखा है..लेकिन ऐसा गांव नही मिला जहां गालियों को मान्यता मिली हो..उसका इस्तेमाल बुरा नही माना जाता हो..गांव और गंवई जीवन के बारे में प्रेमचंद ने भी लिखा था..ऐसा लिखा जिसकी प्रासंगिकता आज भी है ..आज भी गांव में उनके चरित्र नज़र आ जाते हैं...समय के साथ धुंधले नही पड़े उस यथार्थ के चित्रण में उन्हें गालियों के प्रयोग की जरूरत नही पड़ी.. हालांकि वो जिस वर्ग की बात कर रहे थे उसके बारे में आज लिखा जाता है तो बोल्ड लेखनी की जाती है...शायद अविनाश के नजरिये से देखे तो प्रेमचंद की लेखनी यथार्थ के करीब नही मानी जा सकती।

दरअसल इन तथाकथित यथार्थवादी लेखकों को आदत पड़ गयी है समाज के अलग अलग हिस्सों को एक फ्रेम में जड़कर देखने की। अगर दलित है तो वो गालियों का इस्तेमाल तो करेगा ही..ये इन लेखकों की सवर्ण मानसिकता है..जहां दलित या समाज के निचले तबके से आने का मतलब है गाली की जुबान..आप ये क्यूं मानकर बैठे हैं कि परिष्कृत भाषा समाज के किसी तबके की बपौती है.. इन्हें समझाओ की कि ऐसा नही है..बदलाव सब तरफ है..एक काम करने वाली जो दलित है भले ही उसने कभी गाली की जुबान बोली हो लेकिन अपने बच्चों को वो बेहतर भाषा देना चाहती है औऱ इस कोशिश में उसने अपनी जुबान भी सुधारी है..फ्रेम में जड़ देखना बंद करें ये यथार्थवादी लेखक..यथार्थ का चेहरा भी बदला है पिछले सालों में...

अच्छा लगा कि इसपर बहस तो छिड़ी है..विस्तार देने की कोशिश करूंगी

4 comments:

अनिल रघुराज said...

इन तथाकथित साहित्यकारों से मुझे पैदाइशी नफरत है। इसलिए मेरे कुछ भी कहने में पूर्वाग्रह आ जाएगा। फिर भी मेरा कहना है कि जो लोग भदेस के नाम पर साहित्य में गालियों को जस्टीफाई कर रहे हैं, उन्हें असल में समाज की कोई समझ नहीं है। शादी-ब्याह और होलिका दहन के पहले दी जाने गालियों का मसकद दबी हुई भावनाओं को एक दिन में निकाल देना है। पश्चिमी देशों में कार्निवाल भी यही काम करता है। जर्मनी में रोज़ेन मोंटाग (गुलाबी सोमवार) को विवाहित महिलाओं को पूरी छूट दी जाती है कि वो उस खास दिन किसी दूसरे पुरुष के साथ अटखेलियां मना सकती है। महिला किसी पार्टी में दूसरे पुरुष की टाई काटकर अपना पसंदीदा पार्टनर चुनती है।

ePandit said...

वाह बहुत ही सधा हुआ लेखन। प्रेमचंद का उदाहरण बहुत ही सटीक है।

Unknown said...

kya sari tathakathit bashayi sabhyta ka nirwaah karne ka theka sawarn jatiyon ne le rakha hai ?kya dalit sahitya sirf gaali galauj se bhara hua hai?
dalit na jane kitne samay se shoshan ka shikar rahe hain aur aaj bhi ho rahe hain,kum se kum ab sahitya ke naam par to unhe haashiye par dhakelna band ho.
sahitya ko to kum se is prakar kshudra tika tipanniyon bachane ki zimmedari to hai hi hamari.
Sangeeta ji ne jis bebaki se likha hai, wo wakai sochne par majboor karta hai.
urban - rural divide ko linguistic perspective se bhi samjhaya ja sakta hai, iska matlab Sangeta ji bakhubi likha hai ,aaj ye ek naya perspective pata chala, mujhe lagta hai integrated social work practice mein ye naya perspective shamil kiya ja sakta hai.

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

बात परिष्कृत भाषा के किसी के बपौती होने या न होने की नहीं है. असल बात यह है कि जिन लोगों के सिर विचारों से खाली और दुराग्रहों से भरे हैं, अपनी बात कहने का जिनके पास कोई तार्किक आधार भी नहीं है; वे अगर गाली-गलौच न करें तो और क्या करें? अव्वल तो हम इनकी चर्चा करके ही समय बरबाद कर रहें हैं. अपना भी और पढने वालों का भी.