इस्तीफा एक गुणकारी पदार्थ है। इसका उपयोग कई परिस्थितियों में किया जाता है। यह कई प्रकार की कार्यसिद्धियों के लिए प्रयोग में लाया जाता है। एक ओर ये जहां किसी को संकट में डालने के लिए प्रयुक्त होता है तो वहीं दूसरी ओर संकट से उबारने के क्रम में भी इसका जम कर इस्तेमाल होता है। यह किसी भी मौसम में दिया और लिया जा सकता है। लेकिन आमतौर पर जिसका 'नेट' चर्चा में होता है उसकी हर छोटी बड़ी ग़लतियों पर चिल्ला चिल्ला कर इस्तीफा मांगने का अपना औचित्य बनता जा रहा है। इस्तीफों के पीछे अपने तील-तिकड़म हैं। इस्तीफों के लिए तर्क भी गढ़े जा रहे हैं। कुतर्क भी दिए जा रहे हैं।
इस उपभोक्तावादी युग में इस्तीफा भी एक उत्पाद है जिसका अपना एक बाज़ार है। ब्लॅाग पर ये बाज़ार आजकल काफी गर्म है। कमप्यूटर तकनीकी के सहारे इस्तीफे को एक नया आयाम मिला है। यों कह सकते हैं कि वैचारिक वर्चस्व की लड़ाई का लोहा गर्म है और इस्तीफा उस पर चोट। धड़ाधड़ इस्तीफे दिए जा रहे हैं। मज़े की बात है कि इसकी कोई विशेष मांग भी नहीं है। मांग से अधिक आपूर्ति है। सो इस्तीफों का भाव काफी गिर गया लगता है। जिसे देखो उसी के पास इस्तीफा है। जो नहीं दे रहा या जिनको अभी देने की ज़रुरत नहीं, उम्मीद है वो भी जल्द ही कांख में इस्तीफा दबाए माउस क्लिक करेगें। और ऐसे भी हैं जो अपने चिठ्ठों में चाह कर भी कुछ ऐसा विवादस्पद नहीं लिख पाए जिससे उन्होने हिट्स मिलते, उनमें से भी कुछ इस्तीफा देने को तत्पर दिख रहे हैं। शायद इसके ज़रिए कुछ बटोर लें। भईया यही तो समर्पण है। 'ब्लॅागतांत्रिक'... सॅारी लोकतांत्रिक आस्था है। जब कोई उपाय नहीं है तो इस्तीफा है।
वैसे इस्तीफा देना भी कोई हंसी खेल नहीं है। बहुत लोग चाहते हुए भी नहीं दे पाते हैं। उन्हें उनके वैचारिक नूरा-कुश्ती के सहयोगी, पालनहार से इसकी इजाज़त नहीं मिलती। कुछ तो इस्तीफा देने के पहले धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करते हैं। कि शायद कोई रास्ता निकल आए। अगर ऐसा नहीं होता है तब वे कितने बोछिल मन और खिसियाए मूड से इस्तीफा तैयार करता है ये रामजाने... (हे प्रभु रक्षा करना, रामजाने नाम का कोई ब्लॅागर ना हो। नहीं तो वो मुझसे लड़ मरेगा कि मेरा नाम क्यों लिखा)। उसके बाद भी कितनी बड़ी विडंबना है कि किसी का इस्तीफा मंज़ूर नहीं होता और किसी को इस्तीफे के लिए मजबूर किया जाता है। कोई इसे चुनौती के रुप में स्वीकारता है तो किसी के लिए ये त्रासदी भरा है।
इस्तीफों का अपना इतिहास रहा है। विभिन्न दौरों और मोड़ों से गुज़रता हुआ यह आज ब्लॅागिंग तक जा पहुंचा है। यहां यह किसी के लिए यह अंतिम उपाय है तो किसी के लिए प्रथम प्रतिक्रिया बन गया है। अपनी कलम (या कहें की-बोर्ड) की कमज़ोरी को छिपाने और हिट्स बटोरने का का साधन बन गया है। अगर आप पर झूठा लांछन लगा है तो आप अपने स्तंभ पर बने रहते हुए भी ठोस तर्कों और साक्ष्यों के ज़रिए अपनी निर्दोषता साबित करने का प्रयास कर सकते हैं। लेकिन नहीं। विपत्ति के समय पलायनवादी मन अपेक्षाकृत शार्टकट रास्ते से अपना संदेश देना चाहता है। लांछन लगा है। खुद को स्वच्छ साबित करना है। एग्रीगेटर से इस्तीफा दे दो। जनता यही कहेगी कि देखो भई बेचारे पर आरोप लगा नही कि इस्तीफा मेल कर दिया। कितना नैतिक और गैरसांप्रदायिक आदमी है।
कोई कोई तो पूरी आग उगल देता है फिर भी इस्तीफा नहीं देता। नारद पर बना रहता है। उस पर मुकद्दमा भी नहीं चलता। और वो पद छोड़ना तो दूर... दूर दूर तक मंशा भी ज़ाहिर नहीं करता कि अंगूली उठने पर इस्तीफा दे दूंगा। कितना घाघ है। और उसे देखो। इस्तीफा लिए तैयार बैठा था। अपने ऊपर लगे आरोपों के प्रति कितना संवेदनशील है। और हो भी क्यों ना। उसे पता है कि अगर उसने आज इस्तीफा नहीं दिया और अपनी डाल पर बैठा रहा तो रोज़ उसकी ख़बर ली जाएगी। कई साथी चिठ्ठाकार लताडेगें। कुछ इसे दुर्भाग्यपूर्ण करार देगें। समूह मे जगहंसाई होगी। इसलिए इस्तीफा ही एकमात्र विकल्प है। दे दो। उसके बाद कैसे उठोगे-बैठोगे-सोचोगे-लिखोगे ये कोई देखने वाला नहीं होगा। सार्वजनिक परिदृश्य से बाहर हो जाओगे। उसके बाद लोग तुम्हें भूलने के साथ-साथ तुम पर लगे आरोपों को भी भूल जाएगें। तब तक अपनी भावी रणनीति तय करते रहो।
ब्लॅागिंग की दुनिया में बकवाद-विवादों के मौके तो आते ही रहते हैं। उसमें तुम जैसा कोई दूसरा शामिल होगा। बस इसी समय शेर की तरह दहाड़ उठना। तुमने भी गंद लिखा... तुमने भी गंद लिखा। उसके बाद उसे भी इस्तीफे की तरफ धकेल देना। ब्लॅागर्स की दुनिया में तुम फिर से उभर आओगे। वैचारिक जंग जीत जाओगे। अपनी नई एग्रीगेटर की दूकान सजा लोगे। इसलिए हे वत्स। तुम अभी इस एग्रीगेटर से तो इस्तीफा दे ही दो!
Sunday, June 17, 2007
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
5 comments:
मज़ा आ गया आपकी पोस्ट पढ कर... लिखते रहिए... आनंद लेते रहिए... आनंद का युग है...
इसी बहाने व्यंग्य पर हाथ साफ कर लिया। उत्तम है। मेरे एक गुरु (जो अभी हिंदुस्तान में काफी वरिष्ठ रिपोर्टर हैं) से जुड़ा हुआ सुना-सुनाया किस्सा है। इमरजेंसी में हर दिन हॉस्टल से निकलते थे कि आज तो गिरफ्तार हो ही जाऊंगा। लेकिन इमरजेंसी बीत गई, उन्हें पुलिस ने हाथ तक नहीं लगाया।
"धड़ाधड़ इस्तीफे दिए जा रहे हैं। मज़े की बात है कि इसकी कोई विशेष मांग भी नहीं है। मांग से अधिक आपूर्ति है। सो इस्तीफों का भाव काफी गिर गया लगता है।"
इस्तीफों को लेकर अच्छा व्यंग्य रचा है आपने।
आज जैसी तल्खी मैं चिट्ठों में देख रहा हूँ वैसी कभी नहीं देखी। सोच रहा था कि आपस में समझ बूझ कर मामला रफा दफा हो जाएगा। पर हुआ नहीं क्योंकि क्रिया प्रतिक्रिया ने मामले को उस स्तर तक गिरा दिया जहाँ से भावनाएँ सर्वोपरि और चिंतन पीछे चला जाता है।
शीर्षक देख कर भाग रहा था - कहीं आवेश में मैं भी इस्तीफ़ा-इस्तीफ़ा न खेलने लगूं.
परंतु धन्यवाद आपने माहौल हल्का कर दिया :)
बढ़िया , मजेदार व्यंग्य.
Post a Comment