लंबे समय बाद मधुबनी जाने का मौक़ा मिला। यहां बहुत कुछ बदला बदला सा नज़र आता है। टाऊन में भीड़ ज़रुर बढ़ गई है। बाज़ार की जिन सड़कों पर हम हीरो साईकिल सरपट दौड़ाया करते थे वहां अब ज़्यादातर जाम लगा रहता है। अलकतरा की जगह अब सींमेट की सड़क बना दी गई है लेकिन ज़्यादातर सड़क गढ्ढे में तब्दील हो चुकी है। सब उसी में चलना सीख गए हैं।
जहां पहले थोड़ी थोड़ी दूरी पर दूकानें मिला करतीं थीं वहां अब तिल रखने की जगह नहीं। दूकानों के बीच में दूकान। आड़ी दूकानें तिरछी दूकानें। लगता है बाज़ार में दूकानें ठूंस दी गईं हैं और हर दूकान पर भीड़। हां, बाटा चौक पर जहां पहले मोची बैठा करते थे वो अब भी वहीं बैठते हैं। रिमझिम होटल खत्म हो चुका है जहां बाबूजी के साथ जा कर मैं एक रुपये में चार रसगुल्ला और 60 पैसे में फेंटा या कोका कोला पी कर नाक से गैस निकालते हुए लौटता था। अमीरती-कचौरी की वो दूकान तो सालों पहले बंद हो चुकी जहां कचौरी से ज़्यादा में सब्ज़ी खा जाया करता था। बाबूजी के साथ गिलेसन बाज़ार (असल नाम ग्रियर्सन) से सब्ज़ी लेकर लौटते समय रोज़ का नियम था। या तो रिमझिम होटल या फिर अमीरती कचौरी की वो दूकान जिसका कोई साईन बोर्ड भी नहीं था। दूकान के बगल में कुंआ था। उसे भी भर कर उस पर चप्पल जूते की दूकान खड़ी कर दी गई है। ये देख कर अच्छा लगा कि डीलक्स टेलर्स अब भी चल रहा है। मैं अपनी पैंट शर्ट यहीं सिलवाया करता था। अब तो रे़डीमेड की ही लत लग गई है।
जहां अपने मोहल्ले और घर के अगल बगल की खाली ज़मीनों पर हम क्रिकेट और फुटबाल खेला करते थे वहां अब बेहतरीन नक्कासी वाले घर बन गए हैं। उनकी बालकोनी हमारे आंगन में झांकने को हो रहीं हैं। एक तबके के पास पैसा आया है। पर वो बड़ा तबका और बड़ा हो गया है जिसके पास कुछ नहीं है।
टाऊन क्लब मैदान में मैं बचपन में मेनका गांधी को देखने गया था। तब वरूण गांधी पूरे समय अपनी मां की बांयी बाजू से लिपटा रहा था। लोगों की चहारदीवारियों से सिंकुड़ चुके इस मैदान को देख कर वही तस्वीर याद आई। कई बड़े नेताओं के पहली बार इसी मैदान में देखा था। इसके बगल के पोखर को भी भर दिया गया है। दरभंगा महाराज की इस संपत्ति को कहते हैं कि भूमाफियाओं ने हथियाने की कोशिश की है। मामला कोर्ट में चला गया है। पर अगली बार जब जाऊंगा तो हो सकता है यहां भी उंची इमारत मिले।
मेरा स्कूल भी बदल गया है। वाटसन मिडिल स्कूल और वाटसन हाई स्कूल से इसका नाम बदल दिया गया है। ऐसा नाम रख दिया गया जिसे पांच बार पढ़ने के बाद भी मैं याद नहीं रख सका। बस दो शब्द याद हैं देव नारायण..... बिल्डिंग की हालत तो जस की तस है लेकिन नया नाम चमक रहा है। इससे लगता है कि बिहार में सरकार बदलने के बाद की किसी राजनीतिक वजह से ऐसा किया गया है। जैसे बीजेपी वाले शहरों के नामों को लेकर करते हैं। स्कूल के मेन गेट के सामने का ब्रेकर अब भी उतना तगड़ा है। हां वो बोर्ड नदारद है जिस पर लिखा था 'सावधान, सामने स्कूल' है। और एक तिकोना बोर्ड जिसमें एक बच्चा स्कूल जाते हुए दिखता था। इस स्कूल से 1988 में मैंने मैट्रिक की परीक्षा पास की थी। अफसोस किसी मास्टर साहेब से मुलाकात नहीं हुई। गर्मी छुट्टी की वजह से। वैसे तब के कोई मास्टर जी अब तक यहां पढ़ा भी रहे हैं या नहीं पता नहीं चला।
बाबूजी को कचहरी छोड़ने गया। यहां भी भीड़ बढ़ गई है। ज़मीन ज़ायदाद सब कुछ बेच लोग मुकद्दमें जीतने की कोशिश कर रहे हैं। जयनगर से आने वाली दसबजिया इन दिनों नहीं चल रही। ना ही जाने वाली पंचबजिया। छोटी लाईन को बड़ी में बदलने का काम चल रहा है। सो दरभंगा-मधुबनी-जयनगर के बीच रेल सेवा बंद है। लोग उम्मीद लगाए बैठे हैं कि बड़ी लाईन आने के बाद शायद कमाने खटाने का स्कोप बढ़े। नहीं तो उसी ट्रेन में लद कर सीधे दिल्ली तक आने का रास्ता तो खुल ही जाएगा। दरभंगा या पटना जाकर ट्रेन पकड़ने का झंझट नहीं रहेगा।
गंगासागर पोखर का चारों किनारा सींमेंट का बना दिया गया है। काली मंदिर के आसपास पहले जो इंद्रपूजा के दौरान मेला लगता था वो दूकानें अब परमानेंटली यहीं लगीं रहतीं हैं। पहले बाज़ार से लड्डू ला कर चढाना पड़ता था। अब पान की गुमटीनुमा कई दूकानें बन गई हैं। काली मंदिर के ठीक सामने एक हनुमान मंदिर भी खुल गया है। एक दानपात्र यहां भी मुंहखोले मिलता है। चढ़ावे में लोहे की ग्रिल के अंदर हाथ डाल कर फेकें गए पैसों में अठ्ठनी चवन्नी नज़र आ जाती है। दिल्ली में अठ्ठनी दो तो दूकानदार काटने को दौड़ते हैं।
इस छोटे से शहर में आए बदलाव पर बड़े पन्ने रंगे जा सकते हैं। पर फिलहाल इतना ही। जल्द ही आपको मधुबनी पेंटिग्स में आए बदलाव के बारे में बताऊंगा। फिलहाल वापस आकर दिल्ली में रोज़ी रोटी में जुट गया हूं। अगला राष्ट्रपति कौन होगा इस पर कयासों का दौर चल रहा है। मैं भी गला खंगाल रहा हूं। उधर मेरा शहर अपनी नींद सो रहा है।
Tuesday, June 12, 2007
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3 comments:
आपके इस लेख मे एक ऐसे बच्चे की तस्वीर उभरती है जो लम्बे अर्से के बाद उसके बचपन के शहर लौटता है और एक बच्चे सी उत्सुकता और कौतुहल के साथ अप्ने बचपन के शहर की एक नई यात्रा पर चल देता है। हर कोइ इस दौर से गुजरता है। इस प्रकार के लेख पढ एक बार फ़िर ऐसे ख्यालों की गाडी चल देती है।
इस लेख के लिये धन्यवाद।
मधुबनी पेन्टिंगस के हम हमेशा दीवाने रहे हैं, उसमें क्या बदल गया? इंतजार कर रहे हैं भाई आपको सुनने का.
अच्छा नजारा पेश किया आपने अपने शहर का !
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