Thursday, June 14, 2007

Madhubani Painting : विकृत होती कला

मधुबनी चित्रकला को नज़दीक से देखता रहा हूं। इसमें जो बड़े बदलाव हुए हैं उनको पकड़ने की कोशिश की है। आलेख लंबा बन पड़ा है इसलिए दो कड़ियों में दे रहा हूं। पहली कड़ी....

विकाऔर आधुनिकता की दौड़ से सैंकड़ों मील दूर खड़ा उत्तर बिहार का मधुबनी ज़िला अपनी आदर्शभूत पहचान लिए ज्यों का त्यों खड़ा है। कुछेक को छोड़, जो बदलाब यहां नज़र आता है उसकी बानगी अच्छा संकेत नहीं देती। ये बात यहां कि परंपरागत मधुबनी या मिथिला चित्रकला के लिए भी लागू होती है। कला के व्यवसायीकरण का यहां बड़ा असर दिखाई पड़ता है।

मधुबनी चित्रकला कब शुरु हुई इसका ठीक ठीक पता करना मुश्किल है। ऐसा माना जाता है कि ये रामायणकाल में भी अस्तित्व में था। उस समय इस कला का स्वरुप स्वभाविक रुप से पारंपरिक था। शादी-ब्याह, तीज-त्योहार के मौक़े पर घर की मिट्टी की दीवारों पर गोबर और प्राकृतिक रंगों की मदद से चित्र उकेरे जाते थे। मुख्य उद्देश्य घर आंगन को सजाना संवारना ही था। कमोबेश यही स्थिति आधुनिक काल में सन 1964 तक रही।

1964 में ये इलाका अकाल से बुरी तरह प्रभावित हुआ। बहुत से सरकारी और ग़ैर सरकारी लोगों ने इस इलाके का दौरा किया। तब पहली बार बाहरी लोगों का ध्यान इस कला की तरफ गया। जितवारपुर गांव की श्रीमती सीता देवी, जिन्हें इस कला के लिए पहला पद्मश्री सम्मान मिला, अब हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन मैं उनसे 1995 में मिला था। लंबी बात हुई थी। उन्होने बताया कि उस अकाल के दौरान ही किसी व्यक्ति के आग्रह पर उन्होने मिट्टी की दीवार से इस कला को पहली बार कागज़ पर उतारा। बदले में उन्हें कुछ आर्थिक मदद मिली।
बदलाव की तरफ ये पहला कदम था। इसके कुछ समय बाद हाथ से बने कागज़ों का बतौर माध्यम धड़ल्ले से इस्तेमाल होने लगा। इससे इसे दुनियाभर में फैलने में मदद मिली। लेकिन फैब्रिक कलर के साथ कपड़ों पर भी चित्रकारी की जाने लगी। अब तो हालत ये है कि रेडिमेड कपड़ों के साथ साथ सनमाईका पर भी चित्रकारी की जा रही है।

पहले इस्तेमाल होने वाले प्राकृतिक रंग वनस्पतियों से तैयार किए जाते थे। लाल रंग संध्या के फूल से और हरा रंग पुरैन के पत्ते से निचोड़ा जाता था। इसी तरह अपराजिता फूल से नीला रंग और सिंघाड़ा के पौधे से पीला रंग बनाया जाता था। सिंघाड़ा के पौधे की ही डंठल से नारंगी रंग बनता और और दीए की लौ की कालिख जमा कर काला रंग बनाया जाता था। इस तरह से बने रंग और टिकाऊ बनाने के लिए इनमें केले के पेड़ से निकलने वाला रस या फिर साधारण गोंद मिलाया जाता था। काफी मेहनत से और कम मात्रा में तैयार होने वाले इन रंगों की अपनी पहचान थी जो मधुबनी चित्रकला को विशिष्टता प्रदान करती थी। 'कचनी' (रेखांकन) और 'भरनी' (मोटी कूची से भरे) दोनों ही तरह के चित्रों में इन रंगों का संयमित इस्तेमाल होता था जिससे चित्रकला की विषय-वस्तु की गरिमापूर्ण अभिव्यक्ति होती थी।

चाहे वो 'कोहबर' (शादी के मौके पर मूल रूप से दीवार पर बनाया जाने वाला शुभ चित्र जिस में बांस, पुरैन के छ पत्ते आदि होते हैं) हो या भगवान कृष्ण की रासलीला का चित्रण, इन सब में रंगों का इस्तेमाल स्वभाविक पृष्ठभूमि पर ऐसी सहजता से होता था क ये हमारे सामने बरबस धर्म और संस्कृति के वास्तविक दृश्य पैदा कर देने में सक्षम प्रतीत होते थे। लेकिन अब सब कुछ बदल गया है। सिंथेटिक और फैब्रिक रंगों के इस्तेमाल ने मधुबनी चित्रकला के रंगों की दुनिया ही बदल दी है। चमकीले रंगों के भड़काऊ इस्तेमाल से ख़रीददार को प्रभावित और आकर्षित करने की ललक ने चित्रकला में पर्याप्त हल्कापन ला दिया है। आंखो को अन्यथा उत्तेजित करने वाले ये चटकीले रंग चित्रकला का बाज़ार फैलाने के उद्देश्य में भले ही सफल रहे हों। लेकिन इतना तय है कि बदले हुए माध्यमों पर रंगों के इस असंतुलित-असंयमित प्रयोग ने चित्रकला की परंपरागत विषय वस्तु पर आक्षेप करना शुरु कर दिया है। तभी राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त महासुंदरी देवी के साथ चित्रकारी करने वाली उनकी पुत्रवधु विभा दास का कहना है कि 'परंपरागत और सांस्कृतिक विषयों को चित्रकारी का मूल बनाए रखना आज एक बड़ी चुनौती बन गई है।'

जारी...
दूसरी कड़ी जल्द ही

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