किसान, ज़मीन और सत्ता की भूमिका पर अनिल रघुवंशी ने अपने ब्लाग एक हिन्दुस्तानी की डायरी में काफी कुछ लिखा है। लगातार लिख रहे हैं। मैंने टिप्पणी लिखी तो बड़ी लंबी हो गई। इसलिए इसे मैं यहां ले आया। पर इसे पढ़ने के पहले कृपा अनिल जी को (शाम से आंखे नम-सी हैं, हिसाब ज्यों का त्यों, कुनबा डूबा क्यों, हिम्मत है तो करके दिखाओ) ज़रुर पढ़ें। नहीं तो मेरा लिखे का पूरा संदर्भ समझने में शायद दिक्कत हो।
अनिल जी,
इस विषय पर मैं लंबे अर्से से कुछ लिखने की सोच रहा था पर बस सोचता रहा। खैर आपने ने इस तरह लिखा है कि आगे कुछ बचता ही नहीं। पोस्ट बेशक जारी हो पर हर पोस्ट अपने आप में पूरी बात कहती है। मैं मक्खन नहीं लगा रहा बल्कि दो शब्द कह कर भरोसा दिलाना चाहता हूं कि मैं लिखना चाह रहा था क्योंकि मैंने भी ज़मीन और किसानों से जुड़ी बातों को देखा और महसूस किया है। आपको एक संस्मरण सुना शायद बात और साफ कर सकूं।
बात बिहार चुनाव के नतीज़े के दिन की है। मैं नतीजों पर फौरी प्रतिक्रिया जानने शरद यादव जी के घर सुबह से ही डटा था। शरद जी जब अपने ड्राईंग रुम में आए तो बात टीवी पत्रकारिता की छेड़ दी। उनका कहना था कि बिहार में इतना अच्छा चुनाव हुआ पर कवरेज नहीं मिला। वे आरोप लगा रहे थे कि सिर्फ हिंसा गोली बंदूक ही टीवी दिखाता है और ऐसा कहते हुए वे पत्रकारों को ताना सा देने लगे। पहले तो मैं चुपचाप सुनता रहा फिर फट पड़ा। मैने कहा ठीक है कि टीवी ने फोकस नहीं किया पर फोकस करते तो किस बात पर। आपने कभी विकास को मुद्दा बनाया क्या। क्या मधुबनी का सकरी चीनी मिल २० साल से बंद है। दरभंगा के रैय्याम मिल की हालत भी यही है। ऐसे मिल तमाम हैं। इलाक़े के लोगों ने गन्ना उपजाना बंद कर दिया है। आपने या किसी राजनीतिक दल ने कहा कि इस बार जीतेगें तो सकरी और इस जैसे तमाम चीनी मिल के ताले खुलवाएंगें। क्या आपने वादा किया किसानों को पलायन कर पंजाब हरियाणा महाराष्ट्र नहीं जाने देगें जहां उनका दोहन तो होता है पर मान सम्मान भी नहीं मिलता। क्या आपने वादा किया कि खेती में कैपिटल इंवेस्टमेंट करेगें ज़मीन को और टुकड़ों में नहीं बंटने देगें। जोत की ज़मीन और छोटी नहीं होने देगें। किसान जो सालभर का पेट पालने लायक अनाज मुश्किल से उगा पाते हैं उसे अधिशेष उत्पादन या सरप्लस प्रोडक्शन में बदलेगें ताकि बेच कर वे कुछ नकदी भी हासिल कर सके और देश की अनाज की जरुरत में भागीदारी भी। क्या आपने अपने घोषणा पत्र में लिखा कि हल बैल की जगह हर गांव को ट्रैक्टर देगें। मैं बस बोलता ही गया।
मेरा पैतृक गांव नरपतिनगर है। मधुबनी ज़िले में आता है। मेरी पैदाईश मधुबनी में हुई और बाबूजी वकील हैं। पर बचपन में गांव में खेतों पर खूब घूमा हूं। पटनी (दमकल से सिंचाई) और कदली (धान रोपाई के समय खेतों में पैर से कीचड़ करना ताकि धान के पौधों को अंगूलियों से आसानी से रोपा जा सके। दरअसल मेरे बाबा (दादा जी को हम बाबा कहते हैं) ज़मीनदार थे। सीलिंग लागू हुआ ज़मीनदारी चली गई। पर फतलाहा टोली के जो खेतिहर मज़दूर थे उनकी हालत जस की तस रही। गांव के आसपास की ज़मीन तो बची रही लेकिन निर्मली और नेपाल सीमा के इलाके की ज़मीन पर लाल झंडा गाड़ दिया गया। ज़मीनदारों की ज़मीन तो चली गई पर फायदा निश्चित ही उनको नहीं हुआ जिनके लिए बिनोवा भावे ने भूदान आंदोलन चलाया। सरकार ने सीलिंग लागू किया। उनमें से कुछ आज भी हमारे बचे हुए ज़मीन के टुकड़ों पर काम करता है। पनपियाई (हल्का नाश्ता) और मरुआ की रोटी जलखई (दोपहर का खाना) पर। धान-गेहूं काटते हैं तो १२ या १६ बोझा काटने पर एक बोझा बोईन (मेहनताना) मिलता है। पेट नहीं भरता। न अपना न अपने परिवार का।
आज फतलाहा और खतरटोली के अधिकांश खेतिहर मज़दूर शहरों में जा कर चापाकल गाड़ने का काम करते हैं रिक्शा चलाने का काम करते हैं। या फिर फैक्टरियों में जहां उन्हें थोड़ा बहुत कैश मिलता है। ऐसे भी है जो पंजाब में अपने खून पसीने से खेत लहलहाते हैं। वो ऐसा बिहार में क्यों नहीं कर पाते। आप जैसे नेता कहां सोते रहते हैं। आज टीवी को कोस रहे हैं कि चुनाव में सकारात्मक चीजें नहीं उठायी। नेताओं को एक ही सकारात्मक चीज नज़र आती है वो है जातीय समीकरण। कहां किस जाति का उम्मीदवार कितनी वोट ले कर आएगा। नेताओ की राजनीति जाति केन्द्रित हो गई है तो टीवी को क्यों कोस रहे हैं कि वो हिंसा मारधाड़ और एक्शन से भरपूर सीन ही दिखाता है। इतना और इसके अलावा भी बहुत मैं सुनाता चला गया। क्योंकि ऐसी वन टू वन मुलाक़ात पहली बार हो रही थी। इसलिए कुछ सुनने के बाद शरद यादव ने पूछा आपका नाम क्या है। मैने अपना नाम बताया तो उन्होने नेता वाली अंदाज़ में कहा अच्छी पकड़ है उमाशंकर। ऐसे भी कभी कभी ऐसे भी मिलते रहो। बात करते रहो। मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी क्योंकि मुझे पता है कि सिर्फ बात करते रहने से कोई तब्दीली नहीं आएगी। कुछ करना भी पड़ेगा।
इस बहस के बीच ही बिहार में नीतिश कुमार की सरकार बन गई। संसद सत्र के दौरान और उसके अलावा भी शरद यादव मिलते हैं... सेज़ से सब्ज़ी भाजी बेचने में रिलायंस जैसी कंपनियों लोलुपता... हर मुद्दे पर वो लड़ाई लड़ने की बात करते हैं। अच्छी बात है। पर बिहार में किसानों के लिए क्या हो रहा है शायद आप सबों को बेहतर पता हो।
मैंने अपने संदर्भ से बात कही। सिर्फ शरद जी के हवाले से कही तो इसलिए क्योंकि इसे लेकर उनके और मेरे बीच लंबी बात हुई। लेकिन वो अकेले नेता क़सूरवार नहीं हैं। तमाम नेता हैं जो किसान हित की पोथी दिखा कर चुनावी गणित बिठाते हैं। पूरे देश में हालत खराब है। नीतियां ढंग की बनती नहीं। जो बनती हैं चलती नहीं। कुछ राज्य अपवाद हो सकते हैं। पर किसानों की हालत पर कोई नेता गंभीर नहीं। विदर्भ में मर रहे किसानों को स्मार्ट कार्ड मिलेगा।
अपनी इस लंबी टिप्पणी का अंत अपनी एक गुम गई कविता से करना चाहूंगा। सिर्फ पहली चार पंक्ति याद है बाकि कागज़ों में कहीं खो गई।
'ऐ मानव जिस क्षण तू ये कविता गढ़ रहा होगा
उस क्षण भी हर तरफ कलयुग घट रहा होगा
किस किस पर लिखेगा तू किस किस को छोड़ेगा
तेरी लेखनी से तेज़ सृष्टिचक्र चल रहा होगा।
घर की ही बात लो तो कई चित्र उभरते हैं
तुम्हारे धरोहर और संस्कार ऐसे टूट बिखरते हैं
कि कहीं कोई अपना अपनों से कट रहा होगा
बाप की ज़मीन का टुकड़ा बेटों में बंट रहा होगा!
उस क्षण भी हर तरफ कलयुग घट रहा होगा...'
रिसर्च वगैरह नहीं कर पाता। देखी सुनी लिखता हूं। इसलिए कोई ग़लती हो तो बताने की कृपा करें।
शुक्रिया। आपका,
उमाशंकर सिंह
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6 comments:
भाई उमाशंकर जी ! बहुत अच्छा लिखा है आपने। आप जैसे पत्रकारों से ऐसे ही लेखन की उम्मीद है। बिलकुल सही कहा आपने, बिहार में जातीय समीकरणों से ऊपर उठ कर भूमि के समान आबंटन के बारे में सोचने की जरूरत है। बिना इसके इस उद्योगविहीन राज्य की प्रगति संभव नहीं है।
शुक्रिया मनीष भाई, लेकिन समस्या ये है कि फिलहाल हम लोग सिर्फ बातें ही कर सकते हैं। लिख ही सकते हैं। करने वालों के गर्दन पर हाथ रख कर करवा नहीं सकते। कोफ़्त होती है कई बार।
बढ़िया!!
यह आपने बिलकुल सही बात कही कि आप या हम बात ही कर सकते हैं या ज्यादा से ज्यादा सिर्फ़ लिख सकते हैं।
2003 में जब मैं जनसत्ता रायपुर में था, प्रेस कांफ़्रेंस में स्थानीय शिक्षा मंत्री से यूनिवर्सिटी मे हुए भ्रष्टाचार के मामले को लेकर उलझ सा गया था पर वहां मौजूद अधिकतर पत्रकारों के चहेते थे वे शिक्षा मंत्री और पत्रकार भी शिक्षा मंत्री के चहेते।
सच में बड़ी कोफ़्त होती है!!
संजीत भाई, गांधी जी ने लिखा है कि 'दुनिया को ख़तरा बुरों की बुराई के कारण उतनी नहीं है जितनी अच्छों की दुर्बलता के कारण।' हम तो यही उम्मीद पाले बैठे हैं कि समान सोच वाले मिल कर कभी ना कभी कुछ करेगें...लिखने के अलावा भी।
आमीन!!
प्यारे उमा भाई, बहुत ही सुखद अनुभूति हुई आपकी पोस्ट को पढ़कर। अच्छा लगा है कि हम अकेले ही नहीं है कबीर की परंपरा में जिन्होंने लिखा था, 'सुखिया सब संसार है खावै अरु सौवै, दुखिया दास कबीर है जागै अरु रोवै।' अब तो मजरूह सुल्तानपुरी का ये मशहूर शेर याद आ रहा है कि...
मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर,
लोग आते गये और कारवां बनता गया।।
साथियों, इसी तरह माहौल बनाए रखिए। हम हिंदुस्तानी अवाम के सामने मौजूद हर सवाल का जवाब तलाशेंगे। पाश के शब्दों में कहूं तो, हम लड़ेंगे साथी, जब तक लड़ने की जरूरत बाकी है...
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