मेजर दिनेश रघुरमण और मेजर के.पी. विनय ने कश्मीर में आतंकवादियों से लड़ते हुए शहादत दे दी। शहीद होने के पहले इन्होंने कम से कम नौ आतंकवादियों को मार गिराया। तीन दिन हो गए लेकिन लगता नहीं कि किसी ने भी इनकी शहादत को अभी तक नोटिस किया है। सेना का विभागीय सम्मान और मदद अपनी जगह। लेकिन ना तो खुद को राष्ट्रवादी कहने वाली पार्टी बीजेपी, सेकुलर होने का राग अलापने वाली कांग्रेस, अमिताभ के सम्मान की ख़ातिर सोनिया से भिड़ने वाले अमर सिंह, आतंकवाद के खिलाफ भौंहे तान फोटो खिंचवाने वाले नरेन्द्र मोदी या खिलाड़ियों को जर और ज़मीन बांटने वाले हरियाणा या झारखंड जैसे किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री.... किसी की भी तरफ से सम्मान के दो बोल अब तक सामने नहीं आए हैं।
जम्मू औऱ कश्मीर में जवान से लेकर अफ़सर तक जान की बाज़ी लगाते रहते हैं। ये सच है कि कुर्बानी ईनाम के लिए नहीं दी जाती। लेकिन एक तरफ ये नायक अपनी गोलियों से देश के दुश्मनों को मारते हैं तो भी ख़ामोशी पसरी रहती। दूसरी तरफ बैट से निकलने वाले छक्कों पर करोड़ों बरसते हैं। सम्मान में मंच सजते हैं। कारवां निकलता है। पर सोचिए। देश का मान असल में कौन बढ़ा रहे हैं?
देश के इन वीर सपूतों को हमारी श्रद्धांजलि!!!
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9 comments:
भाई, छक्कों को भीड़ देखती है, लोकतंत्र में भीड़ ही वोटबैंक है, भीड़ ही उपभोक्ता है। जाहिर है करोड़ों उसी के लिए लुटाए जा रहे हैं।
देश के लिए सीने पर गोली खाने वालों को कौन भीड़ देखती है, उससे कौन सा वोट बैंक बनता है, कौन सा बाजार मिलता है, आखिर क्यों कोई जवानों की सुध लेगा।
सेना और पुलिस के जवानों और निचले स्तर के अधिकारियों में अधिकांशत: गरीब घरों के बेटे हैं, उनकी जान कौन-सी कीमती है कि उन पर करोड़ों लुटाए जाएंगे?
आप पत्रकार लोग क्रिकेट के बजाय बहादुरी के साथ सीने पर गोली खाते सैनिकों का लाइव टेलीकास्ट करने का हौसला दिखलाइए न, देखिए कितना बड़ा वोटबैंक बनता है और कैसे नेता लोग लाइन लगाकर लाखों-करोड़ों देने आते हैं। लेकिन आप लोग तो इतना भी करने को तैयार नहीं होते कि यदि किसी शहीद के परिवार की सहायता के लिए कोई सरकारी घोषणा हुई हो और उस पर प्रशासन द्वारा अमल नहीं किया जा रहा हो तो ऐसे मामलों की तत्परतापूर्वक पड़ताल करके मीडिया में हाईलाइट कर सकें और सरकार पर अपना वादा पूरा करने के लिए दबाव बना सकें।
आपके तेवर जायज़ हैं। वैसे क्रिकेट जैसे खेल को सिर्फ मीडिया ने नहीं बढ़ाया। खेल प्रेम के नाम पर उपभोक्ता दर्शकों ने ही बढ़ाया है। आप देखते हैं तो मीडिया में आता है और नेता भुनाता है। अपने टाईम में कश्मीर के एनकाउंटर के सैंकड़ों लाईव कवरेज दिखाए गए हैं। कई मौक़ो पर मैं खुद मौजूद रहा। लेकिन पल भर ठिठक कर देखने के बाद लोग आगे बढ़ गए। मैदान में छक्कों की ताताथैय्या दिल थाम कर लोग देखते हैं।
फिर भी पत्रकारों को आपकी ललकार बेतुकी नहीं। पर अकेला चना भांड़ नहीं फोड़ता। आपके साथ की ज़रुरत है।
शुक्रिया
जिस देश की पूरी व्यवस्था ही छक्कों के हाथ में हो, वहाँ और क्या होगा उमाशंकर भाई?
नमन ऐसे सपूतों को!!
यही तो है देश के असली हीरो!!
यह आपका कहना सही है कि हम देखते है तभी मीडिया मैदानी छक्कों को दिखाता है। बतौर उदाहरण कभी किसी खेल चैनल का प्रसारण किसी प्रतियोगिता के दौरान किसी शहर मे रुक जाए तो लोग वहां के केबल ऑपरेटर के खिलाफ़ एकजुट हो जाते हैं। ऐसी एकजुटता तो घटिया राजनीति या मूलभूत सुविधाएं हासिल करने के लिए भी कई बार नही दिखती!!
हम कैसे आपका साथ दें सकते है कृप्या बतलाईये।
कौन शहीद भाई ?
लगता नहीं आपको किरकिट का कुछ पता है, यहाँ जो इनाम न दे वो देशद्रोही होता है. इतना महत्त्व है क्रिकेट का.
बजार में उग्रपंथियों के जान की भी एक कीमत है. देखा नहीं कितनो की रोजी इनकी मौत पर आसूँ बहा कर चलती है?
सैनिको की मौत से क्या मिलेगा?
देश के इन वीर सपूतों को हमारी श्रद्धांजलि!!!
उमाजी
आज का दिन हैदराबाद के लिये बहुत बुरा था लोग दुखी थे, जम कर कोस रहे थे, .... किन्हें आपको पता ही होगा। स्थानीय राजीव गांधी स्टेडियम में हार रहे भारतीय टीम के खिलाड़ियों को।
और दूसरी तरफ शहीद मेजर के पी विनय का पार्थिव शरीर पंचतत्व में विलीन हो रहा था। टीवी पर क्रिकेट छाया हुआ था, शहीद नहीं।
मेजर विनय का इसी महीने विवाह होना तय हुआ था, और उनकी छुट्टियाँ भी मंजूर हो गई थी, उससे पहले ही ...
शहीदों का नमन
उमाशंकर जी, आपने बहुत सही बात को उठाया है। पहले तो नमन उन शहीदों को जिन्होंने देश और *देशवासियों* की सुरक्षा के हित में अपना जीवन भी बलिदान कर दिया। कितने ही और भी हैं, जो शहीद तो नहीँ हुए पर वे जानते हैं कि उनका जीवन सदा ही दाँव पर लगा है। यह खतरा जानते हुए भी वे अपने कर्त्तव्यों के लिये प्रतिबद्ध रहते हैं।
अब दो बाते हैं, पहली यह कि जन सामान्य तक यह सूचना या समाचार कौन पहुँचाये और कैसे उसका प्रस्तुतिकरण करे। चौकों और छक्कों के समाचार और खेल को तो पूरी तरह से मनोरंजक रूप से, जीवंत प्रसारण, विश्लेषणों के साथ, चर्चा के साथ प्रस्तुत किया जाता है, वाणिज्यिक प्रलोभन भी होते हैं - खिलाड़ियों कि लिये भी, प्रस्तोताओं के लिये भी और साथ ही दर्शकों (उपभोक्ताओं) के लिये भी। अब वीर शहीदों को तो कोई स्पॉन्सर नहीँ करता, कोई अन्य खिलाड़ी अथवा लोकप्रिय अभिनेता अथवा आकर्षक अभिनेत्री भी आये दिन उनका महिमा मंडन नहीं करते अथवा उनके द्वारा देश के प्रति दी गयी कुर्बानी से अपने आप को उपकृत नहीँ दर्शाते (किसी विशेष काल खंड को छोड़ कर) तो हम सामान्य दर्शक उन वीरों को भुला देते हैं।
दूसरी और जन सामन्य भी कम दोषी नहीँ है - जो उनके बलिदान के महत्व को समझते तो हैं, परन्तु उन्हें सहज रूप में याद नहीँ रख पाते। जिन व्यक्तियों के जीवन पर इनका प्रभाव पड़ता है, चाहे वे सुरक्षा बलों के द्वारा सुरक्षित नागरिक हों अथवा उनके परिवारीजन, वे सदा ही याद रखते होंगे उनके इन बलिदानों को। सामान्य जन तो उस ग्लैमर युक्त मीडिया के चकाचौंध भरे, आकर्षक सामग्री के आगे सोच ही नहीँ पाते। यह विडंबना ही है कि जो लोग उन्हें भुला देते है, अथवा उनके बलिदान को महत्व नहीं देते, ध्यान नहीँ देते, ये वही देशवासी होते हैं जिनकी सुरक्षा में उन्होंने अपने प्राणों को *नित्य* ही दाँव पर लगा रखा है - न केवल यह बल्कि वे वीर स्वयं भी इस विडंबना के सत्य से बखूबी वाकिफ़ होते हैं। ज़रा देखिये उनकी महानता!
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