तेज़ी से बदलती दुनिया में अगर आप अपनी ज़िंदगी में ठहराव महसूस करते हैं तो ये कविता... जो कि हमारे समय का सबसे बड़ा फ्रॉड है?... आपके लिए है। जैसे कि आप बेशक अपना हैंडसेट ना बदल पाए हों पर हचुशन-एस्सार से जो हच बना, वो अब वोडाफ़ोन बन गया...कुछ इसी तरह के बदलावों और ठहरावों को दर्शाने की कोशिश की गई है यहां।
कौन छोटा बना रहा
बड़ा कौन हो गया
विस्तार की लड़ाई में
सवाल गौण हो गया।
हम तो खड़े वहीं रहे
हच भी वोडाफ़ोन हो गया!
लाटों की फौज भी चाहते
काम के कुछ सिपाही
जिनके बूते दे सकें
वे अपने अस्तित्व की दुहाई
इतने लब बोले
कि मन मौन हो गया।
विस्तार की लड़ाई में
सवाल गौण हो गया।
हम तो खड़े वहीं रहे
हच भी वोडाफ़ोन हो गया!
दुनिया ने देखे हैं
बड़े बड़े जलजले
कई हिटलर आए
और मुबारक़ भी पिट गए
लोकतंत्र आया तो
चौधरी कौन-कौन हो गया।
विस्तार की लड़ाई में
सवाल गौण हो गया।
हम तो खड़े वहीं रहे
हच भी वोडाफ़ोन हो गया!
हर तरफ आ रहा
कुछ ना कुछ बदलाव
पर हमें चिढ़ा रहा
अपने हिस्से का ठहराव
हैंडसेट भी वही रहा
नेटवर्क भी धोखा दे रहा
उधर, कुत्ते ने भी घर बदला
बदन झिड़क के चल दिया।
जहां पहले बेडरुम था
वहां लॉन हो गया
विस्तार की लड़ाई में
सवाल गौण हो गया।
हम तो खड़े वहीं रहे
हच भी वोडाफ़ोन हो गया!!
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3 comments:
मित्र अच्छी सामयिक रचना है बस थोड़ा शब्दों के हेर-फेर की आवश्यक्ता है। वो भी कहीं पर बस।
विस्तार की लड़ाई में
सवाल गौण हो गया।
हम तो खड़े वहीं रहे
हच अब वोडाफोन हो गया।।
--बहुत खूब, महाराज!!!
जहां पहले बेडरूम था, वहां लॉन हो गया।
विस्तार की लड़ाई में, सवाल गौण हो गया।।
माफ कीजिएगा। कल इधर-उधर की भागमभाग में नहीं देख पाया। दिलचस्प और अच्छी तुकबंदी है।
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