नेताओं के महान बनने की प्रक्रिया शुरु हो चुकी है। आधुनिक भारतीय नेतृत्व के इतिहास में ये सिर्फ दूसरा मौक़ा है जब कोई नेता अपने कार्मिक वजहों से महानता प्राप्त कर सकता है... और काफी हद तक कर भी रहा है।
ऐसा एक मौक़ा था देश की आज़ादी के पहले, जब देश को आज़ाद कराने का मक़सद हमारे उस समय के अगुवों के सामने था। उन्हें हिंसा-अहिंसा जैसे रास्तों पर चल कर हमारे देश को आज़ाद कराया। इस क्रम में उन्होंने लाठियां खायीं, कई-कई बार जेल गए, प्रताड़ना झेली, फांसी पर चढ़े... और तब जा कर महान कहलाए। कुछ ने सामाजिक कुरीतियों से लड़ कर महानता पायी।
आज के हालात अलग हैं। स्वतंत्रता आज हमारी चेरी है। हम सभी अपने अपने ढंग से स्वतंत्र हैं। हम उसमें उसी से खेल रहे हैं। सो और स्वतंत्रता प्राप्त करने की ज़रुरत हमारे नेताओं के सामने नहीं है। आने वाले कई सालों तक हमारी ग़ुलामी की कोई उम्मीद भी नहीं है कि हम अभी से किसी नए स्वतंत्रता आंदोलन की तैयारी करें। अगर हम ग़ुलाम हुए भी तो वो ग़ुलामी पिछली ग़ुलामी जैसी नहीं होगी। हमारे पास सुख सुविधा के तमाम साधन होंगे। बस सोच अपनी नहीं होगी। तंत्र भी संभवत: अपना ही होगा लेकिन उसे चलाने वाला तांत्रिक कोई और होगा। 'इह' लोकतंत्र से हम 'पर' लोकतंत्र में होंगे। स्वर्ग सा आनंद लूटेंगे। तो फिर स्वतंत्रता आंदोलन की बात कैसी और नेताओं के महान बनने का मौक़ा कैसा।
रही सामाजिक कुरीतियों से लड़ कर महान बनने की बात तो उसमें भी अब सीमित स्कोप है। कुरीति समझी जाने वाली कई रीतियों को तो अब सामाजिक मान्यता मिल चुकी है। ख़ासतौर पर लेनदेन संबंधी रीतियों को। समय-साल के हिसाब से नए-नए कंसेप्ट उभर कर सामने आ रहे हैं। इनमें चीज़ों को नए ढंग से व्याख्यित-परिभाषित किया जा रहा है। कल तक जो अनैतिक था, आज अलग-अलग तर्कों के सहारे नैतिक है। व्यक्तिगत लक्ष्यों के प्रति पूरा समर्पण ही आजकल नैतिकता बन गई है। ऐसे समय में नेता लोग किसे सुरीति माने और किसे कुरीति और किसे मिटा कर अपनी महानता दिखाएं? लेकिन महान तो बनना है चाहे इसके लिए महानता की नई परिभाषा ही क्यों ना गढ़नी पड़े। महानता की ओर ले जाने वाले कदमों को पुनर्निधारण ही क्यों न करना पड़े। सच है कि हर कोई अपने अपने ढंग से महान बनने की सोचता और जुगत भिड़ाता है। इसमें मीडिया उसकी सहायता के लिए बैठा है।
बिना पब्लिक के जे जाने गुप चुप तरीक़े से महान तो बना नहीं जा सकता। इसलिए परंपरागत छुटभैय्येपन से मुक्ति पानी होगी। लीक से हट कर कुछ नया करना होगा। या फिर मर जाना होगा क्योंकि बुरा से बुरा नेता भी मरने के बाद महान हो जाता है।
धोती कुरता पहन कर, किसी विचारधारा का चोगा ओढ़ कर, देश के लिए बिना मांगे जान देने की बात भर करने से अब नोटिस नहीं मिलती। अच्छी योजनाएं भी बनीं, शिलान्यास भी हुआ, काग़ज़ की नाव भी बनी, उसे प्लेन की तरह कुछ देर हवा में उड़ाया भी गया... लेकिन नाम न मिला। पिछले कई साल से बंधुआ मज़दूरी मिटाने, जनसंख्या क़ाबू करने और पर्यावरण बचाने की बात की... जनता ने ध्यान नहीं दिया। वर्षों प्राईम-मिनिस्टर रहे, मंत्रिमंडल में कई फेरबदल किए, देश चलाया, तनावों से जूझते दिखे और किंचित आध्यात्मिकता भी दिखाई... लेकिन इन सबसे महान बनने में कोई सहूलियत नहीं मिली।
अचानक कुछ घोटाले-कारगुज़ारियों के पन्ने फड़फड़ाए... हवाला, चारा, रिश्वत, जालसाज़ी...। श्रृंखला की एक से एक कड़ी। कैमरे की लाईटें चमकीं। कलम उठे। विरोध में ही सही, लिखा-बोला जाने लगा। अदालत आते-जाते समय टीवी पर दिखाए जाने लगे। जेल तक की नौबत आयी। पहले तो ख़राब लगा। फिर याद आया कि जेल यात्रा से ही तो महानता की जड़ को मज़बूती मिलती है।
फिर तो संकट का ये काल वरदान-सा लगने लगा। अपने प्रभाव को दिखा कर अपनी महत्ता बरक़रार रखने का... उसे बताने का सुअवसर है यह। कैसे करोड़पति लखपति बना जाता है इसका नज़ीर पेश कर जनता को प्रेरित किया जा सकता है। चोरी कर सीनाज़ोरी को महिमामंडित कर भी महान बना जा सकता है। नेताओं के वक्तव्यों में, इसकी झलक साफ देखी जा सकती है...अगर आंखे खोल कर देखें तो। सचमुच, भौतिक-उपभोक्तावादी आधुनिक भारत के महान व्यक्तित्व बनने जा रहे हैं वो!
(25दिसंबर1996 की मेरी डायरी का एक पन्ना)
Tuesday, October 16, 2007
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1 comment:
बढ़िया लिखा।
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