Wednesday, September 19, 2007

एक रुम-पार्टनर-दोस्त की तलाश में

कॅालेज के दिनों में राजौरी गार्डेन में रहा करते थे। पहले टू-रुम सेट में चार लोग थे। मतलब एक कमरे में दो-दो रहते थे। दो यूपीएससी एसपिरेंट थे, सो वो दोनों एक में। मैं और सौरभ एक कमरे में। एक गोरखा-भाई भी हमारे साथ था...हमारे खाने-कपड़े के लिए। हम से एकाध साल छोटा। रोटी बनाते हुए ब्रेक डांस करता था या ब्रेक डांस करते हुए रोटी बनाता था अंत तक पता नहीं चला। लेकिन दोनों सीनियर के निकल जाने के बाद मैं औऱ सौरभ एक सिंगल रुम सेट में आ गए। गोरखा-भाई को मां की याद आयी तो घर चला गया। जनपथ से हमने उसे जींस और टीशर्ट्स लेकर दिए। नेपाल से था और इसलिए बहुत ही फैशन परस्त। अच्छा लगता था ज़िंदगी के प्रति उसका जोश देखकर। उसके बारे में कभी अलग से बताउंगा।

सौरभ भी इतिहास आनर्स की कर रहा था। रामजस और फिर माईग्रेशन लेकर हिंदू कॅालेज से। मैंने अपनी पढ़ाई दयाल सिंह कॅालेज से ही जैसे तैसे पूरी की। कॅालेज की पढ़ाई के बाद मैंने जो लाईन चुनी वो आपके सामने है। सौरभ ने भी अपने करियर के लिए काफी मेहनत की। लेकिन समय के फेर में हम दूर हो गए। बीच में वो पटना लौट गया। फिर दिल्ली आया। मिला। फिर ग़ुम गया। उसकी याद आती रहती है। कॅामन जानकारों से पूछता रहता हूं। पर इधर बड़े लंबे समय से उसकी कोई खोज़-ख़बर नहीं है। अभी भी उसके पुराने दिए एक मोबाईल पर फोन किया। घंटी बजती रही कोई रिस्पांस नहीं। मन और जिज्ञासु हो गया उसके बारे में जानने को। ब्लाग के ज़रिए उस तक पहुंचने की सोचना नादानी होगी। व्यक्तिगत संबंधों के किसी और अंतरजाल (ये शब्द ब्लॅाग पर ही सीखा है...उम्मीद करता हूं कि सही इस्तेमाल कर रहा हूं) पर मैं हूं नहीं। बस उस रुम-पार्टनर-दोस्त की याद आपसे शेयर करना चाहता हूं। इसलिए लिख रहा हूं। उसके एक जन्मदिन पर मैं चार पंक्तियां लिख कर दी थी। शायद उसने संभाल के रखा हो। मैंने लिखा था...


मेरा अतीत,
एक उपवन।
कहीं उजड़ा हुआ सा
तो कुछ शेष है जीवन।

असंख्य कांटों के बीच
जैसे पुष्पित एक सुमन।

स्मृति का वो सुमन भी
कागज़ का होता,
उसमें यदि सौरभ
तुम समाया ना होता!

सौरभ पटना से है औऱ तिल-तिकड़म से हमेशा दूर ही रहा है। सपाट और बिना लाग-लपेट वाली ज़िंदगी जीने वाला। उससे भी मैंने बहुत कुछ सीखा। कभी भूले से हिंदी ब्लागिंग की दुनिया में झांक ली तो उसे पता चलेगा कि यहां भी उसका ज़िक्र है। इसी बहाने शायद फोन ही कर ले। मेरा मोबाईल नंबर वही है। दस साल पुराना।

1 comment:

आशुतोष उपाध्याय said...

दस साल से दिल्ली में ऐसी संवेदना बचा कर रखे हुए हैं। बहुत बड़ी बात है। बस ऐसे ही दुनिया सुंदर बनती है।