कभी भी किताबी पढ़ाई में मन नहीं लगा। पर बचपन से ही कुछ ना कुछ लिखने का दुस्साहस करता रहा हूं। ख़ूब नहीं तो ए-फोर साईज़ के कई कागद कारे किए हैं। चाहे कोई पढ़े ना पढ़े। किसी को समझ में आए ना आए। सब ख़ुद की संतुष्टि के लिए। लेकिन मेरी पहली चंद पंक्तियां जो प्रकाशन योग्य मानी गईं, वो रहीं...
मेरे अपराध क्षेत्र अब बड़े हो रहे हैं
अगले चुनाव में हम भी खड़े हो रहे हैं!
नब्बे में लिखी गई इन पंक्तियों को 1991 में कॅालेज मैगज़ीन में जगह मिली। दिल्ली विश्वविद्यालय के दयाल सिंह कालेज में तब मैं प्रथम वर्ष में था। तब मंडल कमीशन लागू होने के बाद की आग फैल कर कुछ शांत हो चुकी थी। 'न्यू स्टार' नामक इस मैगज़ीन में मेरी कुछ औऱ पंक्तियां जिनको जगह मिली, वो हैं...
जो करते हैं साम्प्रदायिक एकता की बात
वही लगाते हैं जातीयता की आग!
ये दौर मंडल कमीशन के बाद अयोध्या में राममंदिर बनवाने के भाजपाईयों के जुनून और आम चुनाव का भी था। सो मैंने लिखा...
मंडल है गर्दिश में, मंदिर अभी रौशन है
मुद्दा तो ढूंढ़ना है, चुनावों का जो मौसम है!
द्वितीय वर्ष में मुझे कॅालेज मैगजीन का संपादक बना दिया गया। फिर मैंने क्या लिखा... अगली बार। अगर आपको जानने में दिलचस्पी हो तो!
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3 comments:
अरे आप इतना बेहतरीन लिखते हैं, यह तो पता ही नहीं था :)
मेरे अपराध क्षेत्र अब बड़े हो रहे हैं
अगले चुनाव में हम भी खड़े हो रहे हैं!
क्या बात है, माश्शाअल्लाह!!!
जरुर सुनाये कि और क्या क्या लिखा. इन्तजार लगा है.
बचपन में इतना धांसू लिखा और बड़े हुए तो पत्रकार बन गए! अच्छी बात नहीं है ये...
मेरे अपराध क्षेत्र ...
यह तो वास्तव में बहुत ज़बर्दस्त है भाई! 90 के दशक ही कया, उसके बाद के कालखंड में भी, अब कब तक ये सही बना रहेगा, कौन जाने!
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