रिश्तों को लेकर हम सभी सचेत रहते हैं। गंभीर औऱ अगंभीर चेतना के साथ और कभी इन दोनों के बीच के मानसिक द्वंद्व में फंस कर भी। दूसरों के हालात पर कई बार हम अपना बड़प्पन वाला चोगा ओढ़ लेते हैं... और जब यही हमारी निजी ज़िंदगी में होता नज़र आता है तो उससे निकलने के रास्ते ढूंढ़ते हैं। ज़रुरत बारीक विश्लेषण की है। खैर... गपशप वाली शैली को आप भी जानते होंगे। क्या ज़्यादा तकलीफ़देह है... ये...या ये! पर शैली ने अपनी प्रतिक्रिया कुछ इस तरह भेजी है।
मुझे ये कहना है कि आज रिलेशन के मायने बदल गए/रहे हैं। शायद ये बात आपके और मेरे लिए अजीब लगे लेकिन दूसरों के लिए नहीं। इसलिए ये ग़लत है कि हम रिलेशन पर क्या सही है और क्या ग़लत है उसका फैसला करें। क्योंकि ये हर व्यक्ति का निजी मामला या सोच है। अगर कोई 'गे' है तो आप उसे कैसे गलत/सही ठहरा सकते है। जबकि 'गे' होना उसका निजी कारण है। आपने जो पिक्चर लगाई है उसी का एक्जामपल देके मै अपना प्वाइंट रखना चाहती हूं।
रिश्तों के बारे में मैं कोई ज्ञानी नहीं। लेकिन इतना तो जानती हूं कि रिश्ता शब्द ही बेहद निजी है।
इन तस्वीरों को देखकर आपको ज़रूर कुछ अलग लगा तभी आपने इन्हें यहां जगह दी। मुझे भी ये दोनों तस्वीरें चौंकाती हैं। क्योंकि ये दोनों ही भाव मेरे लिए सही नहीं। ये मेरे निजी ख्याल हैं ।
लेकिन क्या सही है और क्या गलत इसका फैसला हम और आप नहीं कर सकते क्योंकि ये रिश्तों की बात है।
रिश्ते यानी दृश्टिकोण, जो हर इंसान के लिए अलग अलग है। ये तस्वीरे आपको या मुझे तकलीफ दे सकती हैं। लेकिन क्या वाकयी ये तकलीफदेह हैं? मुझे आपत्ति तब लगी जब मैने तकलीफदेह शब्द पढ़ा। इससे लगता है कि आप लोगों से पूछ रहे हैं कि आपको कौन सा रिश्ता ज्यादा तकलीफदेह लगता है। पहला या दूसरा। क्योंकि ज़रूरी नहीं ये तस्वीरें सभी लोगों को तकलीफ देने वाली ही लगे।
मेरी प्रति-प्रतिक्रिया
शैली जी, यहां रिश्तों की निजता पर कोई शक या सवाल नहीं है। मुद्दा है कि निजी रिश्तों का एक आयाम दूसरे पहलू में तकलीफदेह साबित हो सकता है। ऐसे रिश्तों से जिनको तकलीफ़ पहुंचती या पहुंच सकती है वो भी निजी रिश्ते या रिश्तेदार ही होते हैं। प्वाईंट टू। जब निजी रिश्ता निजी ना रह कर सार्वजनिक तौर पर सामने आ जाए तो कई और सवाल उठ खड़े होते हैं। हम मोरल पुलिसिंग नहीं कर सकते। लेकिन आवाज़ें तो उठती हैं... 'धर्मयुद्ध छेड़ शुचिता' कायम करने के लिए नही तो कम से कम ऐसे रिश्तों को समझने की कोशिश में ही सही।
मेरे ख्याल से रिश्तों का सही और ग़लत होना कथित सिद्धांतों औरआदर्शों से नहीं... बल्कि इससे तय होनी चाहिए कि इसका व्यवहारिकता पर क्या असर पड़ता है। किसी को तकलीफ होती है या नहीं। जिनको तकलीफ नहीं होती वो चाहे बेशक जितने और जैसे भी रिश्ते जीएं किसी को एतराज़ नहीं होगा। लेकिन जिनको तकलीफ होती है वो तो भेद करेंगे ही। विचारेंगे ही। हम तो यहां बस नज़रियों का आदान प्रदान कर रहे हैं। वैसे आपने ठीक कहा कि संस्कार और पलाव-बढ़ाव के माहौल के हिसाब से रिश्तों के आयाम तय होते हैं। रिश्तों के बीच में हम टांग अड़ाने वाले कौन।
शुक्रिया
उमाशंकर सिंह
Thursday, September 13, 2007
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