Wednesday, September 12, 2007

हल्की होती राजनीतिक रिपोर्टिंग...

अमर सिंह को कई लोग हल्के व्यक्तित्व का मालिक मानते हैं। मैं भी उसी इंप्रेशन में रहता रहा हूं। उनकी कई बातें ऐसा करने को पत्रकारों को बाध्य करती हैं। लेकिन कुछ दिनों पहले उनसे पार्लियामेंट में कुछ पत्रकारों ने उनसे एक सवाल किया। संदर्भ था न्यूक्लियर डील को लेकर लेफ्ट फ्रंट का बयान कि यूपीए सरकार के साथ उनका हनीमून खत्म हो गया है और किसी भी वक्त तलाक हो सकता है। पूछा गया कि 'ऐसी बातें कही जा रहीं हैं...क्या मतलब निकाला जाए।' अमर सिंह ने बड़ी संजीदगी से जवाब दिया... 'ये गंभीर राजनीतिक मामला है। इसे लेकर शादी...तलाक...हनीमून जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।' फिर उन्होने अपना जवाब दिया। बेशक अपनी राजनीतिक हित-साधना के हिसाब से ही दिया हो।

ऐसा नहीं है इस वाकये के बाद अमर सिंह मेरे लिए महापुरुष हो गए हों। पर कई बार आप अपने छोटे से भी सीखते हो। पर हज़ारों ऐसे होते हैं जो पूर्वजों से भी नहीं सीखते। रातों रात ना सही... अनुभवों से सीखना तो सीख ही लेनी चाहिए।

इतनी बड़ी भूमिका मैंने इसलिए बांधी क्योंकि 11 सितंबर 2007 को भी कुछ ऐसा ही हुआ। जवाब देने वालों की तरफ से नहीं। सवाल पूछने वालों की तरफ से। शेरों वाली कुर्सी पर बैठने वाले बाला साहेब ठाकरे के बेटे उद्धव ठाकरे कीचड़ में कमल तलाशते दिल्ली में थे। बीजेपी नेताओं को मनाने। क्यों? क्योंकि प्रतिभा पाटिल यानि एक मराठी के राष्ट्रपति बनाने को लेकर शिवसेना ने बीजेपी-एनडीए की उल्टी लाईन ले ली थी। पाटिल यूपीए की उम्मीदवार थीं... फिर भी शिवसेना ने उनको सपोर्ट किया। वो जीत गईं...बिना शिवसैनिकों के भी जीत जातीं। लेकिन प्रतिभा पाटिल की जीत ने लगता है शिवसैनिकों का गर्व से सिर उतना उंचा नहीं किया। इसलिए वो मराठा-प्रतिष्ठा का प्रश्न भुला कर फिर हिन्दी-भाषी-प्रमुख-हिन्दुओं की पार्टी बीजेपी की गोद में आ बैठे हैं। बिना लाज शरम के दिल्ली तक आए। जिस आडवाणी को अनसुना कर गए थे उनकी चौखट तक गए। सब कुछ गुडी-गुडी नोट पर हुआ।

फिर प्रेस कांफ्रेंस की बारी। पूरी दिल्ली की मीडिया। एक से एक धुरंधर पत्रकार। टीवी और प्रिंट के भी। सवाल जवाब का दौर। कई अच्छे सवाल भी। पर जिस एक तरह के सवाल ने डाॅमिनेट किया वो रहा... 'आपका और बीजेपी का तो तलाक होने वाला था, फिर अचानक आप लोग हनीमून पर कैसे जा रहे हैं?' जवाब गोपीनाथ मुंडे ने दिया... 'बच्चों ने मना किया इस उम्र में तलाक लेने को...शादी को बीस साल हो गए हैं सो साथ ही रहना है...।' ऐसे ही कई और सवाल पूछे गए। उद्धव औऱ गोपीनाथ हंस कर टालते-जवाब देते गए। कोई गहराई हो सवाल में तभी तो सोच कर बोलें। रटते रहे कि गिल-शिकवे दूर हो गए हैं। अब शिवसेना बीजेपी के साथ रहेगी। एनडीए के नेता को अपना नेता मानेगी।

बयान आधारित इस बात स्वीकारने में कोई दिक्कत नहीं है। पर दिक्कत ये है कि राजनीतिक अवसरवाद का नमूना पेश करने वाली शिवसेना से ऐसा सवाल पूछने वाले कम ही थे...जिससे उद्धव या मुंडे को जवाब देने में परेशानी हो। पेशानी पर बल पड़े। हल्के सवालों को वे और भी हल्के में टालते गए। सामने बैठी पत्रकारों की टोली को लाफ्टर चैलेंज का आडियेंस मान हंसाते गए। जिनके भी सवाल पर वे हंसे और हंसाए वे अपने को धन्य समझते रहे। राजनीतिक रिपोर्टिंग तलाक और हनीमून जैसे शब्दों के सहारे ख़बर ढूंढती रही। कुछ सवाल और भी रहे। सीटों का बंटवारा क्या होगा। सीएम कौन बनेगा। अरे जैसा मुफीद लगेगा कर लेंगे। पूछना क्या। आख़िर साथ साथ रहना है।

पर कुछेक पत्रकारों ने जता दिया कि वे इन नेताओं के साथ मसखराबाज़ी करने नहीं आए हैं। एक ने पूछा... 'क्या आपलोग इस डर से साथ आए हैं क्योंकि कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने श्रीकृष्ण कमीशन की रिपोर्ट पर अमल का संकेत दिया है?' जवाब गोलमोल रहा। एक औऱ सवाल... 'राष्ट्रपति चुनाव के समय आपने मराठी प्रतिष्ठा का हवाला देते हुए बीजेपी से किनारा कर लिया...अब चुनावों की बारी आयी तो आपको लग रहा है बीजेपी के बिना आपकी कुर्सी नहीं बन सकती...तो आप फिर साथ आ गए हैं...क्या भविष्य में मराठी प्रतिष्ठा के किसी और सवाल पर आप बीजेपी से दुबारा तो नहीं कट लेंगे।' जवाब... 'जो हो गया हो गया... हम साथ साथ... 20 साल से...और अब और मज़बूती से रहेंगे।'

कहते हैं कि ख़बर मौन से निकाली जाती है। जो बोल कर बतायी जाए और जो सुनी-सुनाई जाए वो ज़्यादातर प्रपोगैंडा होती हैं। लेकिन मौजूदा माहौल में मौन को तोड़ ख़बर निकालने वाले सवाल कम ही सुनाई पड़ते हैं। पूछे भी जाते हैं तो जवाब मौन में दबा दिए जाते हैं। ज़्यादातर तो प्रपोगैंडा के आजू-बाजू ही घूमते दिखते हैं। वही संदेश जाता है जो राजनीतिक पार्टियां कहना और फैलाना चाहती हैं। न्यूज़ रूम और एडिटर की भूमिका अगर बहुत इंवोल्वमेंट वाला ना हो तो ज़्यादातर राजनीतिक ख़बरों में चकल्लस ही नज़र आता है। दरअसल हर तरफ हल्कापन आ रहा है। हम सभी शिकार हो रहे हैं। इसलिए कई बार अमर सिंह, अपने नाटकीय अंदाज़ में भी, कथनी में सही नज़र आने लगे हैं। सवाल पूछने वालों से ज़्यादा भारी नज़र आने लगे हैं।

(मैंने अपने इस अनुभव में उन राजनीतिक संवाददाताओं-संपादकों पर टिप्पणी नहीं की है जिन्होंने समय समय पर शासन-सत्ता को चुनौती दी है... और राजनीतिक अवसरवादिता को आईना दिखाया है और आज भी दिखा रहे हैं। शुक्रिया)

3 comments:

Udan Tashtari said...

बिल्कुल सही किया मित्र. ऐसे आईनों की जरुरत है समय समय पर. आलेख बहुत पसंद आया. बाधाई स्विकारो.

रंजन (Ranjan) said...

जैसे सवाल वैसे जबाब...
जैसे सवाल पुछने वाले, वैसे जबाब देने वाले...
जितना गम्भीर माईक पकडने वाले, उतना गम्भीर माईक पर बोलने वाले...
जितने गम्भीर पत्रकार, उतने गम्भीर नेता...

अनिल रघुराज said...

पत्रकार विरादरी में गजब का हल्कापन आया है और गजब की अवसरवादिता भी। सत्ता और नेताओं को साधने में ही सारा वक्त चला जाता है। जानने-समझने की जरूरत ही नहीं लगती है, फिर फुरसत कहां से निकलेगी।