Friday, December 28, 2007

बेनज़ीर की हत्या पर...

बेनज़ीर की हत्या को तहसीन मुनव्वर ने चार पंक्तियों में कुछ इस तरह समेटा है...

ख़ैर हो या रब पड़ोसी जान की
अब वहां क़ीमत नहीं इंसान की
साथ अपने ले गईं हैं बेनज़ीर
आख़िरी उम्मीद पाकिस्तान की!

ज़्यादा कुछ कहने की ज़रुरत नहीं।

2 comments:

Srijan Shilpi said...

जी हां, बेनज़ीर....शायद आख़िरी उम्मीदही थी पाक में जम्हूरियत के लिए। हालांकि वह बनी रहतीं तब भी क्या खाक़ जम्हूरियत होती। पर हाँ, एक आस, एक ख्याल जरूर रहता...उसकी गुंजाइश भी अब न रही।

अमेरिका के हाथों की कठपुतली बन चुके पाकिस्तान में अब ऐसा कोई बाकी नहीं, जो इस डूब रहे मुल्क को उबार सके। तालिबान के भस्मासुर से उसे बचाने के लिए कोई नहीं आएगा।

अजित वडनेरकर said...

बढ़िया है पंक्तियां। कविता के स्तर पर तो ठीक है बात मगर इतना निराशाजनक भी नहीं माहौल। आखिरी उम्मीद जैसी भी कोई बात नहीं। कई उम्मीदें हैं। फलस्तीन से ज्यादा दारूण तो नहीं पाकिस्तान की त्रासदी ....उम्मीदें तो वहां भी कायम है। ज़रूर आशावादी रहें । वहां भी हालात बदलेंगे। लोग मुकाम बनते हैं, पड़ाव बनते हैं। यात्रा का अंत नहीं बनते ।