जी हां, बेनज़ीर....शायद आख़िरी उम्मीदही थी पाक में जम्हूरियत के लिए। हालांकि वह बनी रहतीं तब भी क्या खाक़ जम्हूरियत होती। पर हाँ, एक आस, एक ख्याल जरूर रहता...उसकी गुंजाइश भी अब न रही।
अमेरिका के हाथों की कठपुतली बन चुके पाकिस्तान में अब ऐसा कोई बाकी नहीं, जो इस डूब रहे मुल्क को उबार सके। तालिबान के भस्मासुर से उसे बचाने के लिए कोई नहीं आएगा।
बढ़िया है पंक्तियां। कविता के स्तर पर तो ठीक है बात मगर इतना निराशाजनक भी नहीं माहौल। आखिरी उम्मीद जैसी भी कोई बात नहीं। कई उम्मीदें हैं। फलस्तीन से ज्यादा दारूण तो नहीं पाकिस्तान की त्रासदी ....उम्मीदें तो वहां भी कायम है। ज़रूर आशावादी रहें । वहां भी हालात बदलेंगे। लोग मुकाम बनते हैं, पड़ाव बनते हैं। यात्रा का अंत नहीं बनते ।
मैं,
उलझा हुआ सांसारिक कर्म रीति में,
बंधा हुआ अपनी ही नियति में,
जीवन के कटु सत्यों से दो चार हो कर भी,
अनभिज्ञ,
दिशाहीन, निष्प्रयोजित पथ पर चलता,
सिर्फ कल
और कल पर विचारता,
शब्द माध्यम द्वारा
मुक्ति हेतु,
सोचता,
उद्विग्न खड़ा,
मैं...
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जी हां, बेनज़ीर....शायद आख़िरी उम्मीदही थी पाक में जम्हूरियत के लिए। हालांकि वह बनी रहतीं तब भी क्या खाक़ जम्हूरियत होती। पर हाँ, एक आस, एक ख्याल जरूर रहता...उसकी गुंजाइश भी अब न रही।
अमेरिका के हाथों की कठपुतली बन चुके पाकिस्तान में अब ऐसा कोई बाकी नहीं, जो इस डूब रहे मुल्क को उबार सके। तालिबान के भस्मासुर से उसे बचाने के लिए कोई नहीं आएगा।
बढ़िया है पंक्तियां। कविता के स्तर पर तो ठीक है बात मगर इतना निराशाजनक भी नहीं माहौल। आखिरी उम्मीद जैसी भी कोई बात नहीं। कई उम्मीदें हैं। फलस्तीन से ज्यादा दारूण तो नहीं पाकिस्तान की त्रासदी ....उम्मीदें तो वहां भी कायम है। ज़रूर आशावादी रहें । वहां भी हालात बदलेंगे। लोग मुकाम बनते हैं, पड़ाव बनते हैं। यात्रा का अंत नहीं बनते ।
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