(जनसत्ता के तीन जनवरी के अंक में प्रकाशित)
बेनज़ीर मारी गईं। बड़े दिनों तक सवाल उठेगा कि किसने मारा... या किसने मरवाया? पाकिस्तान की सियासत में भीतरी और बाहरी काफी पेंचदगियां हैं। फिर भी शक का सिरा पकड़ना मुश्किल नहीं है। सवाल है कि आख़िर बेनज़ीर की मौत से किसे फ़ायदा होगा। एक, या तो उन्हें जो पाकिस्तान में तालिबानी शासन चाहते हैं। या फिर दूसरा, उन्हें जो बेनज़ीर से ख़तरा महसूस करते हों।
बेनज़ीर की पीठ पर अमेरिका का हाथ बताया जाता रहा है। ये अमेरिकी दबाव ही था जिसकी बदौलत उनकी वतन वापसी संभव हो पायी। पाकिस्तान के वे तत्व जो अमेरिका को अपना दुश्मन नंबर वन मानते हैं... बेनज़ीर के भी खिलाफ रहे। उन्हें लगता रहा कि ये अमेरिकी इशारे पर चल कर पाकिस्तान को उस दिशा में ले जाएगी जो 'इस्लाम के हित' में नहीं होगा। लड़के लड़कियों के लिए अलग स्कूल जैसी ज़िद पाले बैठे ये तत्व दरअसल पाकिस्तान को उस रास्ते ले जाना चाहते हैं जिस पर तालिबानों के समय अफग़ानिस्तान चल पड़ा था। वहां से खदे़ड़ दिए गए तालिबानी भी नार्थवेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस के साथ साथ पाकिस्तान के कई इलाक़े में अपनी पकड़ मज़बूत कर चुके हैं। अमेरिकी दबाव में उन पर कार्रवाई हो रही हैं। बेनज़ीर का चुन कर आना उनके लिए और मुसीबत खड़ी कर सकता था। लिहाज़ा बेनज़ीर को रास्ते से हटाना ही उनका मक़सद बन गया था।
लेकिन कुछ और भी है जो क़ाबिले गौर है। बेनज़ीर की 18 अक्टूबर की वतन वापसी से ठीक पहले सूचना आयी कि एक तालिबानी कमांडर बैतुल्लाह मसूद ने आत्मघाती दस्ते तैयार किए हैं बेनज़ीर को मारने के लिए। बेनज़ीर के आते ही उन पर फिदायीन हमला होगा। इस सूचना पर प्रतिक्रिया देते हुए बेनज़ीर ने कहा था कि उन्हें तालिबान से उतना ख़तरा नहीं जितना मिलिटरी स्टैब्लिशमेंट में बैठे जिहादी ताक़तों से है। बेनज़ीर के शब्द थे, "मैं बैतुल्लाह मसूद से चिंतित नहीं हूं। मैं सरकार की तरफ जो ख़तरा है उससे चिंतित हूं। बैतुल्लाह जैसे लोग सिर्फ प्यादे हैं। उसके पीछे वो लोग हैं जिन्होने मेरे मुल्क़ में आतंकवाद को बढ़ाने में बड़ा योगदान दिया है।" अब इसे आईएसआई की तरफ इशारा माने या फिर सेना में बैठे कुछ लोगों की तरफ। बेशक बेनज़ीर की हत्या की ज़िम्मेदारी के तौर पर अल-क़ायदा का नाम सामने आ रहा हो। लेकिन अगर अल-क़ायदा और तालिबान को अपनी चिंता है तो पाकिस्तानी स्टैब्लिशमेंट में बैठे ऐसे तत्व भी कम नहीं जिनको लगता रहा कि अगर बेनज़ीर प्रधानमंत्री बन गईं तो उनकी कमाई का ज़रिए भी बंद हो जाएगा और शायद वो भी।
18 अक्टूबर की खूनी रैली के बाद बेनज़ीर ने उसकी अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से जांच की मांग की थी क्योंकि उन्हें मुशर्रफ और मौजूदा सरकार पर भरोसा नहीं था। लेकिन उनकी इस मांग पर कान नहीं धरा गया। उल्टे सरकार की तरफ से हमेशा उन्हें एहतियात बरतने की सलाह दी जाती रही। कुछ इस तरह का एहतियात कि वे नेता की तरह कभी निकल ही ना पाए। कभी रैली ना कर पाए। यहां तक कि इमरजेंसी के खिलाफ जब बेनज़ीर ने लाहौर से इस्लामाबाद लॅाग मार्च का ऐलान किया तब भी वहां उनकी सुरक्षा को लेकर सचेत किया जाता रहा। लब्बोलुआब ये कि वे पाकिस्तान में रहें और चुनाव लड़े लेकिन अपने साथ लोगों को जोड़ने की कोशिश ना करें। अपने कार्यकर्ताओं में जोश भरने वाले काम न करें। उस समय मैं पाकिस्तान में ही था और हरेक फैसलों और बयानों को नज़दीक से देख पा रहा था।
मुशर्रफ पर भी आरोप है कि वे अमेरिका के कठपुतली के तौर पर काम करते हैं। यानि अमेरिकी हित को साध कर ही आगे बढ़ते हैं। दरअसल अमेरिका ने मुशर्रफ और बेनज़ीर के बीच समझौता करा कर ये तय करना चाहा कि मुशर्रफ सिवियन राष्ट्रपति बन कर रहें और बेनज़ीर चुनी हुई सरकार की मुखिया। ऐसे में दुनिया को पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाली की तस्वीर भी मिल जाएगी और ‘वार आन टेरर’ का अमेरिकी कार्यक्रम भी चलता रहेगा। ख़ुद को और मज़ूबती देने के लिए अमेरिका ने मुशर्रफ को बेनज़ीर से और बेनज़ीर को मुशर्रफ से काउंटर बैलेंस करने की नीति अपनायी। अब बेनज़ीर के नहीं रहने से अमेरिका के काम आने का सारा दारोमदार अकेले मुशर्रफ़ के कंधे पर ही आ गया है। जब अमेरिका के सामने और कोई विकल्प नहीं तो मुशर्रफ की पीठ पर उसका हाथ तो मज़बूती से टिकेगा ही।
अब मुशर्रफ़ के दोनों हाथों में लड्डू हैं। वे चाहें तो बेनज़ीर की हत्या को बहाना बना कर 8 जनवरी को होने वाले चुनाव को टाल दें। नवंबर को नेशनल एसेंबली और प्रांतीय एसेंबलियों को भी भंग किया जा चुका है। केयर टेकर प्रधानमंत्री के तौर पर मोहम्मद मियां सूमरू को मुशर्रफ का पिछलग्गू बताया जाता है। चुनाव जितने दिन टलेंगे... सूमरू उतने दिन प्रधानमंत्री बने रहेगें। यानि उतने दिनों तक मुशर्रफ की पार्टी पीएमएल क्यू की चुनाव में संभावित हार टलती रहेगी। दूसरे शब्दों में, चुनाव टलने से मुशर्रफ की गद्दी पर पकड़ मज़बूत बनी रहेगी। क्योंकि आशंका इस बात की भी है कि अगर पीपीपी या पीएमएल नवाज़ जैसी पार्टी भारी बहुमत से जीत कर आती है तो मुशर्रफ़ को इमरजेंसी लगाने समेत कई पुराने फ़ैसलों की वजह से मुश्किल आ सकती है। हालांकि इमरजेंसी हटाने के ठीक पहले कई अध्यादेशों के ज़रिए मुशर्रफ ने अपनी स्थिति को बादशाह जैसी बना ली है। जैसे कि उनके लिए गए किसी फैसले को कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती... और कई फैसलों को नई बनने वाली संसद की मंज़ूरी या तस्दीक करने की ज़रुरत नहीं होगी। लेकिन पाकिस्तान में जब सत्ता बदलती है तो कानून भी बदलते देर नहीं लगती।
दूसरी स्थिति भी मुशर्रफ के मुफ़ीद बैठती है। वे ये कि वे चुनाव न टालें। 8 जनवरी को चुनाव होने दें। अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने भी पाकिस्तान में लोकतांत्रिक प्रक्रिया जारी रखने की ज़रुरत पर ज़ोर दिया है। मुशर्रफ इसे नज़रअंदाज कर अमेरिका को नाराज़ नहीं करना चाहेगें। और फिर माहौल ऐसा बन गया है कि चुनाव अपने तौर तरीक़े से कराए जा सकें। इस हत्याकांड के बाद नेता रैलियां निकालने से हिचकेगें। कार्यकर्ता और अवाम भी उसमें शिरकत करने से डरेगीं। आल पार्टी डेमोक्रेटिक मूवमेंट के बैनर तले नवाज़ शऱीफ ने नवंबर के अंत में ही चुनाव के बहिष्कार का ऐलान कर दिया था। लेकिन बाहरी दबाव और अपने सांसद-उम्मीदवरों की ज़िद के आगे उन्हें मैदान में उतरना पड़ा। आपराधिक मुकद्दमों और साजिश के हवाले से नवाज़ और शाहवाज़ शरीफ पर का परचा पहले ही ख़ारिज़ किया जा चुका है। बेनज़ीर रही नहीं। तहरीक़े इंसाफ के नेता इमरान खान 13 और पार्टियों के साथ चुनाव का बहिष्कार कर रहे हैं। अल्ताफ हुसैन की मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट, फजलुर्रहमान की जमीयत-उलेमा-ए-इस्लाम, असफंदयार वली खान की नेशनल अवामी पार्टी... ये सब लैंड स्लाइड जीत के साथ संसद नहीं पहुंच सकते। ऐसे में चुनाव को दिशा देने वाला कोई बचा नहीं। अब चुनाव हुए तो सत्ता में रही पार्टी पीएमएल क्यू की चलेगी। चुनाव में धाधली की आशंका पहले से ही जतायी जाती रही है।
एक ही दिक्कत है। नवाज़ शरीफ ने अब फिर से चुनाव के बहिष्कार का ऐलान कर दिया है। ऐसे में इन चुनावों की विश्सनीयता पर और गहरे सवाल उठ खड़े होगें। जानकारी ऐसी भी मिल रही है कि नवाज़ और बेनज़ीर के बीच ये तय हो गया था कि चुनाव के दो-तीन दिन पहले हवा का रुख़ देख कर मैदान से हट लिया जाए। ये स्थिति मुशर्रफ के लिए और बुरी होती।
बेनज़ीर की हत्या की जब जांच होगी तब होगी। नतीज़ा जब आएगा तब आएगा। फिलहाल इसकी वजहों की तरफ इशारा करने के लिए तो कुछ ऐसे ही तथ्य हैं।
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