बिहार में बाढ़ से तबाही पर जितना लिखा-दिखाया जाए कम है। लोग त्राहि त्राहि कर रहे हैं। सैंकड़ो बह गए हैं। लाखों फंसे हैं। दाने दाने को मोहताज़ हैं। सही में राहत पहुंचाने की बजाए राज्य और केन्द्र की राजनीति जारी है। हालात पर जितना रोया जाए, बयानबाज़ी को जितना दुत्कारा जाए, व्यवस्था के कान में जूं नहीं रेंगती। सरकारी मदद से दूर लोगों का आसरा अब सिर्फ ऊपर वाले का है। इसे तहसीन मुनव्वर चार पंक्तियों में कुछ इस तरह बयां कर रहे हैं-
कई दिन से हैं भूखे लोग
अब तो ख़ैर हो मौला,
ये जीवन बन गया है रोग
अब तो ख़ैर हो मौला,
नज़र जिस सिम्ट भी उठती है
पानी है तबाही है
हर एक घर में है फैला सोग
अब तो ख़ैर हो मौला!
Saturday, August 30, 2008
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4 comments:
सचमुच, अब मौला ही खैर करे..हमारे राजनीतिज्ञ तो हेलीक़ोप्टर से घूमने के सिवा किसी काम के नहीं
चाहे सुखा हो या बाढ सबसे ज्यादा मार गरीबों पर ही पडती है। कविता की पक्तियाँ बेहतरीन हैं।
उमा भाई , कोसी का तांडव .....मन रो रहा है, इस बाढ़ ने मेरी कई यादों को आब तक निगल लिया है ,.......पता नही मौला क्या चाहते हैं
bhagwan bhi nahi bacha sakata in logon ko.
-----------------------------------एक अपील - प्रकृति से छेड़छाड़ हर हालात में बुरी होती है.इसके दोहन की कीमत हमें चुकानी पड़ेगी,आज जरुरत है वापस उसकी ओर जाने की.
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