Tuesday, August 26, 2008

जम्हूरियत की मज़बूती या सिर्फ सत्ता की लड़ाई?

परवेज़ मुशर्रफ़ को गए अभी हफ़्ता भी नहीं बीता कि नवाज़ शरीफ़ और ज़रदारी आपस में भिड़ गए। चुनावी राजनीति में दोनों की पार्टियां पहले भी भिड़तीं रही हैं लेकिन जिस मक़सद से वे एक हुईं थी वो अभी आधा अधूरा ही हासिल हुआ है। ऐसे में ये वक्त उनके लिए कुछ क़दम और साथ चलने का था। नौ साल की सैनिक तानाशाही के बाद पाकिस्तान अभी अभी उसे मुक्त हुआ है। लोकतंत्र की नई कोंपल यहां फूटी है और ये वक्त उसके पलने-बढ़ने और मज़बूत होने का है। लोकतंत्र की हिमायती ताक़तों ने अपना बहुत कुछ खोकर इस कोंपल को पूरे पेड़ में तब्दील होने का सपना पाल रखा है। लेकिन अवाम की ज़रुरत और उसके सपनों से दूर राजनीतिक दलों की अपनी मजबूरियां होती हैं। यही मजबूरी नवाज़ के पीएमएल एन और ज़रदारी की पीपीपी की भी है। दोनों एक दूसरे की धुरविरोधी पार्टियां रहीं हैं और एक दूसरे के ख़िलाफ़ लड़ कर सत्ता तक पहुंचती रही हैं। मुशर्रफ़ नाम की मजबूरी ने दोनों को एक किया। अकेले पार पाने में नाकाम रही इन पार्टियों ने चुनाव के बाद मिल कर सरकार बनायी। लेकिन गठबंधन सरकार बनाने के बाद भी दोनों ने अपने अपने एजेंडे पर चलने की कोशिश जारी रखा। नवाज़ को मुशर्रफ़ से अपना बदला लेना था तो ज़रदारी को पाकिस्तान की राजनीति में ख़ुद को सेट करना। अपने जनाधार के बूते नवाज़ शरीफ मुशर्रफ़ को एक पल भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे तो एनआरओ (नेशनल रिकांसिलिएशन आर्डर) के ज़रिए वापस लौटे और भ्रष्टाचार के आरोप से मुक्त हुए ज़रदारी मुशर्रफ़ के ख़िलाफ एक हद से बाहर जाने को तैयार नहीं थे। मुशर्रफ़ को बेनज़ीर की हत्या के लिए ज़िम्मेदार ठहराने वाले ज़रदारी अमेरिकी दबाव में ही सही... मुशर्रफ़ को साथ लेकर चलने में ही अपनी भलाई समझने लगे थे। लेकिन उन्होने जब देखा कि आम अवाम, वक्कला (वकीलों) और अदलिया (अदालत और जजों) और सिविल सोसाइटी में हवा उनके खिलाफ बनने लगी है तो वो महाभियोग को राज़ी हुए।

ख़ैर। दबाव की रणनीति के ज़रिए और अमेरिका और सेना के मुशर्रफ़ के पीछे से हाथ खींच लेने की वजह से महाभियोग के पहले ही इस सैनिक तानाशाह से पार पा लिया गया। लेकिन इसके बाद पाकिस्तान की राजनीति में एक खालीपन पैदा हो गया। सैनिक तानाशाह के चले जाने के बाद लोकतांत्रिक ताक़तों के एकजुट रहने की किसी वजह के बचा नहीं रहने का खालीपन। अब किससे लड़ें और किसके ख़िलाफ एक रहें। साझा दुश्मन से निज़ात और साझा मंज़िल पा लेने के बाद ही वर्चस्व की आपसी लड़ाई शुरु होती है। आने वाले समय में पाकिस्तान का मुस्तकबिल कौन तय करेगा। कौन उनकी ज़रुरतों को ज़्यादा अच्छी तरह समझता है और कौन उन्हें बेहतर शासन दे सकता है। अपेक्षाकृत उदारवादी और अमेरिका जैसे देशों की तरफ झुकाव रखने वाली पीपीपी के मुखिया आसिफ़ अली ज़रदारी या फिर दक्षिणपंथी राजनीति करने वाले मियां नवाज़ शरीफ़। चुनाव दोनों में से एक का ही होना है। और वो उसका होगा जो पाकिस्तानी अवाम के ज़्यादा क़रीब होने का संदेश देगा। जो उनकी माली हालत बेशक ना ठीक कर सके... सस्ता आटा चावल दाल बेशक मुहैय्या न करा सके... लेकिन उसके उठाए मुद्दे में साथ खड़े होने का भ्रम दे सके।


राजनीति के पुराने खिलाड़ी नवाज़ शरीफ़ को ये बेहतर पता है कि मौजूदा समय में सरकार में रहने से इसकी नाक़ाबिलियत का ठीकरा उनके सिर भी फूटता। मुद्रा स्फीति और बढ़ती महंगाई से पार पाना कोई आसान काम नहीं और ना ही कबाईली इलाक़ो में सर उठ चुके आतंकवादियों पर काबू पाना। तो डूब रहे जहाज़ पर खड़े हो कर डूबने से बेहतर है किनारे बैठ कर बचाओ-बचाओ चिल्लाना। मतलब अगर नवाज़ सरकार में रहते हुए सरकार को अपने एजेंडे पर चलते हुए न दिखा सकें तो विपक्ष में बैठ कर ख़ुद को सरकार से लड़ते हुए तो दिखा ही सकते हैं। इससे वो अवाम में पीपीपी को एक्सोपोज़ भी कर पाएंगे कि देखो जिन वायदों के साथ वो सत्ता में पहुंची उसे वो भूल चुकी है लिहाज़ा अब बारी उनकी है।




मामला चीफ जस्टिस इफ्तिख़ार मोहम्मद चौधरी की बर्खास्तगी और इसके ख़िलाफ वकीलों के आन्दोलन से शुरु हुआ था जो इमरजेंसी के समय और जजों की बर्खास्तगी और वकीलों पर पाबंदी तक गया। इस आंदोलन ने मुशर्रफ़ के खिलाफ अवाम के गुस्से को एक नया आकार और विस्तार दिया। दोनों ही दलों ने इसका फ़ायदा फरवरी के चुनाव में उठाया। पीपीपी सबसे बड़ी तो पीएमएल एन दूसरी बड़ी पार्टी बन कर उभरी। लेकिन पीपीपी ने इन जजों की बहाली में जितनी देरी की, नवाज़ के लिए राजनीतिक ज़मीन उतनी ही तैयार होती गई। वो वक्कला-अदलिया और प्रेस और सिविल सोसाईटी के जो लोग पहले पीपीपी के साथ थे वो सभी नवाज़ के साथ आते चले गए। इससे ज़रदारी के भीतर राजनीतिक असुरक्षा का भाव और घर करता चला गया। वो जजों तो बहाल कर देते तो इसका सेहरा नवाज़ के सर तो बंधता ही, मुशर्रफ़ के फैसलों को गैरकानूनी ठहराने की स्थिति में उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के पुराने मामले खुलने का भी अंदेशा बढ़ता। इसलिए उन्होने राष्ट्रपति बनने के बाद ही जजों की बहाली की शर्त रख दी। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों पीपीपी का होने से नवाज़ की राजनीतिक पकड़ कमज़ोर पड़ सकती है। इसलिए नवाज़ उन्होने राष्ट्रपति पद के लिए ज़रदारी के खिलाफ सईद उल जमा सिद्दीकी को अपनी पार्टी का उम्मीदवार बना दिया है।



दोनों दलों के इस तरह से अलग होने को पाकिस्तान ही नई नवेली जम्हूरियत के लिए अच्छा नहीं माना जा रहा। इससे लोकतंत्र विरोधी उन ताक़तों को मज़बूती मिलने की आशंका बढ़ गई है जो मौक़े की तलाश में रहती हैं। हालांकि पाकिस्तान की सेना ने राजनीति से ख़ुद को दूर रखने का फैसला किया है और अमेरिका भी पाकिस्तान में लोकतंत्र के अपने प्रयोग को इतनी जल्दी ख़त्म नहीं करना चाहेगा। फिर भी सरकार अगर कमज़ोर और अल्पमत की हो तो आशंकाएं बढ़ जाती हैं।



इस सब बातों के बीच नवाज़ और ज़रदारी के अलग होने का एक सकारात्मक प्रभाव भी हो सकता है। मुशर्रफ़ के बाद उनकी समर्थक पार्टी पीएमएल क्यू कमज़ोर पड़ चुकी है और उसके ज़्यादातर सदस्य अपने पुराने नेता नवाज़ शरीफ के साथ ही अपना भविष्य देख रहे हैं। ज़ाहिर है कि संसद में कोई मज़बूत विपक्ष बचा नहीं रहा जो कि मज़बूत लोकतंत्र के लिए ज़रुरी है। ऐसे में पाकिस्तान की दो सबसे बड़ी और अलग अलग विचारधारा वाली पार्टी को देर सबेर एक दूसरे के खिलाफ़ आना ही था। सो वे आ आ गए हैं। ये अलग बात है कि समय से पहले आ गए हैं। लेकिन नवाज़ शरीफ जानते हैं कि अभी पाकिस्तान में दुबारा चुनाव का सही वक्त नहीं आया है। इसलिए वो विपक्ष में बैठने की बात करके भी पीपीपी की सरकार को गिराने की बात फिलहाल नहीं कर रहे। हालांकि उनसे बतौर विपक्षी पार्टी रचनात्मक सहयोग की अपेक्षा करना बेमानी होगी, लेकिन वो चाहेंगे कि सरकार तब तक चलती रहे जब तक वो उसे अवाम में लताड़ते हुए अपना जनाधार बढ़ाते रहें। अभी उनकी पार्टी का जनाधार सिर्फ पंजाब में है। लेकिन जिस दिन पीपीपी की तरह पीएमएल एन का भी जनाधार बाक़ी के तीनों राज्यों में भी होता दिखेगा, वो चुनाव में जाने में तनिक भी देर नहीं करेंगे। और ऐसा करते हुए वो सिर्फ सत्ता के लिए लड़ते नहीं बल्कि जम्हूरियत को मज़बूत करते भी दिखेंगें।

2 comments:

sumansourabh.blogspot.com said...

उमाशंकर जी, आप की लेखनी से हम सबको आपने मित्र पड़ोसी देश
पाकिस्तान की राजनीतिक जानकारिया मिलती रहे.

Pankaj Parashar said...

उमाशंकर जी, बिल्कुल सही फरमाया आपने।
अभी डेढ़-दो महीने पहले मैं भी एक सप्ताह तक पाकिस्तान रहकर लौटा हूं और वहां की अवाम क्या सोचती है, राजनीतिक और सामाजिक आधारभूमि को देखकर आया हूं। आने के बाद वहां संपूर्ण घटनाक्रम पर मेरी गहरी नजर है. वैसे भी पाकिस्तान के मामलों में शुरू से मेरी रुचि है इसलिए जो कुछ भी वहां की राजनीति और अन्य मामलों के संबंध में मीडिया में खबरें आती हैं, मैं उसे बेहद बारीकी से देखने-समझने की कोशिश करता रहा हूं। इन तमाम चीजों के आधार पर पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूं कि आपका विश्लेषण बिल्कुल दुरुस्त है। मुझे अच्छा लगता है पाकिस्तान मामलों को लेकर एन.डी.टी.वी. पर आपकी रिपोर्टिंग और ब्लाग पर आपको पढ़ना।