गतांक से आगे...
जम्मू में कई इलाक़े में कश्मीरी बसे हैं। पंडित और मुसलमान भी। नई नई बस्तियां बसी हैं। एसबेस्टर की और महलनुमा भी। उनके बीच धार्मिक स्थल भी बने हैं। मंदिर भी और मस्ज़िद भी। तब क्यों नहीं स्यापा हुआ। अब क्यों हो रहा है। कम्युनल लाईन पर बात तब क्यों नहीं आयी। अब क्यों आ रही है।
ज़मीन वापस लेने के फैसले के पीछे अगर श्रीनगर के जनांदोलन की दुहाई दी जा रही है तो ये बात किसी से छिपी नहीं है कि कम से कम दो दशक से पूरी घाटी में आंदोलन, हिंसक या अहिंसक, किस बात के लिए हो रहे हैं। भारत से अलग होने के लिए ही ना। तो जनभावना और जनआंदोलन का ख़्याल कर क्यों नहीं खुला छोड़ देते उन्हें। मालूम है धर्मनिरपेक्षों को कि वो इलाका तो चला ही जाए... पूरा देश जूते मारेगा सो अलग। इसलिए उनको बांध के ही सही... साथ रखना है। और वोट मिलता रहे... कुर्सी बची रहे इसले लिए जनभावना की दुहाई देकर चंद अलगाववादियों को खुश रखना है। और ये अगर लोकल पॉलिटिक्स में बने रहने की चालाक रफ्फूगिरी नहीं है तो क्यों कांग्रेस और पीडीपी जैसी सभ्रांत पार्टियों के नेता ज़मीन की लड़ाई में जम्मू के साथ हो लिए हैं। पार्टी लाइन तोड़ रहे है या पार्टी ही छोड़ रहे हैं। इसलिए क्योंकि नहीं हुए तो ज़मीन सूंघ जाएंगे। जो लोकल हीट इन धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के लोकल नेताओं को लोकल स्तर पर हो रहा है वही अगर राष्ट्रीय स्तर पर रास्ट्रीय स्तर के नेताओं को होने लगे तो शायद वो अपना चश्मा उतार फेंके।
ज़मीन देने के ख़िलाफ जब श्रीनगर में आंदोलन शुरु हुआ तो ज़िम्मेदार सैय्यद अली शाह गिलानी जैसे अलगाववादी नेताओं को ठहराया गया। वहां अगर ये मामला गहरा सांप्रदायिक रंग लेने से बचा तो उन टैक्सी ड्राईवरों और व्यापार करने वालों की वजह से जिनकी रोज़ी रोटी ‘टनल पार’ वालों से चलती है। क्योंकि आपने उनको आज़ादी दी नहीं है इसलिए वो इधर वालों पर आश्रित हैं। इसलिए जहां कहीं भी टनल पार वालों पर पत्थर बरसने की नौबत आयी... वो बचा ले गए... बचा ले जाते हैं। जहां पत्थर बरसे वो कैमरों की निगाह में आ नहीं पाए। अगर कोई भुक्तभोगी मिलेगा तो वही आपको बता पाएगा। क्या क्या हुआ। कैसे वापस आए। लेकिन वहां धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का शासन है। इसलिए सब कुछ मैनेज कर लिया गया। लेकिन अब वहीं मीरवाइज़ उमर फारुक सेब का ट्रक लेकर एलओसी क्रॉस करने की बात कर रहे हैं। मेहबूबा कहतीं है कि हमें अलग कर दो इतना ही दिक्कत है तो। क्यों भई। बीजेपी के नेता भड़काऊ हैं तो ये आगे आकर क्यों नहीं कहते कि जम्मू के भाई... इतनी सी ज़मीन के लिए इतना बवाल क्यों। ले लो। क्या इससे कश्मीर कम हो जाएगा। नहीं। कश्मीरियत उंची उठ जाएगी। पर वो ऐसा क्यों करें।
दरअसल कश्मीर किसी आज़ादी की लड़ाई का नहीं राजनीतिक ब्लैकमेलिंग का शिकार रहा है। जिसका एक सिरा पाकिस्तान को खुलता है। ट्रांसफॉर्मर तो बिहार में भी फुंकते हैं। लेकिन ट्रांसफॉमर फुंकने पर भी ‘जीवे जीवे पाकिस्तान... हम क्या मांगे आज़ादी’ के नारे लगते सुने गए हैं। तो इकॉनॉमिक ब्लोकेड पर तो पाकिस्तान की गोद में बैठने डर दिखाना तो ऐसे नेताओं की फितरत का हिस्सा है। कभी इनको एक्सपोज़ करने की बात क्यों नहीं होती। नंगे पंगे को ही रगड़ कर क्यों खुद को सबसे ठीक होने की गलतफहमी पाले हुए हैं। जान लें। गुजरात हो या जम्मू और कश्मीर, धर्म के नाम पर जहां भी राजनीतिक सत्ता पर बने रहने की मंशा होगी... आज न कल ऐसी ही जलती हुई तस्वीर दिखेगी।
जम्मू जलने के लिए बीजेपी को ज़िम्मेदार ठहराने वाले सावधान। हिन्दुत्व का एक फ्लॉप शो देकर कुंद हो चुकी पार्टी में आप एक नई जान भर रहे हो। इस पार्टी में इतनी कूवत होती तो अवैध बांग्लादेशियों के खिलाफ सिर्फ बयानबाज़ी कर चुप नहीं रह जाती। जनभावना को भड़का कोई जनांदोलन का भ्रम दे पाने जैसी हालत भी पैदा कर पाती तो देश कई जगह जल रहा होता। आंतरिक सुरक्षा के नाम पर बहक कर लोग बांग्लादेशियों को सीमा पर घसीटने पर आमादा हो रहे होते। राम मंदिर बनाने के लिए दुबारा से ईंट लेकर आडवाणी के पीछे हो लिए होते। लेकिन अभी सिर्फ सिर्फ जम्मू जला है तो सिर्फ एक वजह से। आपकी वजह से। क्योंकि आपने जलने की पृष्ठभूमि तैयार की। पहले ज़मीन देकर। फिर वापस लेकर।
Thursday, August 7, 2008
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