मुशर्रफ को आख़िरकार इस्तीफ़ा देना पड़ा। मुख्य तौर पर तीन वजहें रहीं। नवाज़ शरीफ और ज़रदारी के नेतृत्व में राजनीतिक दलों की घेराबंदी, पाकिस्तानी सेना का चुप रहना और अमेरिका का मुशर्रफ़ से पीछे से हाथ खींच लेना। पाकिस्तान में जम्हूरियत की मज़बूती के लिए मुशर्रफ को हटाया जाना ज़रुरी माना जा रहा था। अब मुशर्रफ नहीं हैं लेकिन जम्हूरियत की चुनौतियां अब भी बरकरार है।
किसी जम्हूरियत की मज़बूती के लिए एक मज़बूत विपक्ष का होना ज़रुरी है। मुशर्रफ की विदाई के बाद उनकी बनाई पार्टी पीएमएल क्यू कमज़ोर पड़ चुकी है। ऐसे में मज़बूत विपक्ष की भूमिका में कोई बड़ी पार्टी नहीं बची है। दो धुरविरोधी पार्टियां पीपीपी और पीएमएल एन सत्ता में साझीदार हैं। अब जब उनका साझा दुश्मन नहीं रहा तो ऐसे में देखना होगा कि अलग अलग नीतियां लेकर चलने वाली ये दोनों पार्टिया कब तक साथ चलती हैं। इनके बीच हितों का टकराव तो होना ही है। लेकिन अभी मुल्क जिस आर्थिक बदहाली और विधि व्यवस्था की नाकामी का शिकार है उससे पार पाए बग़ैर अगर ये आपस में लड़े तो लोकतंत्र विरोधी ताक़तों को फिर मौक़ा मिल सकता है।
आतंकवाद पर क़ाबू पाते हुए और मुल्क को तरक्की की राह पर ले जाते हुए अगर दोनों पार्टियों ने एक दूसरे के ख़िलाफ चुनाव लड़ा तो ये पाकिस्तान की नई नवेली जम्हूरियत के हित में होगा। स्वार्थ की वजह से लड़े तो जैसा था वैसे की स्थिति में पहुंचने में तनिक भी देर नहीं लगेगी।
Monday, August 18, 2008
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5 comments:
जितना दफ्तर में लिखा सारा यहां भी छौंक दिया।
बड़ी बारीक निगाह रखते हैं आप...शुक्रिया
सही है.
साझा दुश्मन के अभाव में दोनों दलों के झगड़ने की संभावना कुछ दिन पूर्व प्रेमशंकर झा भी व्यक्त कर रहे थे।आप से जानना चाहते थे कि- चर्चा थी कि जरदारी जजों की बहाली के ख़िलाफ़ और मुशर्रफ़ के प्रति नरम था , यह हृदय-परिवर्तन कैसे संभव हुआ?
ज़रदारी के हृदय परिवर्तन के पीछे मजबूरियां जानने के लिए ज़रदारी को दिखने लगी है ज़मीन वाली पोस्ट देखें। शुक्रिया
http://valleyoftruth.blogspot.com/2008/06/blog-post.html
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