सबसे बड़ा सवाल है कि नए हालात में मियां नवाज़ शरीफ और आसिफ़ अली ज़रदारी कब तक साथ खड़े रह पाएंगे? ये सवाल अचानक उठ नहीं खड़ा है। ये तब भी था जब ये साथ खड़े हुए थे। लेकिन मुशर्रफ़ से लड़ाई की शोर में ये दबा हुआ था। दोनों साथ आए ही थे मुशर्रफ़ को हटाने के लिए। तो जब इनके साझा दुश्मन मुशर्रफ़ सियासी परिदृष्य से हट गए हैं तो ज़ाहिर सी बात है इनके बीच एकता का साझा बहाना भी ख़त्म हो गया है। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज़, पाकिस्तान की ये दो मुख्य पार्टियां पहले एक दूसरे के खिलाफ लड़ती और संसद तक पहुंचती रही हैं। परवेज़ मुशर्रफ ने इन दोनों राजनीतिक पार्टियों के सुप्रीम नेताओं से जम कर दुश्मनी की। नतीज़ा दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है की तर्ज़ पर इन दोनों पार्टियों के नेता साथ आने को मज़बूर हुए। यूं तो 'इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान' की इन दोनों पार्टियों की विचारधारा में कोई मौलिक विभेद मुश्किल है। लेकिन ये तो साफ़ है कि नवाज़ शरीफ राइटविंग पॉलिटिक्स यानि दश्रिणपंथी राजनीतिक में भरोसा करते हैं और अपेक्षाकृत कट्टरवादी चेहरा माने जाते हैं। वे पाकिस्तान में अमेरिकी दख़ल की मुख़ालफत करते रहते हैं। दूसरी तरफ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को बेनज़ीर भुट्टो के नेतृत्व में अपेक्षाकृत उदारवादी नीति वाली पार्टी का रहा है। इसका झुकाव हमेशा पश्चिमी देशों, ख़ासतौर से अमेरिका की तरफ रहा है। बेनज़ीर के पार्टी की कमान संभालने वाले आसिफ़ अली ज़रदारी की यूं तो अभी कोई ठोस राजनीतिक छवि नहीं बन पायी है। वे बस बेनज़ीर की विरासत को आगे ले जाने की कोशिश में जुटे हैं और पार्टी को पुरानी नीति से अलग नहीं ले जा सकते। इसके लिए उनकी अपनी मज़बूरियां भी हैं।
यानि राजनीतिक पार्टी के तौर पर पीपीपी और पीएमएल क्यू की विचारधारा में जो अंतर है वो ख़त्म नहीं हो सकता। होना नहीं चाहिए। लेकिन अगर दोनों मुख्य पार्टियां एक साथ सत्ता में बैठी रहेंगी तो मज़बूत विपक्ष की भूमिका कौन निभाएगा? मुशर्रफ़ की वजह से वजूद में आयी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (क्यू) मुशर्रफ़ के जाने के साथ ही ख़त्म नहीं तो बहुत कमज़ोर तो पड़ ही गई है। उसके सांसदों के जल्द ही टूट कर अपने पुराने नेता नवाज़ शरीफ के साथ आ जाने की उम्मीद जतायी जा रही है। तो जब कोई मज़बूत विपक्ष नहीं होगा तो मज़बूत जम्हूरियत की बात बेमानी होगी। अगर पीपीपी-पीएमएल (एन) गठबंधन पर नज़र डालें तो इन दोस्ती के दिनों में भी दोनों के बीच सोच और एप्रोट का अंतर साफ दिखाई देता रहा है। इस्लामाबाद से सटे हिल स्टेशन मरी में जारी घोषणापत्र एक तरह से इन दोनों पार्टियों के बीच का या न्यूनतम साझा कार्यक्रम (सीएमपी) था। हालांकि इसमें सारा ज़ोर मुशर्रफ़ को हटाने और बरख़ास्त जजों की बहाली पर था जो सरकार को समर्थन देने की नवाज़ शरीफ़ की शर्त और नतीज़ा था। फरवरी में चुनाव नतीजे आने के बाद भी सरकार बनने में तक़रीबन एक महीना लग गया तो वो इसलिए कि ज़रदारी नवाज़ की शर्तों को मानने को तैयार नहीं हो पा रहे थे। लेकिन नवाज़ शरीफ की लगातार ज़िद, सरकार से अपने मंत्रियों के इस्तीफे जैसे क़दम और चुनावी वादा न निभाने के चलते जनता में पीपीपी की लगातार होती फज़ीहत से पैदा हुए दबाव का ही नतीज़ा रहा कि आख़िरकार ज़रदारी को मुशर्रफ़ के खिलाफ महाभियोग लाने का ऐलान करना पड़ा। चौतरफा दबाव की वजह से मुशर्रफ तो निकल लिए लेकिन अब गठबंधन सरकार के सामने पेंच जजों की बहाली को लेकर फंसा हुआ है। नवाज़ ने कई बार समय सीमा तय की है लेकिन बहाली को लेकर फैसला लेने में देरी हो रही है। ज़रदारी को डर है कि अगर बर्ख़ास्त जजों को बहाल किया गया तो उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के पुराने मुकद्दमें फिर से खुल सकते हैं। नवाज़ शरीफ बेशक उन्हें अपनी तरफ से ऐसा नहीं होने का भरोसा दे रहे हों लेकिन ज़रदारी का डर बेवजह नहीं है।
बेशक नवाज़ ने मुशर्रफ के पीछे हाथ धोकर नहीं पड़ने की बात फिलहाल मान ली हो। लेकिन मुशर्रफ़ का दिया जो दर्द नवाज़ ने झेला और अदालत और वकीलों ने जो परेशानी उठायी है उसको देखते हुए ये अचरज़ की बात नहीं कि मुशर्रफ़ के खिलाफ़ देर सबेर कानूनी कार्रवाई शुरु की जाए। पुरानी अदालत बहाल होने की स्थिति में इसमें तेज़ी आ सकती है। मुशर्रफ के जाने के पुराने फैसले असंवैधानिक करार दिए जा सकते हैं। ऐसे में मुशर्रफ और बेनज़ीर के बीच हुआ नेशनल रिकांसिलिएशन एलायंस की जद में आ सकता है। मुशर्रफ के जिस नेशनल रिकांसिलेएशन आर्डर के ज़रिए ज़रदारी पर से भ्रष्टाचार के मामले हटाए गए उसे रद्द किया जा सकता है। ऐसे में ज़रदारी फिर से राजनीतिक तौर पर हाशिए पर धकेले जा सकते हैं। मुशर्रफ क हटाने में हुई देरी के चलते वकीलों ने ज़रदारी के खिलाफ जो मोर्चा खोल दिया उससे भी ज़रदारी सहमे हुए हैं। एतेज़ाज़ एहसन जैसे वकील नेता का उभरना भी ज़रदारी को भारी पड़ सकता है। दूसरी तरफ, नए हालात में ज़रदारी को कमज़ोर करने वाली जितनी भी बातें होगीं वो सब नवाज़ शरीफ को सत्ता के क़रीब ले जाने वाली साबित हो सकती हैं। मुशर्रफ़ के हाथों बहाल हुए मौजूदा जजों ने नवाज़ शरीफ के चुनाव लड़ने की पात्रता पर रोक लगा रखी है। पुराने जज आएंगे तो नवाज़ से ये पाबंदी हटनी तय है। नवाज़ का चुन कर संसद में आने का मतलब है ज़रदारी की तरकश से उस तीर का निकल जाना जिसके बूते वो बाद की राजनीति में नवाज़ को दबा कर रखने की कोशिश कर सकते हैं। राजनीतिक में कोई स्थायी दुश्मन नहीं होता ये तो धुर विरोधी रही पार्टियां पीपीपी और पीएमएल (एन) का मिल कर बनाने के फैसले से ही साफ हो गया। लेकिन इसी राजनीति में कोई स्थायी दोस्त भी नहीं होता ये ज़ाहिर होना बाक़ी है। इन दोनों पार्टियों के लिए ये स्वभाविक भी है क्योंकि ये पहले से एक दूसरे के खिलाफ लड़ते रहे हैं। आगे भी लड़ेगें। बात सिर्फ समय की है।
नवाज़ शरीफ अभी तुरंत चुनाव नहीं चाहेंगे क्योंकि इससे उनपर अपने स्वार्थ के लिए सरकार गिराने का आरोप लग सकता है और पाकिस्तान की सियासत में अभी जो कुछ भी ठीक होता नज़र आ रहा है वो फिर से ग़लत रास्ता पकड़ सकता है। नवाज़ को ये भी पता है कि फरवरी के चुनाव में उनकी पार्टी ने सिर्फ पंजाब प्रांत में उम्दा प्रदर्शन किया जबकि पीपीपी की पकड़ बाक़ी के तीन राज्यों सिंध, बलचिस्तान और एनडब्ल्यूएफपी में भी है। इसलिए जब तक नवाज़ पूरे पाकिस्तान में अपने लिए आधार नहीं बना लेते तब तक वो चुनाव नहीं चाहेंगे। लेकिन आवाम के सामने वो ज़रदारी को कमतर साबित करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ेंगे। बर्ख़ास्त जजों की बहाली की ज़िद के ज़रिए वो सिविल सोसायटी और वकीलों के चहेते तो बन ही गए हैं... आने वाले दिनों में गठबंधन सरकार के होने वाले फैसलों में भी अपनी चला कर वो वोटबैंक पुख़्ता करने की कोशिश में जुटे रहेंगे। यानि दोस्ती के दिनों में दुश्मनी के हथियार जुटाते और संभालते रहेंगे।
2 comments:
आने वाला समय भीषण है दोनों के लिए.
इतनी लंबी पोस्ट काहे को लिखते हैं स्याही ज्यादा मत खर्च करिये ....पूरी पोस्ट पढते - पढते फेफड़े फूल गयें....लेकिन पोस्ट जानकारी से भरपूर है..................
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