Saturday, February 23, 2008

एक तरफ जनादेश, दूसरी तरफ ज़रदारी

(अमर उजाला, सोमवार 25 फरवरी के अंक में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)

चुनाव नतीजे आने के बाद पाकिस्तान में तुरंत सरकार बन जानी चाहिए थी। ख़ासतौर पर तब जब पीएमएल एन और पीपीपी चुनाव के पहले से ही साथ चलने की बात करते रहे हैं। अब जबकि 272 जेनरल सीटों वाली नेशनल एसेंबली में पीपीपी 87 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी और पीएमएल एन 67 सीटों के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी है तो फिर इन्हें मिल कर सरकार बनाने में देरी क्यों हो रही है। ज़ाहिर है कि पाकिस्तान में चुनाव के पहले और चुनाव के बाद के राजनीतिक परिदृश्य में ज़मीन आसमान का अंतर आ गया है।

चुनाव के पहले मुशर्रफ को पानी पी पी कर कोसने में पीपीपी को फायदा था। हालांकि बेनज़ीर मुशर्रफ के साथ समझौते के तहत ही पाकिस्तान लौटीं थी और चुनाव में शिरकत कर रही थी। लेकिन चुनाव में धांधली और संविधान की धारा 58 2बी के सवाल पर मुशर्रफ से उनका समझौता अंतिम रुप नहीं ले पा रहा था। इसी बीच बेनज़ीर की हत्या हो गई। पीपीपी ने मुशर्रफ को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की। मुशर्रफ समर्थक सत्तारुढ पार्टी पीएमएल क्यू के कई नेताओं पर इल्ज़ाम लगाया और हत्या के लिए सरकार में बैठे लोगों को ज़िम्मेदार ठहराया। लेकिन पार्टी चुनाव से हटी नहीं। बेनज़ीर की हत्या से उपजी सहानूभुति का फायदा मिलने की उसे उम्मीद थी और कुछ हद तक वो हुआ भी।

इधर नवाज़ शरीफ जो 1993 तक जिनकी बेनज़ीर से बातचीत भी नहीं होती थी... बेनज़ीर की हत्या के बाद उसे अपनी बहन करार देने लगे। चुनाव से हटे लेकिन पीपीपी के मैदान में डटे रहने के कारण अपनी पार्टी को भी चुनाव में उतार दिया। नवाज़ और ज़रदारी कई मौकों पर मिले और जम्हूरियत की जंग में साथ लड़ने की बात की। इन्हें चुनाव में धांधली की आशंका भी सताती रही। लेकिन ख़तरों के बावजूद अवाम वोट डालने निकली और चुनाव ठीक-ठाक हो गए। किसी पार्टी को उम्मीद से कुछ कम तो किसी को कुछ ज़्यादा... लेकिन अपने-अपने हिस्से की सीटें मिल गईं। चुनाव नतीजों के बाद अब पहले की भावनात्मक ऐलानों का वास्ता अब ज़मीनी हक़ीकतों से हो रहा है। इसके केन्द्र में हैं पीपीपी और उनके सह-अध्यक्ष आसिफ अली ज़रदारी।

मुशर्रफ विरोध के सहारे सीटें बटोरने वाली पीपीपी को मुशर्रफ़ को नज़रअंदाज करना अब नामुमकिन लग रहा है। वजह कई है। नंबर एक। मुशर्रफ की संवैधानिक स्थिति राष्ट्रपति की है। सरकार बनाने का न्यौता उन्हीं के हाथ में है। नंबर दो। पाकिस्तान के राष्ट्रपति को ये अख्तियार है कि वो किसी चुनी हुई नेशनल एसेंबली को कभी भी भंग कर सकते हैं। संविधान की धारा 58 2बी के ज़रिए। ज़ाहिर है कि ऐसे में मुशर्रफ को नाराज़ करने वाले फैसले करना पीपीपी के लिए आसान नहीं है। मुशर्रफ कह रहे हैं कि वो नई सरकार के साथ काम करने को तैयार है। लेकिन वो नवबंर तीन के पहले की अदालत की बहाली के ज़बर्दस्त खिलाफ हैं। इमरजेंसी लगाए जाने के पहले की अदालत और चीफ जस्टिस इफ्तिखार चौधरी की फिर से बहाली का मतलब होगा मुशर्रफ के खिलाफ उस मामले का फिर से खुलना जिसमें जेनरल की वर्दी पहन उनके राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की वैधता को चुनौती दी गई थी। अगर वो मामला दुबारा खुला तो मुशर्रफ को राष्ट्रपति पद से हाथ धोना पड़ सकता है। उनके खिलाफ महाभियोग लगाने की ज़रुरत भी नहीं पड़ेगी। अब ज़रदारी को डर ये है कि अगर पुरानी अदालत को बहाल करने की नवाज़ शरीफ की शर्त को उन्होंने माना तो उनकी सरकार चंद घंटों की मेहमान ना साबित हो।

महाभियोग लाने की नवाज़ की शर्त मानने पर डर ये है कि कोई भी सेना अपने पूर्व चीफ पर इस तरह का अभियोग बर्दाश्त नहीं करेगी। मुशर्रफ ने बेशक वर्दी उतार दी हो लेकिन सेना ने उन्हें सिर से उतारा नहीं है। पाकिस्तान में सरकार चलाने के लिए सेना से अच्छे संबंद ज़रुरी हैं और ज़रदारी पाकिस्तान की इस सच्चाई को समझते हुए सेना से अपने संबंध खराब नहीं करना चाहेंगे। इसलिए नवाज़ शरीफ की महाभियोग जैसी शर्त मानने में वो हिचक रहे हैं।

इसके अलावा अमेरिका का दबाव भी ज़रदारी पर काम कर रहा है। अमेरिका ने मुशर्रफ और बेनज़ीर के बीच समझौता करा सत्ता में दोनों को भागीदारी देने का फार्मूला अपनाया था। ताकि दोनों के ज़रिए पाकिस्तान और इस इलाके में अमेरिकी हित सधते रहें। बेनज़ीर बेशक ना रही हो लेकिन अमेरिका अपने लिए स्थिति में बदलाव नहीं चाहता है। उसने ‘साफ-सुथरे’ चुनाव के लिए मुशर्रफ की तारीफ की है। ये भी जता दिया है उन्हें मुशर्रफ चाहिए। बेनज़ीर की जो भूमिका अमेरिकी ने तय की थी वो चाहता है कि अब ज़रदारी उस भूमिका को आगे बढ़ाएं। ऐसे में प्रधानमंत्री पद की पेशकश ज़रदारी की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को हवा दे दे तो हैरानी की बात नहीं। वैसे भी चुनाव के पहले प्रधानमंत्री पद के लिए मकदूम अमीन फहीम का नाम आगे करने वाले ज़रदारी अब कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री कौन होगा ये आगे तय होगा।

पीपीपी की नेतृत्व वाली नई सरकार को लेकर एक तरफ ये तमाम दबाव और आशंकाएं हैं और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा हैं तो दूसरी तरफ है जनादेश। जनादेश मुशर्रफ के खिलाफ है। ऐसे में ज़रदारी अमेरिका और राष्ट्रपति मुशर्रफ के दबाव में आकर पीएमल क्यू जैसी पार्टियों के साथ सरकार बनाने की कोशिश करते नज़र आते हैं तो अवाम भड़क सकती है। वकीलों का आंदोलन और ज़ोर पकड़ सकता है। नवाज़ शरीफ का कद इस हद तक बड़ा हो सकता है कि अगली किसी चुनाव की सूरत में पीपीपी हाशिए पर न चली जाए। या फिर सरकार बनाने के पहले ही पीपीपी ही ना टूट जाए क्योंकि पार्टी में प्रधानमंत्री के पद और बेनज़ीर की राजनीतिक विरासत समेत कई मुद्दों पर मतैक्य नहीं है। मौजूदा हालात की मजबूरी में एक रखे हुई है।

कुल मिला कर ज़रदारी एक ऐसी ज़मीन पर खड़े हैं जहां आगे कुंआ है तो पीछे खाई। इसलिए वो लगातार आम सहमति की सरकार बनाने का राग अलाप रहे हैं। दरअसल उन्हें पता है कि अगर वो पीएमएल क्यू या मुशर्रफ समर्थकों को किसी रुप में साथ लेकर चलने की कोशिश करते हैं तो नवाज़ शरीफ उनके साथ नहीं आएंगे। नवाज़ साथ आए तो उनकी साख को धक्का लगेगा। और वो सरकार से बाहर रहे तो पीपीपी इसका राजनीतिक फायदा उठा सकेगी।

पीपीपी मान चुकी है कि पार्टी लगातार मुशर्रफ से संपर्क में है। बेशक वो हवाला मुशर्रफ की संवैधानिक स्थिति का दे रही है। लेकिन उसकी नज़र पीएमल क्यू के सांसदों पर भी है। वो चाहती है कि पीएमएल क्यू एक पार्टी के तौर पर उसके साथ ना आए। लेकिन चौधरी शुजात और परवेज़ इलाही जैसे नेताओं को छोड़ उसके बाकी चुने हुए सदस्य साथ आ जाएं। इसके अलावा अवामी नेशनल पार्टी के साथ पीपीपी के अच्छे संबंध रहे हैं। एएनपी के पास 9 सीटों हैं। मोहाज़िरों की पार्टी मुत्ताहिद्दा कौमी मूवमेंट यानि एमक्यूएम के पास 19 सदस्य हैं। सिंध की प्रांतीय सरकार में भागीदारी देने के बदले पीपीपी एमक्यूएम को केन्द्र में साथ ला सकती है। एमक्यूएम भी इसके लिए तैयार दिखती है। इसके अलावा 26 आज़ाद उम्मीदवार भी जीते हैं जो सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। कहने का मतलब कि पीएमएल एन के बिना जो सरकार बनती है वो मुशर्रफ को तुष्ट करने वाली भी होगी और अमेरिकी का खुश करने वाली भी। फिर भी अगर ज़रदारी को नवाज़ शरीफ के साथ मिल कर ही सरकार बनाना पड़ा तो ये ज़रदारी पर जनादेश की जीत ही होगी।

(इस लेख को पढ़ने के बाद बगल के सर्वे में अपनी राय ज़रूर ज़ाहिर करें...)

2 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप का विश्लेषण सही है।

अजय रोहिला said...

पाकिस्तान की राजनिति को बहुत अंदर तक जान चुके है। विश्लेषण बड़ा सटीक है। पाकिस्तान में अगर सरकार बनी तो यह विश्लेषण ज्यों का त्यों दिखाई देगा।