Wednesday, February 6, 2008
चल 'भैय्या'... महाराष्ट्र चलें
लगता है कि मुंबई को गुंडा राज से निकालने के लिए वहां कूच करना ही पड़ेगा। ख़ूब सारा गेंदे का फूल लेकर... ताकि 'भैय्या' वाली फराकदिली दिखाया जा सके। राज ठाकरे तो अपने राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है... छापामार लड़ाई... जीत गए तो ठीक है नहीं तो ज़्यादा नुक्सान नहीं होगा। लेकिन भैय्याओं के साथ ऐसी कोई दिक्कत नहीं है। वे कल भी थे आज भी हैं और कल भी रहेंगे। मुंबई क्या टोरंटो में भी। जहां भी कहीं उनकी ज़रुरत होगी या जहां भी कहीं उनकी ज़रुरत पूरी होंगी। राज ठाकरे को खुजली बिहारियों या यूपीआईटों से उतनी नहीं हो रही जितनी अपने पैर के नीचे की ज़मीन खिसक जाने की वजह से हो रही है। बाला साहेब ठाकरे ने ऐसी दुलत्ती दी है कि भाई साहब की पैज़ामे की नाड़ ही सरक गई। मराठी बिहारी साथ ही रहेंगे... ये कोई राज़ की बात नहीं बता रहा... स्थापित तथ्य याद दिला रहा हूं।
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1 comment:
एक उत्तर-भारतीय की भावनाएँ कविता के माध्यम से
पराये हैं,
ये तो मालूम था हमको
जो अब कह ही दिया तूने
तो आया सुकूं दिल को
शराफत के उन सारे कहकहों में
शोर था इतना
मेरी आवाज़ ही पहचान
में न आ रही मुझको
बिखेरे क्यों कोई अब
प्यार की खुशबू फिज़ाओं में
शक की चादरों में दिखती
हर शय यहाँ सबको
बढ़ाओं आग नफ़रत की
जगह भी और है यारों
दिलों की भट्टियों में
सियासत को ज़रा सेको
सड़क पे आ के अक्सर
चुप्पियाँ दम तोड़ देती हैं
बस इतनी खता पे
पत्थर तो न फेंकों
स्वप्रेम तिवारी
khabarchilal.blogspot.com
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