नवभारत टाइम्स पहले लघु कथाएं और कविताएं छापा करता था। पृष्ठ संख्या दो पर। उनमें कभी खलील जिब्रान की भी हुआ करती थीं और कभी अज्ञेय की भी। सालों पर पढ़ी अज्ञेय की ऐसी ही कुछ पंक्तियां अचानक याद हो आयीं। काफी असरदार हैं ये पंक्तियां।
साँप!
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी तुम्हे नहीं आया।
एक बात पूछूँ - उत्तर दोगे?
तब कैसे सीखा डसना,
विष कहाँ पाया?
- अज्ञेय
Thursday, January 31, 2008
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3 comments:
कमाल उमाशंकर भाई. बहुत बहुत शुक्रिया इन पंक्तियों के लिए.
साँप!
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी
तुम्हे नहीं आया।
एक बात पूछूँ - उत्तर दोगे?
तब कैसे सीखा डसना,
विष कहाँ पाया?
सही रूप में यह इस तरह है।
साँप!
तुम सभ्य तो हुए नहीं
शहर में रहना नहीं आया।
एक बात पूछूँ - उत्तर दोगे?
ये विष कहां पाया
ये डसना कहां सीखा?
असल में सही ये है.... पहले उमाशंकर भाई और फिर अजित भाई.... इसे पढ़े इसमें एक आंतरिक लय और गेयता है... अज्ञेय प्रयोगवादी थे लेकिन लयात्मकता उनके यहां बहुत है।
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