मान लीजिए कि मैं एक टीवी-संपादक हूं। आज मैं अपनी कहानी सुनाता हूं। इसका पात्र 'मैं' काल्पनिक है। इसे किसी और से जोड़ कर मत देखिएगा। जिससे भी जोड़िएगा उसको अच्छा नहीं लगेगा। समानता संयोग से हो सकती है पर उससे तो बिल्कुल भी मत जोड़िएगा जिसकी ज़िंदगी मेरी इन पंक्तियों के सबसे नज़दीक लगे।
तो मैं अपने बारे में बता रहा हूं। ना तो मैं जाट की तरह क़ाबिल हूं और ना ही बनिए की तरह बुद्धिमान। मैं ठाकुर हूं। नंग-धरंग ठाकुर। दिमागी तौर पर शून्य। पर जुगाड़ों के ज़रिए सीढ़ियां चढ़ता गया। मामूली कर्मचारी से खुद-मुख्तारी की हैसियत पाल ली। आज भी कई लाईन में लगे हैं। लेकिन जब मैंने रैकेटिंग शुरु की तब वक्त कुछ और था। ये मीडियम नया-नया था। लोगों की कमी थी। अच्छे लोगों की तो और भी। पर मुझे मौक़ा मिलता गया। जहां मौक़े बंद होते दिखाई दिए अपने तिकड़मी दिमाग से मैंने नये मौक़े बना लिए। एक डाल से उछलता दूसरी डाल पर कूदता गया। नित नई दुकानें खुलती गईं और उनके ज़रिए मैं कमाता गया। जिनको मुझमें फायदा नज़र आया वो मुझ में इंवेस्ट करते गए। चाहे वो नेता हों या प्रापर्टी डीलर या किसी राज्य का सीएम। वो मुझ पर दांव लगाते गए। मेरा इस्तेमाल करते गए और मैं उनका इस्तेमाल करने की फिराक में लगा रहा।
फिर वो वक्त आया जब मिल्कियत मेरे हाथ में आ गई। कलम चलाने से ज़्यादा कुछ भी दिखाने की मिल्कियत। मैं एक टीवी संपादक बन गया। उम्र मेरी कम नहीं है। पर मेरी त्वचा से मेरी उम्र का पता नहीं चलता। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि मुझे वक्त के पहले और क़ाबिलयत के खिलाफ मौक़ा मिला। क्रेडिट गोज़ टू माई एब्लिटी ऑफ रैकेटिज़्म। सेल्फ प्रमोशन। दूसरों की ज़रुरत को समझते हुए अपने को पेश करने की, अपने को सेल कर पाने की क़ाबिलियत।
तो मैं टीवी संपादक बन गया। नहीं बनता तो कहीं अंडा भुर्जी बेच रहा होता। बगल के दुकानदारों से अपनी दुकादारी ज़्यादा चमकता। बिल्कुल सफाई के साथ... और अब तक साउथ दिल्ली में एक रेस्टोरेंट का मालिक बन चुका होता। पर क्योंकि मैंने ये पेशा अपनाया तो मैं संपादक ही बन सकता था। सो बन गया। अब मैं कुछ भी दिखा सकता हूं। किसी के बेडरुम से लेकर फर्ज़ी सेक्स रैकेट तक। मेरे जैसे और भी कई हैं जो सी़ढियां चढना चाहते हैं। इंटर्न से रिपोर्टर...रिपोर्टर से सीधे संपादक बनना चाहते हैं। बिना सैलरी के काम करने को तैयार हैं। कमा वो बाहर से लेते हैं। उनका स्टिंग दिखाने के काम आ जाता है।
हालांकि रिपोर्टर के तौर पर मेरी शुरुआत इतनी धमाकेदार नहीं रही थी। पर संपादकत्व की ओपनिंग अच्छी रही है। लोग जानने लगे हैं। मेरा इंटरव्यू भी छपने-दिखने लगा है। पत्रकार के तौर पर कभी किसी से खुद क़ायदे का सवाल नहीं पूछ पाया। इसलिए अब कोई मुझे क़ायदा समझाता है तो समझ नहीं आता। कभी अपना बचाव कर लेता हूं तो कभी दूसरों की ग़लतियां गिना अपने किए को जस्टिफाई करने की कोशिश करता हूं। निजी बातचीत में कहता हूं बदनाम हुए तो क्या... नाम तो ही ही रहा है ना। नहीं तो अबतक कौन पहचानता था मुझे। और अब पहचान भी गए हैं तो कौन क्या बिगाड़ लेगा। जिसका बिगाड़ना था मैंने बिगाड़ दिया। जनमानस को भड़का दिया। मेरी असलियत खुल ही गई तो क्या। पब्लिक थोड़े ही मुझे पीटने आएगी। वैसे भी पब्लिक मेमोरी शार्ट टर्म होती है। कल कुछ और दिखा देंगे। पुलिस वाले मेरा क्या बिगाड़ेंगे। मैं प्रेसवाला हूं। यक़ीन ना हो तो मेरी गाड़ी के आगे पीछे के शीशे पर लिखा देख लीजिए। शर्ट एक रुपये में प्रेस करता हूं और पैंट डेढ़ रुपये में। किसी की करवानी है तो आप भी संपर्क कर सकते हैं। रिपोर्टर बनाने की गारंटी मेरी।
मुझसे सामाजिक ज़िम्मेदारी की उम्मीद रखने वाले सावधान। मैं टीवी संपादक पहले हूं। मुझे अपनी दुकान चला देनदारों का ऋण चुकाना है। 'मेनस्ट्रीम मीडिया' को बेशक मुझसे घिन आती हो। पब्लिक अब बेशक छी छी कर रही हो... पर शर्म मुझको आती नहीं। आपको आती हो तो जा.. खुशी से खुदकुशी कर ले...
Thursday, January 24, 2008
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3 comments:
टीवी न्यूज़ के सम्पादक को कैसी शर्म, सर.....शर्म करने से न तो टीवी रहेगी, न न्यूज़ और न चैनल. अरे जिसके ऊपर नेता, प्रोपर्टी डीलर और सीएम वगैरह इन्वेस्ट करना शुरू कर दें, उसकी सामाजिक जिम्मेदारी किस बात की?
शर्म?
यह किस चिड़िया का नाम है।
बड़ा प्रतिनिधि चरित्र चुना है। एक नहीं, कई संपादकों को इसमें अपना अक्श नज़र आ जाएगा। लेकिन ये हालत हिंदी पत्रकारिता में ही क्यों ज्यादा दिखती है, यह बात सोचने की है।
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