Wednesday, January 16, 2008

पाकिस्तान और पीपुल्स पार्टी का भविष्य

(31 जनवरी को अमर उजाला में प्रकाशित)

पाकिस्तान में चुनाव की एक और तारीख नज़दीक आ रही है। 18 फरवरी। क़रीब महीने भर बचा है। बेनज़ीर भुट्टो की हत्या के बाद जो फोकस शिफ्ट हो गया था वो दुबारा फोकस में आने लगा है। हालांकि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का चुनावी अभियान उस तरह से शुरु नहीं हुआ है जैसा बेनज़ीर ने आगाज़ किया था। पार्टी अभी भी सदमें में है... और शायद इस मनोभाव में भी कि अब वर्करों को ज़्यादा कुछ करने की ज़रुरत नहीं। मौत से उपजी सहानुभूति ही सब कुछ कर देगी। प्रधानमंत्री पद के लिए पार्टी के घोषित उम्मीदवार मकदूम अमीन फहीम पुराने और मंजे हुए नेता है। मुल्क की राजनीतिक नब्ज़ की उन्हें पकड़ है। लेकिन बेनज़ीर के नहीं रहने से पार्टी में संगठनात्मक कमज़ोरी आयी है इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। बिलावल ज़रदारी के नाम में भुट्टो जोड़ कर चेयरमैन बना तो दिया गया है लेकिन हाल ही में लंदन उन्होने दुबारा साफ कर दिया है कि सक्रिय राजनीति में आने का उनका कोई इरादा नहीं है। पहले पढ़ाई है। ऐसे में पार्टी गतिविधियों की कमान आसिफ ज़रदारी के हाथों में है। बेशक बेनज़ीर की वसीयत के हवाले से उन्होने पार्टी की कमान संभाली हो। लेकिन उनके सांगठनिक क्षमता पर कई सवाल हैं। पार्टी को एकजुट दिखना अभी वक्त की जरुरत है। इसलिए बेनज़ीर की राजनीतिक विरासत और नए नेतृत्व को लेकर कोई अभी सवाल नहीं उठा रहा। न भुट्टो परिवार में और ना ही पार्टी में। लेकिन राजनीतिक विरोधियों को तो मौक़ा मिल ही गया है। तहरीक़े इंसाफ पार्टी के अध्यक्ष इमरान खान के मुताबिक, ‘ये वो टाइम था जब पीपुल्स पार्टी को भुट्टो परिवार के साए से निकल जाना चाहिए था... ज़रदारी साहब पर खुद भ्रष्टाचार के इतने आरोप हैं कि वो तन कर चुनौती दे पाने की हालत में नहीं हैं।’

पार्टी में आसिफ ज़रदारी, मकदूम अमीन फहीम और मुल्तान के मोहम्मद युसुफ रज़ा गिलानी समेत तीन वरिष्ठ सलाहकारों के अलावा पांच और सलाहकार भी बनाए गए हैं। लेकिन मकसद संगठन को मज़बूत करने से उतना नहीं जितना इलाक़ाई संतुलन बनाने का। कहीं सिंध के नेताओं का दबदबा दिखने से बलुचिस्तान और पंजाब की ईकाईयां ना नाराज़ हो जाएं। फाटा समेत सीमांत इलाके में वैसे ही पीपीपी की पैठ कमज़ोर है। पार्टी में अब कोई करिश्माई नेतृत्व नहीं है। और हालात भी ऐसे हैं कि बड़ी चुनावी रैलियों की गुंजाइश नहीं बची। बेनज़ीर के मारे जाने के बाद दहशत का जो माहौल बना है उसने राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए करने को कुछ ज़्यादा नहीं छोड़ा है। चुनाव की तारीख आगे बढ़ जाने से हिंसा का दौर भी लंबा खिंचने की आशंका बढ़ गई है। वरिष्ठ पत्रकार मुस्तंसर जावेद का कहना है कि ‘इस वक्त स्नैप इलेक्शन हो जाना चाहिए था। कानून और व्यवस्था को बहाना बना कर चुनाव टालने से हिंसा का दौर भी ख़त्म नहीं होगा बल्कि और बढ़ेंगे।’ गुरुवार 10 जनवरी को लाहौर हाईकोर्ट के बाहर हुआ धमाका इसकी तस्दीक करता है। लाहौर पाकिस्तान की राजनीति का सबसे महत्वपूर्ण गढ़ है। पाकिस्तान नेशनल एसेंबली के 270 सीटों में से 148 पंजाब से हैं। और जब यहां इस तरह की हिंसा होगी तो चुनावों पर तो इसका असर पड़ेगा ही।

पिछले साल 20 नवंबर को प्रोविशियल एसेंबली भंग होने के पहले पंजाब में मुशर्रफ समर्थक पीएमएल क्यू की सत्ता थी। अभी भी उन्ही की केयर टेकर सरकार है। पीपीपी का लगातार आरोप लगाती रही है कि मुशर्रफ और उनकी पार्टी चुनाव में जम कर धांधली करने जा रही है। बेनज़ीर के बिना इसे रोकना पीपीपी के लिए बड़ी चुनौती होगी। चुनाव धांधली की मुखालफत को लेकर बेनज़ीर नवाज़ शरीफ के साथ कोई ख़ास रणनीति बनाने की तैयारी में थी। बकौल नवाज़ शरीफ, ‘वो इस मुतल्लिक मुझसे मिलना चाहती थीं। फोन पर चार्टर ऑफ डेमोक्रेसी को लेकर बात हुई थी। लेकिन इससे पहले कि मुलाक़ात हो पाती... वो ख़ुद ही नहीं रहीं।’ बेनज़ीर और नवाज़ शरीफ के बीच जिस स्तर की बातचीत या समझ पैदा हुई थी, पीपीपी के नए नेत़त्व को उसे समझने में और उसी तरह की साझा रणनीति बनाने में वक्त लगेगा। बहुत संभावना इस बात कि है कि वैसी समझ पैदा करने की शायद पार्टी अब ज़रुरत ही ना समझे। ये चुनाव में प्रदर्शन और पार्टी के भविष्य के लिहाज़ से उतना मुफीद नहीं होगा क्योंकि पाकिस्तान का सियासी माहौल इस तरह का नहीं है कि जम्हूरियत चाहने वाली कोई भी पार्टी अकेले दम पर आगे बढ़ सके। बेनज़ीर की मौत के तुरंत बाद नवाज़ ने पीपीपी के कार्यकर्ताओं-समर्थकों से कहा था कि ‘वे (पीपीपी) उन्हें अपना समझें और वे (नवाज़) उनका साथ देने को तैयार हैं।‘ लेकिन उनके इन शब्दों को पीपीपी कार्यकर्ताओं पर असर बनाने की कोशिश के तौर पर लिया गया। नवाज़ शरीफ अपनी और वक्त की नज़ाकत को समझते हैं। लिहाज़ा कहते हैं कि ‘जम्हूरियत की बहाली और मुशर्रफ को जड़ से ख़त्म करने के लिए ज़रुरी हुआ तो वो पीपीपी के साथ मिल कर सरकार बनाने को भी तैयार हैं।’ सवाल है कि या ऐसी ही ज़रुरत पीपीपी भी समझती है या नहीं।

बेनज़ीर को लेकर पंजाब में भी ज़बर्दस्त सहानुभूति की लहर है। सिंध से पीपीपी के सीनेटर अनवर बेग को भरोसा है कि 'हम क्लीन स्विप करेंगे और मुशर्रफ का फ्यूचर स्टेक पर होगा।' लेकिन सिर्फ इसी के भरोसे रहना पीपीपी को मंहगा साबित हो सकता है। लरकाना में अपने पहले संबोधन में आसिफ ज़रदारी ने बेनज़ीर के साथ मारे गए अंगरक्षकों को ‘हमारे पंजाबी भाईयों की शहादत’ करार देकर कर पंजाब को भुट्टो परिवार से जोड़न की कोशिश की। लेकिन पार्टी की असल चुनौती यहां परवेज़ इलाही जैसे नेताओं की पैठ को उखाड़ने की होगी। वैसे भी, पीएमएल क्यू के पास प्रशासनिक ताक़त भी है जिसके बेजा इस्तेमाल का अंदेशा पीपीपी जैसी पार्टियों की तरफ़ से जताया जा रहा है। लेकिन पीएमएल क्यू के नेता और पाकिस्तान के पूर्व रेलमंत्री शेख रशीद ‘फ्री एंड फेयर इलेक्शन की गारंटी’ देते हैं। आसिफ ज़रदारी पर निशाने साधते हुए वे कहते हैं कि ‘आसिफ ज़रदारी पहले ये साबित करें कि जो ज़िम्मेदारी उनकी पार्टी की तरफ से उन्हें सौंपी गई है वो इसके क़ाबिल भी हैं या नहीं।‘ हालांकि शेख रशीद बेबाकी से ये स्वीकारते हैं कि ‘इसमें कोई शक नहीं कि अगर 8 जनवरी को इलेक्शन हो जाते तो पीपीपी को फ़ायदा मिलता।‘

दरअसल बेनज़ीर के बाद पार्टी की संगठनात्मक ‘इफ्स एंड बट्स’ और राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ से जूझ पाने की उसमें बची रही कूवत पर ना जाएं तो पार्टी के लिए जो संभावनाएं नज़र आती हैं वो बस सहानुभूति से ही पैदा होती दिख रही हैं। बेनज़ीर हत्याकांड की जांच में कोताही और मौत की वजहों पर पर्दादारी करने की सरकारी कोशिश ने इसे एक और आयाम दे दिया है। लेकिन पीपीपी सिर्फ इसके भरोसे मैदान में उतरी तो नतीज़ा मनमाफ़िक नहीं भी हो सकता है। वैसे काफी कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि चुनाव में वो ताक़त क्या भूमिका निभाती है जिसके सहारे बेनज़ीर और मुशर्रफ में पावर शेयरिंग जैसी डील की बात सामने आयी थी और बेनज़ीर की वतन वापसी हुई थी। क्या वो ताक़त अब भी मुशर्फर और पीपीपी को एक दूसरे से काउंटर बैलेंस करने की नीति पर चलते हुए पीपीपी को सत्ता में देखना चाहती है...या बेनज़ीर की मौत के बाद वो कोई वैकल्पिक नीति अपना लेती है। वैसे राष्ट्रीय सरकार बनाने की बात भी हवा में है। मुशर्रफ की तरफ से सर्वदलीय सरकार बनाने की पेशकश हुई है। नवाज़ शरीफ मुशर्रफ के बिना ऐसी सरकार बनाने की बात कर रहे हैं। ऐसी कोई सरकार बन पायी और चुनाव उसके तहत हुए तो सूरते हाल बदल सकती है। वैसे डर इस बात का भी है कि कहीं ऐसी कोई सरकार बनाने या न बनने के बहाने चुनाव को और ना टाल दिया जाए।

No comments: