Thursday, January 10, 2008

पत्रकार ही नहीं... इंसान भी होने का अहसास!

लाहौर में धमाके की जैसे ही ख़बर आयी मैं उन दोस्तों का नंबर मिलाने लगा जो लाहौर में हैं। हम पत्रकार हमेशा उन्हीं को फोन करते हैं जिनसे कोई ख़बर मिलने की उम्मीद होती है। लंबे वक्त बाद आज पहली बार ऐसा महसूस हुआ कि मैं भी इंसान हूं। बेतहाशा फोन मिला रहा था। आफिस में था। पाकिस्तान पर ही अपनी एक रिपोर्ट को एडिट करा रहा था। इसी बीच इंपुट पर बैठीं अदिति भाल ने इत्तिला दी कि शायद लाहौर में कुछ धमाका हो गया है। पता करो। मुझे हमेशा ख़बर की भूख होती है। पर आज जो पहले चार नंबर मिलाए वो ख़बर के लिए नहीं था। सच में। अमीन हफीज़। जियो टीवी के पत्रकार। कैसे उनसे दोस्ती हुई वो लंबी कहानी है। पर पहला नंबर उनका मिलाया। मिला पर कोई रेस्पांस नहीं। फिर मिलाया। आपके मतलूबा नंबर से जवाब मौसूल नहीं हो रहा। फिर मिलाया। वही जवाब। शाहवाज़ का नंबर ट्राई किया। वो स्पोर्ट्स देखता है। फिर भी इस उम्मीद से कि शायद वो बता पाए कि अमीन कहां है। पर नहीं मिला। बार बार कोशिश की। मुश्किल। लाहौर पुलिस के पीआरओ अतहर खान का नंबर भी नहीं मिल रहा था।

फिर इस्लामाबाद में आसमा शिराज़ी को फोन मिलाया। बिज़ी। पर एकाध कोशिश के बाद वो लाईन पर थीं। छूटते ही बोलीं आठ मरे हैं। ज़्यादातर पुलिसवाले हैं। फिदायीन अटैक है। पुलिस को निशाना बनाया गया है। मैंने कहा आज ख़बर के लिए नहीं... दोस्तों का हाल जानने फोन किया है। ख़बर तो डाऩ और पीटीवी पर आने लगी है। ये बताएं वहां रैली होने वाली थी। पत्रकार दोस्त भी होंगे। कैसे हैं सभी। आसमा ने कहा कुछ नहीं कह सकते। अभी पूरी डिटेल नहीं आयी है। ये एआरवाई चैनल की होस्ट वही आसमा हैं जिन्होने मुझे बेनज़ीर की मौत को सबसे पहले कंफर्म किया था। जिसके आधार पर मैं आफिस को घर बैठे मेल कर पाया था कि बेनज़ीर की मौत हो गई है। पर आज उस आसमा के पास भी पूरी जानकारी नहीं थी कि किसे क्या हुआ है। दिक्कत उनकी नहीं...मेरी थी। फिर अमीन का नंबर ट्राई किया। इस बार बिज़ी आया। तसल्ली मिली कि उसका मोबाईल इस्तेमाल में है। दुआ किया कि वही कर रहा हो।

इसके बाद अपने काम की आपाधापी में खो गया। उससे निपट के फिर ख़्याल आया। फोन मिलाया। उसकी चिरपरिचित आवाज़। हलो नौजावान...माई लव...हाउ आर यू। मैंने कहा लगता है खाना खा रहे हो। खा लो। कल बात करते हैं। उसने कहा ओके माई लव। टेक केयर। जो शायद मैं कहना चाहता था।

1 comment:

abhishek said...

उमा शंकर जी, कुछ ऐसी ही फीलिंग से साबका हुआ था। मेरे एक परिचित के साथ भी ऐसा हुआ है जब वे खबर जानने के लिए जिन्हें फोन लगे रहे थे वे खुद ही उस घटना में दिवंगत हो गए थे। वाकई उस रोज लगा कि हम कितने संवेदनहीन हो गए हैं।