पीपीपी अब तक मुशर्रफ के साथ नहीं तो उसके पीछे भी पड़ी नज़र नहीं आ रही थी। चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर चुनकर आने के बाद पार्टी नेताओं को अपनी सरकार बनाने और उसे बचाए रखने की चिंता थी। ऐसे में आठ साल से मज़बूती से टिके मुशर्रफ से वो झगड़ा मोल नहीं लेना चाहती थी। पीएमएल एन नेता नवाज़ शरीफ़ जब जब जनता से किए गए वायदे को निभाने और मुशर्रफ तो तत्काल हटाने की मांग करते है तो ज़रदारी उन्हें व्यवहारिक होने की सलाह देते रहे हैं। ज़रदारी के दिमाग में सरकार जाने का डर तो था ही... मुशर्रफ से साथ अमेरिका का खड़ा रहना भी मुशर्रफ को हटाने की राह में बाधा रहा है। यहां तक कि आपातकाल के समय बर्खास्त किए गए जजों की बहाली भी अब तक लटकी हुई है। इन हालातों के बीच जब नवाज़ शरीफ़ ने सरकार से अपने सभी नौ मंत्रियों के इस्तीफे दिलवा दिए तो पीपीपी को पहला झटका लगा। लेकिन वो उससे भी संभलने और वैकल्पिक रास्ते तलाशने में लगी रही है। लेकिन इस बीच नवाज़ शरीफ ने जिस तरह की राजनीति शुरु कर दी है उससे ज़रदारी के कान खड़े हो गए है।
सरकार से अलग होने के बाद से नवाज़ शरीफ अवाम को ये संदेश देने में क़ामयाब साबित हो रहे कि जिन मुद्दों को लेकर आपने इस सरकार को चुना उन मुद्दों को सरकार पीछे छोड़ चुकी है। आपातकाल के पहले की अदालत की बहाली और मुशर्रफ को राष्ट्रपति पद से हटाना... ये दो मुद्दे पाकिस्तान की अवाम के दिल से जुड़े हैं। मुशर्रफ की आठ साल की तानाशाही में पाकिस्तान की अवाम की जिंदगी से लेकर अर्थव्यवस्था तक... सब कुछ दांव पर लग गया और उसी का नतीज़ा रहा कि अवाम ने सत्ताधारी पार्टी पीएमएल क्यू को भारी शिकस्त दी। पाकिस्तान की मीडिया और वकीलों के आंदोलन ने लोकतांत्रिक सरकार लाने में अहम भूमिका निभाई। और ये भी अब छला हुआ महसूस कर रहे हैं। तो जो ज़मीन पीपीपी ने खाली छोड़ दी है नवाज़ शरीफ़ उसे तेज़ी से भर रहे हैं। जो पहले पीपीपी के साथ थे वो सब अब नवाज़ शरीफ़ के साथ हो लिए हैं या हो रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री और कद्दावर नेता बेनज़ीर भुट्टो की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति की लहर भी अब शांत हो चुकी है। लोग सरकार को उसके कामकाज़ के आधार पर तौलने की तैयारी में हैं। जो गुस्सा मुशर्रफ और उसकी स्टैब्लिशमेंट यानि व्यवस्था के खिलाफ था वो अब इस गठबंधन सरकार के खिलाफ होता जा रहा है। नवाज़ शरीफ ने सरकार अलग होकर गुस्से के केन्द्र में पीपीपी और ज़रदारी को ला खड़ा किया है। ये बात ज़रदारी को समझ आने लगी है इसलिए मुशर्रफ के खिलाफ वो अपनी ज़बान फिर से तल्ख करने लगे हैं। व्यापारी से राजनेता बने ज़रदारी को अवाम की ताक़त का एहसास है। तानाशाही के तमाम हथकंडो के बाद भी जो अवाम मुशर्रफ की पार्टी के खिलाफ वोट कर सकती है वो ज़रदारी के खिलाफ भी।
पाकिस्तान में पीपीपी और पीएमएल एन, ये दो ही ऐसी राष्ट्रीय पार्टी हैं जिनका आधार पूरे देश में है। दोनो एक दूसरे की घोर प्रतिद्वंद्वी रही हैं। ये मुशर्रफ की तानाशाही से निकलने की मज़बूरी थी कि ये एक साथ आए। लेकिन देश की दो मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी लंबे समय तक साथ नहीं चल सकती। इससे एक का वजूद दूसरे में समाने का ख़तरा रहेगा और सैनिक तानाशाही से निकल मुल्क एक अलग राजनीतिक दलदल में फंस सकता है। लोकतंत्र के हित और उसकी मज़बूती के लिए ज़रुरी है कि दो ताकतवर राजनीतिक पार्टियों के बीच ‘लोकतांत्रिक लडाई’ होती रहे। कहने का मतलब ये कि इन दोनों दलों का आज न कल चुनाव में भिड़ना ही होगा। मुशर्रफ को न हटा पाने की मज़बूरी ने पीपीपी के जनाधार को कमज़ोर कर रही है इसमें कोई शक नहीं। नवाज़ शरीफ को पता है कि अभी चुनाव का सही वक्त नहीं आया है। इसलिए वो एक कदम चल कर अपनी तैयारियों में जुटे हुए हैं। अब चुनाव के दो सूरते हाल नज़र आ रहे हैं। या तो ज़रदारी मुशर्रफ को हटाने का फैसला कर अपना चेहरा बचाने की कोशिश करें। ऐसे में यदि मुशर्रफ इस सरकार को बर्खास्त करने की हिमाकत भी करते हैं तो दूबारा चुनाव की हालत में पीपीपी अपनी शहादत वाली छवि पेश कर सकती है। या फिर ज़रदारी नवाज़ शरीफ़ के सरकार से पूरी तरह समर्थन वापस ले लेने तक का इंतज़ार करें। लेकिन उसके बाद के चुनाव में पीपीपी को अवाम की तरफ से कुछ नहीं मिलने वाला। हां, तब मुशर्रफ, अमेरिका और ज़रदारी की तिकड़ी कोई नया खेल रचा पाकिस्तान में काबिज़ रहने की कोशिश कर सकते हैं। अब फैसला ज़रदारी के हाथ में है।
(12 जून के अमर उजाला में प्रकाशित)
No comments:
Post a Comment