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मुशर्रफ ने जब नवाज़ शरीफ का तख़्ता पलट मुल्क की बागडोर अपने हाथ में ली तो उन्होने नवाज़ शरीफ को क़ैद की बजाय निर्वासित कर दिया। इन शर्तों के साथ कि वो दस साल तक देश वापस नहीं लौटेंगे और चुनाव में हिस्सा नहीं लेगें। अमेरिका के दबाव में बेनज़ीर की वापसी के बाद सऊदी अरब ने भी मुशर्रफ पर दबाव डाला और इस तरह से नवाज़ शरीफ की वापसी तक़रीबन आठ साल बाद संभव हो पायी। लेकिन चुनाव लड़ने का मामला कानूनी दांव पेंच में फंसा हुआ है। नई सरकार मुशर्रफ को हटाने का अपना वादा अभी तक पूरा नहीं कर पायी है और इस मुद्दे पर सरकार से अपने मंत्रियों के इस्तीफे दिला कर नवाज़ शरीफ ने दूरगामी राजनीतिक चाल चली है। इससे वो उन लोगों को अपने साथ कर पाने में क़ामयाब रहे हैं जो पहले इसी मुद्दे पर पीपीपी के साथ थे। कहने के मतलब कि उनका वोट बैंक दिनों दिन मज़बूत होता जा रहा है। हालांकि नवाज़ शरीफ को लगता है कि अभी दूबारा चुनाव का सही वक्त नहीं आया है। इसलिए वो पीपीपी सरकार को बाहर से समर्थन जारी रखे हुए हैं। जिस दिन उन्होने समर्थन खींचा सरकार की बुनियाद हिल जाएगी। ऐसी सूरत में नवाज़ शरीफ अपनी पार्टी पीएमएल एन को बड़ी क़ामयाबी की ओर ले तो जा सकते हैं लेकिन संसद के भीतर खुद उसका नेतृत्व नहीं कर सकते। कहते हैं कि दुश्मनी के हथियार दोस्ती के समय ही इकठ्ठे किए जाते हैं। आज के दोस्त नवाज़ कल को अगर चुनाव मैदान में पीपीपी को ललकारते हैं... और जो कि आज न कल होगा ही... तो ऐसे में पीपीपी के पास बेहतर विकल्प यही है कि वो नवाज़ शरीफ की चुनावी उम्मीदवारी की संभावना को लटकता छोड़ कर ही रखे। मुशर्रफ के साथ उनका बने उनके ‘वर्किंग रिलेशन’ को भी यही मुफ़ीद बैठता है।
इधर एक दिलचस्प बात ये हुई है कि पहली बार अमेरिका की तरफ से ये कहा गया है कि मुशर्रफ ने अपने आठ साल के शासनकाल में ‘कई ग़लतियां’ की हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री कॉडालिज़ा राइस ने एक इंटरव्यू में ये बात कहते हुए हालांकि ये जोड़ दिया कि आतंक के खिलाफ की लड़ाई में मुशर्रफ बेहतरीन सहयोगी रहे हैं। लिहाज़ा मुशर्रफ की ग़लतियों वाले रायस के बयान से मुशर्रफ की कमज़ोर पड़ती हालत से का अंदाज़ा न भी लगाएं तो इतना तो कहा ही जा सकता है कि अमेरिकी भी पाकिस्तान में करवट लेती राजनीतिक व्यवस्था को देख और महसूस कर रहा है। वो झटके से मुशर्रफ का हाथ नहीं छोड़ सकता लेकिन अमेरिका की पाकिस्तान में दिलचस्पी मुशर्रफ के अस्तित्व से कहीं आगे तक जाती है। एक तरफ लोकतंत्र का हिमायती बन वो दूसरी तरफ पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार को एक तानाशाह के साथ चलते रहने के लिए लंबे समय तक दबाव नहीं डाल सकता। हो सकता है कि वो मुशर्रफ का साथ तभी तक दे जब तक वे नई सरकार से पाकिस्तान में अपनी मनमाफिक सुविधाएं और पैठ हासिल न कर ले। घरेलु राजनीति का दबाव अगर ज़रदारी को बाध्य करता है कि वो मुशर्रफ को हटाएं... तो वो मुशर्रफ को समर्थन वाली अमेरिकी मंशा के खिलाफ खड़ा होने की बजाय अमेरिका के साथ मुशर्रफ के खिलाफ खड़ा होना पसंद करेंगे। लेकिन यहां भी पेंच नवाज़ शरीफ को लेकर है जो अमेरिका के कहे मुताबिक चलने को कभी तैयार नहीं होगें। कुल मिला कर पाकिस्तान की उलझी राजनीति का सिरा सुलझाने, मुश्किलों से पार पाने और असल जम्हूरियत लाने में नवाज़ शरीफ को अभी लंबा वक्त लगेगा.