ऐ कवि,
जिस क्षण तू ये कविता लिख रहा होगा
उस क्षण भी हर तरफ कलयुग घट रहा होगा
किस किस पर लिखेगा तू किस किस को छोड़ेगा
तेरी लेखनी से तेज़ सृष्टिचक्र चल रहा होगा
घर की ही बात लो तो
कई चित्र उभरते हैं
तुम्हारे धरोहर औऱ संस्कार
ऐसे टूट बिखरते हैं
कि कहीं कोई अपना अपनो से कट रहा होगा
बाप की ज़मीन का टुकड़ा बेटों में बंट रहा होगा
उस क्षण भी हर तरफ कलयुग घट रहा होगा...
ये पंक्तियां मैने अपने कॉलेज के दिनों में लिखी। कम से कम दो पन्नों पर। इनमें ओजोन परत में बड़े हो रहे छेद पर भी लिखा...
पर्यावरण का प्रश्न अधिकार के बाहर है
खुद किया गया विनाश प्रतिकार के बाहर है
तू फ्रिज़ का पानी पी इधर... सो रहा होगा
ओजोन परत का छेद उधर... बड़ा हो रहा होगा
किस किस पर लिखेगा तू किस किस को छोड़ेगा...
तेरी लेखनी से तेज़ सृष्टिचक्र चल रहा होगा...
मेरी डायरी के ये पन्ने गुम गए। कई साल से ढूंढ़ रहा हूं। नहीं मिल रहे। लेकिन अगर आप इन पंक्तियों को आगे बढ़ा पाएं तो शायद तसल्ली मिले।
Wednesday, April 23, 2008
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1 comment:
अंतरिक्ष में बारात जाएगी।
मंगल से पानी आएगा।
धरती सूखती जाएगी।
और हम सब भोजन की जगह
टैबलेट खा रहे होंगे।
किस किस पर लिखेगा तू किस किस को छोड़ेगा...
तेरी लेखनी से तेज़ सृष्टिचक्र चल रहा होगा।
इंसान की नजरों का पानी सूख चुका होगा।
बाप बेटे से तो बेटा बाप से उब चुका होगा।।
रात उजली तो दिन अंधियारे की गर्त में होगा।
आदमी का चेहरा कई पर्त में होगा।।
किस किस पर लिखेगा तू किस किस को छोड़ेगा...
तेरी लेखनी से तेज़ सृष्टिचक्र चल रहा होगा।
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